मंगलवार, 30 जनवरी 2024

पुस्तक समीक्षा : मेघा मिटावा का काव्य संग्रह शब्द शोर, सीधी और सरल भाषा में रचनात्मक दिशा में आगे बढ़ने का संदेश हैं -- समीक्षक : एम. असलम. टोंक राज.


 पुस्तक समीक्षा : मेघा मिटावा का काव्य संग्रह शब्द शोर, सीधी और सरल भाषा में रचनात्मक दिशा में आगे बढ़ने का संदेश हैं

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समीक्षक : एम. असलम. टोंक राज.

         

    कविता एक ऐसी लेखन कला है, जो गागर में सागर भर देती है। पढ़ने में भले ही काव्यात्मक दो पक्तियां हो, लेकिन उनका अर्थ बहु-आयामी एवं सारगर्भित होता है। काव्यात्मक अभिव्यक्ति साहित्य की वह विधा है, जिसमें किसी मनोभाव, चिंतन-मनन को सारगर्भित शब्दों का उपयोग करते हुए कलात्मक रुप से अभिव्यक्ति किया जाता है। एक अच्छी कहानी एवं एक अच्छे काव्य को यदि हम परिभाषित करें, तो उसके सारतत्व के रुप में हम ये कह सकते हैं कि एक अच्छी कहानी वो हैं, जिसमें सुनने एवं पढ़नें वाले की जिज्ञासा उसको पूरा पढ़ने की बनी रहे। आगे क्या होगा, इसको जानने के लिए पाठक में उत्सुकता बनी रहे, तो हम कह सकते हैं कि कहानी अच्छी एवं प्रभावी है। इसी प्रकार काव्य रचना अच्छी है, उसका अंदाज़ा हम इस प्रकार भी लगा सकते हैं कि यदि कोई कवि किसी काव्य रचना को सुना रहा है। और सुननें वाले सुधि श्रोता वंस मोर, वंस मोर..कहने लगे, तो लगता है कि काव्य रचना में दम है। कहानी में आगे क्या होगा, जानने की जिज्ञासा बनी रहे, काव्य में सुधि श्रोता बार-बार उसको सुनना चाहे, तो उसको सफल कह सकते हैं। सफल कहानी एवं काव्य वहीं है, जिसका कोई सार्थक अर्थ एवं उससे रचनात्मकता की ओर सोच विकसित हो। हालांकि ये पैमाना पूरी तरह सटीक हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन एक हद तक इस पैमाने को मान्यता दी जा सकती है। अल्लामा इक़बाल कहते हैं-

 दिल से जो बात निकलती है असर रखती है ,

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है। 

बहरहाल हम यहां पर जिस कवयित्री की काव्य संग्रह के बारे में चर्चा करना चाहते हैं, वो उच्च शिक्षा प्राप्त होने के साथ ही आसपास के परिदृश्य को बहुत ही गहनता से समझने का सामर्थ्य भी रखती है। कवयित्री मेघा मिटावा ने अपने जीवन में परिवारिक संघर्षों को देखा और महसूस किया। कौन-सा रिश्ता कितना महत्वपूर्ण होता है, वो समझती है। उसने नारी के सभी रुपों एवं भूमिका को भी भली-भांति महसूस करते हुए उसकी महत्ता, अभिलाषा एवं पीड़ा सहित उसकी सोच आदि को भी अपने काव्य संग्रह, शब्द-शोर.. में अभिव्यक्त किया है। इसको पढ़नें के बाद ऐसा महसूस होता है कि कवयित्री ने प्रभावी शब्दों का उपयोग करते हुए सीधे तौर पर अपनी भावनाओं को काव्यात्मक शैली में पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया। कवयित्री ने जीवन के तानबाने को सीधी, सरल भाषा में अभिव्यक्ति दी है। जापानी काव्य विधा में अमूमन तीन पक्तियों की कलात्मक अभिव्यक्ति को हाइकु कहते हैं। इसकी भी छलक कवयित्री की काव्य रचनाओं में मिलती है।

 हां, मुझे संवरना नहीं आता,

कड़वा हो मन,

जब मुझे मीठा बनना नहीं आता।

 राजस्थान के टोंक शहर में 8 सितंबर को पैदा हुई अध्यापिका मेघा मिटावा ने शब्द शोर नामक काव्य संग्रह पुस्तक में 54 कविताओं को 78 पेज में संग्रहित किया है। जिसकी प्रबुद्धजनों ने भी काफी सराहना की। आज ये पुस्तक कवियत्री की पहचान के साथ ही उसके परिवार के लिए हर्ष व गर्व का विषय भी हैं। कवयित्री अपने काव्य संग्रह में कहती है -

 मैं मनीषा हूं, कई मेरे पर्याय और मेरे प्रकार।

जैसे मति, बुद्धि, मेघा, प्रज्ञा और विचार।।

 शिक्षक के रुप में जहां कवयित्री मेघा मिटावा अपनी भूमिका बखूबी निभा रही है, वहीं समाज एवं देश के प्रति भी उसके चिंतन-मनन का सिलसिला जारी है। जो गद्य-पद्य में वो अभिव्यक्त भी करती रहती है। उनके काव्य संग्रह को पढ़नें के बाद हम कह सकते हैं कि कवयित्री प्रभावी लेखन के जरिए समाज को एक रचनात्मक दिशा देना चाहती है। संस्कार एवं संस्कृति से दूर होते लोगों को मानवीय पहलुओं का पाठ पढ़ाते हुए बनावटीपन को अस्वीकार करती हैं। मेघा मिटावा की एक कविता -

 मैं तेरे कल का आईना हूँ

वृद्धा माँ ने कहा.... बेटा मुझसे मुँह मत फेर,

देख मैं तेरे कल का आईना हूँ

चेहरे पर जो मेरे झुर्रियाँ पड़ी हैं,

गालों पर जो गड्ढे पड़े हैं,

आँखें जो मेरी धंस गई हैं,

कमर जो मेरी झुक गई है,

बाल जो मेरे दूध जैसे सफेद हो गए हैं,

जबान मेरी लड़खड़ा गई है,

चमड़ी मेरी सिकुड़ गई है, दांत मेरे गिर गए हैं,

देख मैं तेरे कल का आईना हूँ।

बेटा मुझसे मुँह मत फेर.... मैं तेरे कल का आईना हूँ।

तुमको बड़ा करने में मेरी,

उम्र सारी चली गई है।

आज जरूरत जब मुझको तेरी,

सारी तेरी हिम्मत मुझको रखने की निकल गई है।।

बच्चे भी तेरे बड़े होंगे, तुम्हारी भी यह अवस्था आएगी।

याद करोगे उस दिन को जब, माँ के गिड़गिड़ाने की आवाज याद दिलाएगी ।।

माँ कहती थी...... बेटा मुझसे मुँह मत फेर, देख मैं तेरे कल का आईना हूँ।

 किसी भी विधा में हो, लेकिन लिखता वही है, जिसके शब्दों में जान होती है, जिसको शब्दों की पहचान होती हैं, जो समाज, देश एवं मानवता के प्रति कहीं ना कहीं चिंतित रहता हैं। जिसे अपने संस्कार एवं संस्कृति की फिक्र रहती है। वहीं अपनी अभिव्यक्ति को किसी भी विधा में सार्वजनिक रुप से अभिव्यक्त कर समाज एवं देश को रचनात्मक दिशा में लाने की कोशिश अपने सामर्थ्य के हिसाब से जरुर करता है। कवयित्री ने जीवन के इसी ताने-बाने को अपनी काव्य पक्तियों में सीधी, सरल भाषा का उपयोग करते हुए कलात्मक रुप से अभिव्यक्ति दी है। अंत में जो संदेश दिया है, वो भी सारगर्भित है। -

अंत में बात तुम्हें यही सिखाती हूँ।

मनुष्यता सबसे बड़ा धर्म, यह बतलाती हूँ।।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमें समानता, न्याय, भाईचारा, अहिंसा,नागरिक अधिकारों का मार्ग दिखाया: डॉ कमलेश मीना


 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमें समानता, न्याय, भाईचारा, अहिंसा,नागरिक अधिकारों का मार्ग दिखाया: डॉ कमलेश मीना

महात्मा गांधी विश्व स्तर पर सभी के लिए पिता तुल्य थे और उनका जीवन विश्व स्तर के नेताओं के लिए सच्चे कार्य का प्रतीक था। महात्मा गांधी 'कभी ना बुझने वाला एक दीपक' है जो अपनी रोशनी देने से कभी नहीं रुकेंगे और हमेशा अपनी रोशनी से हमें देते रहेंगे।

मैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 76वीं पुण्य तिथि पर उन्हें भावभीनी पुष्पांजलि अर्पित करता हूं। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की पुण्य तिथि के उपलक्ष्य में शहीद दिवस मनाया जाता है। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई थी और उनकी मृत्यु के बाद सार्वजनिक रूप से शोक व्यक्त किया गया था। यह दिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सबसे दुखद दिन है। भारत में महात्मा गांधी के योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके बलिदान को याद करने के लिए हर साल 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाया जाता है। 30 जनवरी की शाम को अपनी दैनिक प्रार्थना सभा में, गांधीजी की नाथूराम गोडसे नाम के एक युवक ने गोली मारकर हत्या कर दी। गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी क्योंकि वह गांधीजी के इस विश्वास से असहमत था कि हिंदुओं और मुसलमानों को सद्भाव से रहना चाहिए।

महात्मा गांधी ने विश्व को जो योगदान दिया वह नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में जबरदस्त है: एक नई भावना और एक नई तकनीक "सत्याग्रह" विश्व को दिया। नैतिक रूप से महात्मा गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि सारी दुनिया एक है और व्यक्तियों, समूहों और राष्ट्रों की नैतिकता एक समान होनी चाहिए। उनका आग्रह था कि साधन और साध्य एक जैसे होने चाहिए। उन्होंने उसे मूर्त रूप नहीं दिया या मूर्त रूप देने की प्रक्रिया में नहीं थे। अपने सिद्धांतों के लिए कष्ट सहने और मरने की इच्छा। इनमें से सबसे महान उनका सत्याग्रह है। वह देश भर में कई स्वतंत्रता आंदोलनों के नेता थे, और उन्होंने हिंसा के बजाय शांति की वकालत की। हर साल 30 जनवरी को महात्मा गांधी की याद में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्य तिथि है, जिनकी 1948 में देश को ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के सिर्फ पांच महीने और 15 दिन बाद नाथूराम विनायक गोडसे ने हत्या कर दी थी। शांति और अहिंसा के महान समर्थक मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबंदर में हुआ था। 13 वर्ष की उम्र में उनका विवाह कस्तूरबा से हुआ। उन्हें लंदन के इनर टेम्पल में कानून का प्रशिक्षण दिया गया। वह एक मुकदमे में एक भारतीय व्यापारी का प्रतिनिधित्व करने के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गए। वहां वे 21 वर्ष तक रहे। दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान, उन्होंने पहली बार नागरिक अधिकारों के लिए एक अभियान में अहिंसक प्रतिरोध को अपनाया।

1914 में, वह भारत लौट आए और जल्द ही भेदभाव के विरोध में किसानों और शहरी मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ सत्याग्रह और अहिंसा आंदोलनों की शुरुआत की। उनके अहिंसक दृष्टिकोण और लोगों को प्यार और सहिष्णुता से जीतने की उनकी क्षमता का नागरिक अधिकार आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने न केवल अपना जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित किया बल्कि अस्पृश्यता और गरीबी के खिलाफ देशव्यापी अभियान का नेतृत्व भी किया। वह महिलाओं के अधिकारों के भी समर्थक थे।

30 जनवरी, 1948 को, जब वह अपनी पोतियों के साथ दिल्ली के बिड़ला भवन में एक शाम की प्रार्थना सभा लगभग 5:17 बजे को संबोधित करने जा रहे थे, नाथूराम गोडसे ने उनके सीने में तीन गोलियां दाग दीं। अभिलेखों के अनुसार उनकी तत्काल मृत्यु हो गई।

महात्मा गांधी दुनिया भर में शांति और अहिंसा का पालन करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी जयंती 2 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 2007 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने गांधी के सिद्धांतों का सम्मान करने के लिए इस दिन को नामित किया। इस दिन, अहिंसा के महत्व और दुनिया भर में शांति, सद्भाव और एकता को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका के बारे में जागरूकता बढ़ाई जाती है।

30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 76वीं पुण्य तिथि पर हम भावभीनी पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। गांधी भारत के महानतम नेता थे जिन्होंने जनता की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया। गांधी जी ने सभी के लिए अहिंसा, शांति, प्रगति और समृद्धि की वकालत की और समानता, न्याय और भाईचारे पर जोर दिया। #drkamleshmeenarajarwal

वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।।

पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे ।।

सकल लोक माँ सहुने वन्दे, निन्दा न करे केनी रे ।।

वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेरी रे ।।

वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।।

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे ।।

जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे ।।

मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ वैराग्य जेना तन मा रे ।।

राम नामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना तन मा रे ।।

वण लोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे ।।

भणे नर सैयों तेनु दरसन करता, कुळ एको तेर तार्या रे ।।

गुजरात के संत कवि नरसी मेहता की यह रचना, महात्मा गांधी को अतिप्रिय थी। महात्मा गांधी का सार्वजनिक जीवन नरसी मेहता से प्रभावित था, जिन्हें नरसिंह भगत के नाम से भी जाना जाता है, वे भारत के गुजरात के 15वीं शताब्दी के कवि-संत थे, जिन्हें गुजराती भाषा के पहले कवि या आदि कवि के रूप में सम्मानित किया गया था। नरसी मेहता नागर ब्राह्मण समुदाय के सदस्य हैं।नरशी मेहता ने दूसरों की चिंताओं, दुखों और पीड़ाओं पर एक भजन बनाया और नरशी मेहता की दूसरों के दर्द की भावनाओं ने महात्मा गांधी जी को उनके जीवन में प्रभावित और प्रेरित किया।

 

15वीं सदी के साहित्यकार नरसी मेहता द्वारा रचित भजन पर महात्मा गांधी जीवन भर इस भजन के सरोकारों पर चलते रहे। अपनी आत्मकथा में, महात्मा गांधी ने चार हस्तियों का नाम लिया है जिन्होंने उनके जीवन और दर्शन को प्रभावित किया: लियो टॉल्स्टॉय, जॉन रस्किन, हेनरी डेविड थोरो और राजचंद्र रावजीभाई मेहता। लेकिन महात्मा गांधी के जीवन में गुजरात के 15वीं शताब्दी के कवि-संत नरसी मेहता के भजन के दैनिक पाठ और जप के आधार पर नरसी मेहता का भजन.. 'वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।।' उनके जीवन के अंत तक गांधीजी का हिस्सा बना रहा। दूसरों की भावनाओं, दुखों और पीड़ाओं को समझने के लिए उन्होंने अपने जीवन में महात्मा गांधी जी को निश्चित रूप से प्रभावित किया।

महात्मा गांधी वह नेता थे जिन्होंने भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद की बेड़ियों से मुक्त कराया जो 200 से अधिक वर्षों से भारतीय लोगों पर थोपी गई थी। 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबंदर, भारत में जन्मे महात्मा गांधी का असली नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। बचपन से ही गांधीजी न तो कक्षा में प्रतिभाशाली थे और न ही खेल के मैदान में अच्छे थे। लेकिन वे दूसरों की चिंता से भरे थे और उनके जीवन के इसी गुण के कारण उन्हें राष्ट्रपिता बनाया गया। महात्मा गांधी भारत के एक अद्वितीय व्यक्तित्व थे जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया।

 

गांधी की मां पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं। उनकी दिनचर्या घर और मंदिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया। मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालांकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियां भी जीतीं। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही तेज नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में मां का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में - 'बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।'

गांधी जी ने आजादी के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। इसमें सत्याग्रह और खिलाफत आंदोलन, नमक सत्याग्रह, दांडी मार्च आदि शामिल हैं। गांधीजी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसा के सिद्धांत को अपनाया। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सद्भाव और एकता बढ़ाने का प्रयास किया। महात्मा गांधी धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक थे और सभी धर्मों को समान भाव से मानते थे। भारतीय स्वतंत्रता के बाद, गांधीजी ने भारतीय समाज के सामाजिक और आर्थिक सुधार के लिए काम किया और हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। उन्होंने सत्य, संयम और अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। गांधीजी ने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। उनके लिए सादा जीवन ही सुंदरता थी। गांधीजी का जीवन एक साधक के रूप में भी प्रसिद्ध है। वह सादगी, वैराग्य और आत्मा से जुड़ाव के महत्वपूर्ण मूल्यों को जीते थे।

सुभाष चंद्र बोस पहले व्यक्ति थे जिन्होंने महात्मा गांधी को "राष्ट्रपिता" कहा था। सुभाष चंद्र बोस ने गांधीजी को "राष्ट्रपिता" कहकर सम्मानित किया क्योंकि उनका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान था और वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता थे। तब से गांधीजी के सम्मान में "राष्ट्रपिता" का प्रयोग आम तौर पर किया जाने लगा। महात्मा गांधी कभी ना बुझने वाले लाइट हैं। उनके सिद्धांत, नैतिक शिक्षा और अनुभव हमें एक समावेशी आधारित लोकतंत्र, समाज, मानवता आधारित मानव और प्रबुद्ध युवाओं के निर्माण के लिए समृद्ध और प्रबुद्ध करेंगे।

विश्व पटल पर महात्मा गांधी सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि शांति और अहिंसा के प्रतीक हैं। महान व्यक्तित्व के धनी महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को नई दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। आज 30 जनवरी को राष्ट्र इस महान संत महा मानव को भावभीनी पुष्पांजलि अर्पित कर रहा है।

 

#drkamleshmeenarajarwal

 

सादर।

 

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

 

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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ट्विटर हैंडल अकाउंट: @Kamleshtonk_swm

गांधी हमारे ह्रदय में जीवित है, उनका अवसान कभी नहीं होगा - गांधी विचारक -दिलीप तायडे

गांधी  हमारे ह्रदय में जीवित है,

उनका अवसान कभी नहीं होगा

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          हिन्दुस्तान के ऐतिहासिक काल में जो घटना शायद कभी नहीं घटी वह 30 जनवरी 1948 को घटी l शान्ति के देवदूत और अहिंसा के पुजारी गांधी की हत्या कर दी गई l उनके देहावसान पर तब विनोबा ने कहा था हिन्दू धर्म में कहीं भी किसी सत्पुरुष की हत्या नहीं हुई और वह भी ठीक ऐसे समय ढूंढ कर जब वे अपनी नित्य की प्रार्थना करने निकले थे और प्रार्थना करने जा रहे थे। प्रार्थना की तैयारी मे थे तब उनके चित्त में भगवान के सिवा दूसरा विचार नहीं था। प्रार्थना की जगह पहुँचते ही उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। गांधी जी के अंतिम दिनों  मे अंतिम समय उनकी सेवा और सानिध्य में रही मनुबेन ने इस घटना का वृतान्त अपनी डायरी मे लिखा है उस दिन बापू को दस मिनिट देर हो गई थी... उसने मुझे इस तरह धक्का मारा की मेरे हाथ् से माला, पिकदानी और नोटबुक निचे गिर गयी,जब तक और चीज़ें गिरी  मै उस आदमी से जुझती रही लेकिन जब माला भी गिर गयी तो उसे उठाने के लिए निचे झुकी इस बीच दन--दन...के बाद एक तीन गोलिया दगी, अंधेरा छा गया  वातावरण धुमिल हो उठा और गगन भेदी आवाज हुई। हे-राम  हे रा... कहते हुए बापू मानो पैदल ही छाती खोलकर चले जा रहे थे  वे हाथ जोडे हुये थे और तत्काल वैसे ही जमीन पर गिर पडे । दूसरे दिन तत्कालिन हिन्दुस्तान स्टन्डर्ड अखबार का मुख्य प्रुष्ट खाली था और उसमे इतना लिखा था "गांधी अपने ही लोगों द्वारा मार दिये गये जिनकी मुक्ति के लिए वे जीये" हिंसा पाप है अधर्म है और हे! राम का उच्चारण करने वाले महात्मा की हत्या तो महापाप  ही नहीं रामतत्व की हत्या करने जैसा हैं। गांधी सत्य के उपासक थे,  ईश्वर मे उनकी अटुट श्रद्धा थी , जीवन भर वे सत्य के साधक और सत्य के आग्रही बने रहे, वे सत्य को ही ईश्वर मानते थे, सत्य को ही ईश्वर कहकर उन्होने ईश्वर तत्व को मानव सापेक्ष बना दिया था, साध्य के लिए साधन की पवित्रता में उनका विश्वास था , कथनी और करनी मे एक रुपता उनके जीवन की विशेषता थी, सत्य निष्ठ आचरण व अहिंसक सत्याग्रह से उन्होने देश को स्वाधिनता दिलाई और अपने नैतिक जीवन मूल्यों और अहिंसक जीवन पद्धती से उन्होने देश व दुनिया को  समग्र जीवन दर्शन भी दिया और इस रूप में गांधी एक विचार और दर्शन के रुप में हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्राण तत्व है। वे विश्व के महात्मा है, देश के राष्ट्रपिता है और हमारे विचारों में, हमारे ह्रदय में आज भी जीवित है। गांधी का अवसान कभी नहीं होगा और उनके जैसा प्रत्यावर्तन भी किसी को प्राप्त नहीं होगा। वे आज भी अपने दैहिक स्वरुप से अधिक विचार रुप में हमारे जीवन में गतिशील है और समुची मानव जाति के लिए पथप्रदर्शक बने हुये है  उनके निधन पर अत्यंत दुखी होकर रुन्धे गले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने कहा था "हमारे जीवन से वह प्रकाश चला गया, लेकिन शायद मै भुल कर रहा हूं वह प्रकाश कोइ साधारण प्रकाश नहीं था वह हजारों हजारों साल तक भी इस विश्व को प्रकाशित करता रहेगा क्योंकि वह जीते जागते सत्य की ज्योति थे l

गांधी विचारक -दिलीप तायडे

दुनिया को शोक में डुबो गए थे, बापू राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (पुण्य तिथि/ शहीद दिवस: 30 जनवरी )- डॉ.प्रकाश चंद जैन


 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ( पुण्य तिथि/ शहीद दिवस: 30 जनवरी )

( दुनिया को शोक में डुबो गए थे बापू) 

      “मैं अहिंसा की कसौटी पर तब खतरा उतरूंगा जब कोई व्यक्ति मुझे जान से मार रहा हो तब भी मेरे दिल में उसके प्रति क्रोध न हो और राम नाम मेरे मुँह से निकले |” यह बात गांधी ने अपनी मृत्यु से पहले कही थी और 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे की तीन गोलियों से गांधी की मृत्यु वैसे ही हुई, जैसी वे चाहते थे, आक्रमणकारी के प्रति कोई दुर्भावना न रखते हुएमुस्कुराते हुए हत्यारे का हाथ जोड़कर सामना करते हुए, 'हे राम' नाम का जप करते हुए | गांधी की मृत्यु की खबर से पूरे विश्व में शोक की लहर दौड़ गई थी | आधुनिक इतिहास में किसी भी व्यक्ति के लिए इतना गहरा और इतना व्यापक शोक आज तक नहीं मनाया गया जितना महात्मा गांधी का | शोक मनाने वालों में पूरे विश्व की प्रमुख हस्तियों के साथ सामान्य जन भी शामिल था | गांधी की मृत्यु पर भारत सरकार को विदेशों से 3441 संवेदना भरे श्रद्धांजलि सन्देश प्राप्त हुए थे | दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने अपनी बैठक की कार्रवाई रोक दी थी और अपना झंडा झुका दिया था | संयुक्त राष्ट्रसंघ स्थित इंग्लैण्ड के प्रतिनिधि फिलिप नोएल-बेकर ने गांधीजी का गरीब से गरीब, सबसे निचले वर्ग के लोगों तथा अत्यंत अभागे लोगों के मित्र के रूप में उल्लेख किया था | भारत के अंतिम गवर्नर जनरल माउंट बेटन ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा था : "दुनिया आपको ईसा मसीह और महात्मा बुद्ध के साथ स्मरण करेगी |" साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त पर्ल एस. बक ने गांधीजी की हत्या को 'ईसा की सूली' के समान बतलाया |  जिस ब्रिटिश शासन के खिलाफ गांधीजी ने संघर्ष किया उसके प्रधानमंत्री एटली ने कहा था : "इस विचित्र व्यक्तित्व की क्षति न केवल उनके अपने देश वरन पूरे संसार हेतु शोक का विषय है |" चीन के राजनेता एवं सैनिक नेता जनरल च्यांग-काई-शेक ने टेलीग्राम में लिखा था : "वह संत, जो अहिंसा का दूत था, हिंसा की बलि चढ़ गया |"  फ़्रांस के प्रख्यात समाजवादी लियो ब्लम ने लिखा  :"मैंने गांधी को कभी नहीं देखा | मैं उनकी भाषा नहीं जानता | मैंने उनके देश में कभी पाँव नहीं रखा; परन्तु फिर भी मुझे ऐसा शोक महसूस हो रहा है, मानो मैंने कोई अपना प्यारा खो दिया दिया हो | इस असाधारण मनुष्य की मृत्यु से सारा संसार शोक में डूब गया है |" जोसेफ मिटकेल, जॉर्ज पाड़मोर तथा रिचर्ड हार्ड हबशी नेताओं ने कहा : "स्वतंत्रता के खातिर लड़ रहे अफ्रीकन लोगों के लिए गांधीजी का जीवन-कार्य सदा ध्रुवतारक तथा प्रेरणा-रूप बना रहेगा |" अमेरिकन हबशी स्त्रियों का नेतृत्व करने वाली श्रीमती मेरी बेथुन ने कहा : "ऊष्मा प्रदान करने वाली महान ज्योति बुझ गई है | ... उनकी आत्मा आकाश के तारों को छूने की तथा बंदूकों, संगीनों या रक्तपात के बिना संसार को जीतने की उत्कट आकांक्षा रखती थी | हम धरती की माताएं जेट विमानों की गर्जना, अणुबम के विस्फोटों तथा जंतुयुद्ध की अज्ञात भयंकरताओं से काँप रही हैं, महात्मा का सूर्य जहां अपना सम्पूर्ण प्रकाश फैला रहा है उस पूर्व की तरफ हमें आशाभरी नजरों से देखना चाहिए |"  दि न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा : "गांधी अपने पीछे विरासत के रूप में अपनी आध्यात्मिक शक्ति छोड़ गए हैं, जो यथासमय आधुनिक शस्त्रास्त्रों पर तथा हिंसा के क्रूर सिद्धांत पर विजय प्राप्त करेगी | " 

     आकशवाणी पर पंडित नेहरू ने गांधीजी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा : "मित्रों ! हमारे जीवन की ज्योति चली गयी और सर्वत्र अंधकार ही अंधकार छ गया है | हमारे राष्ट्रपिता अब नहीं रहे | मैंने कहा कि प्रकाश चला गया है, लेकिन मेरा कहना गलत था, क्योंकि जो ज्योति इस देश में प्रकटी और जली, वह साधारण ज्योति नहीं थी | जिस ज्योति ने इतने वर्षों तक इस देश को प्रकाशित रखा है, वह अनेक वर्षों तक देश को प्रकाशित करती रहेगी |"

     गाँधीजी की मृत्यु से दस साल पहले गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था : "शायद वे सफल न हों; मनुष्य को उसकी दुष्टता से मुक्त कराने में शायद वे उसी तरह असफल रहें जैसे बुद्ध रहे, जैसे ईसा रहे | मगर उनको हमेशा ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जिसने अपना जीवन आगे आने वाले सभी युगों के लिए एक शिक्षा समान बना दिया है |"

      जहां विश्व के कोने-कोने से प्रख्यात जानी- मानी हस्तियों ने गांधी को श्रद्धांजलि दी वहीं न्यूयार्क में 12 साल की एक लड़की ने जब रेडियो पर गांधीजी पर गोली चलाई जाने का समाचार सुना तब उस लड़की, उसकी नौकरानी और माली ने सम्मिलित प्रार्थना की और आंसू बहाए | इस तरह सब देशों में करोड़ों लोगों ने गांधीजी की मृत्यु पर ऐसा शोक मनाया, जैसे उनकी व्यक्तिगत हानि हुई हो |

         गांधीजी की मृत्यु ऐसे समय हुई जब वे अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे | सरोजिनी नायडू ने बिल्कुल उचित ही कहा था, कि गांधी को राजाओं के शहर दिल्ली में ही मरना चाहिए | औरतों को गांधी के शव पर दहाड़ें मारते देखकर वे (सरोजिनी नायडू) कह रही थी, 'यह सब ढोंगबाजी आखिर किसलिए, क्या तुम लोग यह चाहते थे, कि वे बुढ़ापे अथवा अपच से मरें, उनके लिए ऐसी महान मृत्यु ही होनी चाहिए थी | सरोजिनी नायडू को उन लोगों से कोई सहानुभूति नहीं थी, जो यह  प्रार्थना कर रहे थे, कि गांधी की आत्मा को शान्ति मिले | उन्होंने कहा था : "मेरे पिता, कदापि शांत मत होना, हमें निरंतर शक्ति देते रहना ताकि हम अपने वादे पूरे कर सकें |"

    मानव इतिहास में कई महान पुरूष हुए जो अपना पूरा सामर्थ्य किसी विशेष लक्ष्य को अर्जित करने में लगा देते हैं किन्तु गांधी के लक्ष्य विविध थे | निजी लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार करना तो सार्वजनिक लक्ष्यों में भारत को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने के साथ भारतीय समाज का उत्थान करना था | राम का अनन्य भक्त, अछूतोद्धारक, खान-पान विशेषज्ञ, प्राकृतिक चिकित्सक, किसान व बुनकर, शौचालय साफ करने वाला साफ-सफाई का अभियंता, साम्प्रदायिक एकता का शांतिदूत, प्रखर वकील, स्वतंत्रता आंदोलन का कुशल नेतृत्वकर्ता, निर्भीक पत्रकार, कुशल चर्मकार, ये सब रूप उनके व्यक्तित्व में समाहित थे |

      गांधीजी ने 1933 में अपने मित्र को अपने जीवन के बारे में लिखा था: "मेरा जीवन एक अविभाज्य अंग है --मैं स्वयं को पूरी तरह अछूतोद्धार के लिए यह कहकर समर्पित नहीं कर सकता कि "हिन्दू-मुस्लिम एकता या स्वराज को नजरअंदाज कर दिया जाए | ये सारी बातें एक दूसरे से गुत्थी हुई है और एक दूसरे पर निर्भर है | आप मेरे जीवन में मुझे कभी एक बात पर जोर देते पाएंगे , जबकि दूसरे समय दूसरे मुद्दे पर | यह एक पियानों -वादक की तरह है, जो कभी एक तार को छूता है तो, कभी दूसरे को |

     गांधी अपने जीवन की जर्जर वृद्धावस्था में नोआखाली और बिहार के भयानक दंगाग्रस्त इलाके में, जहां मारकाट मची हुई थी, अकेले नंगे पाँव घूमते हुए स्वयं को शहादत हेतु प्रस्तुत कर रहे थे | जिस तरह हिंसा के प्रशिक्षण के दौरान व्यक्ति को हत्या करने की कला सीखना अनिवार्य है, उसी तरह अहिंसा के प्रशिक्षण में गांधीजी जीवन भर अपनी शहादत देने की कला सीखते रहे | 30 जनवरी, 1948 को गोडसे द्वारा गोली चलाये जाने के दस दिन पहले 20 जनवरी को गांधी की प्रार्थना सभा में उन्हें मारने के लिए मदनलाल पाहवा ने बम फेंका था | गांधीजी जानते थे कि उनके खिलाफ षड्यंत्र रचा जा रहा है, फिर भी सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया | प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा कि अगर कोई मुझे करीब से गोली मारे तो मैं मुस्कराकर कर ह्रदय में ईश्वर का नाम जपते रहना चाहता हूँ और 30 जनवरी को गोडसे ने गोली मारी, तो ऐसा ही हुआ | 30 जनवरी से पूर्व भी उन पर कई बार जानलेवा हमले हुए थे और जितनी बार ऐसा हुआ उनकी क्षमा, सहिष्णुता, सदाशयता और संवेदना गहरी होती गई और सत्य निकट आता गया | वे लक्ष्य के प्रति समर्पित रहे और उन्हीं लक्ष्यों के लिए अंततः उन्होंने अपनी शहादत दी ताकि मानव जीवित रहे और मानवता जीवित रहे | उनकी मौत भी अपने-आप में एक उपलब्धि इस मायने में थी कि उनकी मृत्यु ने वह किया, जिसके लिए वे जीवन के अंतिम क्षण तक प्रयत्नशील थे | उनकी शहादत से उनके देशवासियों का पागलपन दूर हुआ और उनकी इंसानी समझ लौट आई | उनकी मृत्यु का वैसा ही असर हुआ जैसा उनके उपवासों का होता था | गुस्से, डर और दुश्मनी से उन्मत भीड़ जहां थी वहीं ठिठक गई | अचानक कई तरह की अभिप्रेरणाएँ एक साथ काम करने लगी थी जिनमें दया और विवेक के साथ ही असीम दुःख और घोर पश्चाताप भी था | पुराने वैर-द्वेष और पुरानी शत्रुता एकबारगी भुला दी गई और परस्पर लड़ने वाली दो जातियां भाई-भाई के हत्याकांड को छोड़कर सर्व-सामान्य मानव-जाति को हुई अपार क्षति के शोक में डूब गई | सबका मिला-जुला असर यह हुआ कि देशव्यापी हत्याओं का सिलसिला थम गया | सम्भवतः यही भारतीयों की गांधी को दी गई सबसे बड़ी और पवित्र श्रद्धांजलि थी |

 

 

सोमवार, 29 जनवरी 2024

जेम्स ऑगस्टस हिक्की एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के समय भारत में सच्चाई और तथ्यात्मकता पर आधारित आधुनिक पत्रकारिता की नींव रखी और निष्पक्ष लेखन के लिए उन्होंने अपना नाम कमाया: डॉ कमलेश मीना।


 जेम्स ऑगस्टस हिक्की एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के समय भारत में सच्चाई और तथ्यात्मकता पर आधारित आधुनिक पत्रकारिता की नींव रखी और निष्पक्ष लेखन के लिए उन्होंने अपना नाम कमाया: डॉ कमलेश मीना।

 

सबसे पहले, मीडिया, यह सुनिश्चित करता है कि नागरिक अज्ञानता या गलत सूचना से कार्य करने के बजाय जिम्मेदार, सूचित विकल्प चुनें। दूसरा, सूचना यह सुनिश्चित करके जाँच कार्य करती है कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपने पद की शपथ को बरकरार रखते हैं और उन लोगों की इच्छाओं को पूरा करते हैं जिन्होंने उन्हें चुना है। तीसरा, मीडिया लोकतंत्र में निर्वाचित सरकारों के माध्यम से आम जनता के कल्याण के लिए सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से जन प्रतिनिधियों का दायित्व सुनिश्चित करता है। 

अपने समय के एक प्रसिद्ध भारतीय उर्दू शायर और हिंदी भाषा के कवि और साहित्यकार अकबर इलाहाबादी ने लोकतंत्र में एक समाचार पत्र के महत्व के बारे में कहा और उन्होंने लिखा कि "खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो" आज तक अखबार के बारे में उनकी यह कहावत आज भी प्रासंगिक और प्रभावी है। अख़बार जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में आम जनता की आवाज़ है और लोकतंत्र में सरकार तक आम जनता की आवाज, चिंताओं और शिकायतों तक पहुंचने का सच्चा माध्यम समाचार पत्र है। आज के दौर में भी पत्रकारिता वही है बस बदला है तो अर्थ और दुर्भाग्य से आज की पत्रकारिता विज्ञापनों और प्रचार-प्रसार के आधार पर कमाई और सरकारी राजस्व लेने का जरिया बन गई है।

 अकबर इलाहाबादी का यह वाक्यांश कहता है कि सरकार को नियंत्रित करने के लिए किसी भी प्रकार की शक्ति, हिंसा और हथियारों की आवश्यकता नहीं है।लोकतंत्र में जनता और सरकारों की आवाज के आदान-प्रदान पर उचित नियंत्रण और सही स्थान का कार्य केवल समाचार पत्र ही कर सकता है। खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो। अकबर इलाहाबादी का ये शेर अकबर इलाहाबादी ने तब लिखा था जब अंग्रेजी हकूमत में क्रूरता अपने चरम पर थी अकबर इलाहाबादी ने अख़बार को उस वक्त एक बड़ी ताकत के रूप में देखा था। ठीक वैसे ही जैसे नेपोलियन ने कहा था कि चार विरोधी अखबारों की मारक क्षमता के आगे हज़ारो बंदूकों की ताकत बेकार है।

 29 जनवरी, सन 1780 में भारत में पहला समाचार पत्र प्रकाशित हुआ। बंगाल गजट नाम से चर्चित इस पत्र का संपादन जेम्स अगस्तस हिक्की ने किया था। 244 वर्षों की पत्रकारिता के इस इतिहास में भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में आज व्यापक परिवर्तन और बदलाव हुए हैं। आज भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में हिक्की के समय से लेकर आज तक बहुत बड़े परिवर्तन हो रहे हैं और हुए भी हैं। समय और आवश्यकता के अनुसार भविष्य में भी होंगे।

भारत में प्रकाशित पहला अंग्रेजी अखबार बंगाल गजट था। बंगाल गजट के लेखक और संस्थापक जेम्स ऑगस्टस हिक्की थे। इस समाचार पत्र की पहली प्रति 29 जनवरी 1780 को प्रकाशित हुई और इसका नाम हिक्कीज़ बंगाल गजट रखा गया। 29 जनवरी 1780 को भारत और एशिया का पहला मुद्रित समाचार पत्र हिक्कीज़ बंगाल गजट ने अपना प्रकाशन शुरू किया। यह एक आयरिश व्यक्ति द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक अंग्रेजी समाचार पत्र था। हिक्की के बंगाल गजट को मूल कलकत्ता जनरल विज्ञापनदाता के रूप में भी जाना जाता था। यह एक अंग्रेजी भाषा का साप्ताहिक था जिसे एक सनकी आयरिशमैन जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने शुरू किया था। यह अखबार उस समय औपनिवेशिक भारत के केंद्र की राजधानी कलकत्ता में प्रकाशित होता था। हिक्की ने अखबार के लेखक, संपादक और प्रकाशक के रूप में काम किया। यह पेपर मोटे तौर पर एक टैब्लॉइड के प्रारूप में था और हिक्की ने इसका उपयोग ईस्ट इंडिया कंपनी के विभिन्न अधिकारियों पर मज़ाक उड़ाने के लिए किया था, जिनके साथ उनके व्यक्तिगत मतभेद थे। प्रारंभ में, अखबार ने मुद्दों पर तटस्थ रुख अपनाया। लेकिन बाद में उन्होंने अपना रुख बदल लिया और कंपनी और उसके अधिकारियों का उपहास करना शुरू कर दिया। वास्तविक जीवन के व्यक्तित्वों के बारे में बात करने के लिए वह अक्सर आक्षेपों और मनगढ़ंत नामों का इस्तेमाल करते थे। उनके पेपर को कलकत्ता में औपनिवेशिक अंग्रेजों अधिकारियों द्वारा बहुत पढ़ा जाता था और वे उनके लेखन को पसंद नहीं करते थे। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी पर भ्रष्टाचार और अक्षमता का आरोप लगाया। उन्होंने गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स पर भी निशाना साधा और उन पर कुप्रशासन का आरोप लगाया। उन्होंने हेस्टिंग की पत्नी पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। उन पर तुरंत मानहानि का मुकदमा किया गया और जेल की सज़ा सुनाई गई। हिक्की ने जेल से अपना पेपर प्रकाशित करना जारी रखा और उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से हेस्टिंग्स एंड कंपनी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। उन पर नये मुकदमे दायर किये गये। फिर, एक अन्य प्रतिद्वंद्वी अखबार, इंडिया गजट, जिसे हेस्टिंग्स द्वारा वित्त पोषित किया गया था।

बंगाल गजट प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सका और जल्द ही उसे कारोबार से बाहर कर दिया गया। 23 मार्च 1782 को इसका प्रकाशन बंद हो गया। हालांकि अल्पकालिक, हिक्की के बंगाल गजट ने बाद में शिक्षित भारतीय सुधारकों को अधिक गंभीर उपनिवेशवाद विरोधी और राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ अपने स्वयं के समाचार पत्र शुरू करने के लिए प्रेरणा प्रदान की। 18वीं शताब्दी में कई अन्य समाचार पत्र प्रकाशित हुए जैसे कलकत्ता गजट, बंगाल जर्नल, ओरिएंटल मैगजीन ऑफ कलकत्ता, बॉम्बे हेराल्ड आदि। 1822 में शुरू हुआ बॉम्बे समाचार एशिया का सबसे पुराना अखबार है जो आज भी छपता है। यह गुजराती भाषा में है। बॉम्बे टाइम्स की शुरुआत 1838 में हुई थी और यह आज भी टाइम्स ऑफ इंडिया के रूप में चल रहा है। आज भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अखबार बाजार है। देश में अंग्रेजी और विभिन्न अन्य भाषाओं में एक लाख से अधिक प्रकाशन हैं। समाचार पत्रों ने स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता के बाद देश की प्रगति में सूचना और ज्ञान फैलाने के साथ-साथ विभिन्न मुद्दों पर जनता की राय को जीवित रखने में अपने तरीके से योगदान दिया है। अत्यधिक सनकी आयरिशमैन जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा स्थापित, अखबार गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के प्रशासन का एक मजबूत आलोचक था। यह अखबार अपनी उत्तेजक पत्रकारिता और भारत में स्वतंत्र अभिव्यक्ति की लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण था। 

हिक्की का बंगाल गजट अपनी व्यंग्यात्मक और उत्तेजक लेखन शैली के लिए जाना जाता था। अपने समय के कई अखबारों के विपरीत, अखबार ने वर्जित विषयों और प्रोटो-क्लास चेतना पर चर्चा की, गरीबों के अधिकारों और प्रतिनिधित्व के साथ कराधान के अधिकार के लिए बहस की। यह दृढ़ता से युद्ध-विरोधी और उपनिवेशवाद-विरोधी था और अपने विस्तारवादी और साम्राज्यवादी उद्देश्यों के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व का नियमित रूप से उपहास और आलोचना करता था। हिक्की का बंगाल गजट पहला अंग्रेजी भाषा का समाचार पत्र और भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया दोनों में प्रकाशित होने वाला पहला मुद्रित समाचार पत्र था। यह अखबार न केवल उस समय भारत में तैनात ब्रिटिश सैनिकों के बीच प्रसिद्ध हुआ बल्कि भारतीयों को भी अपना खुद का अखबार लिखने के लिए प्रेरित किया।

आयरिशमैन जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने भारत का पहला मुद्रित समाचार पत्र प्रकाशित किया। 29 जनवरी, 1780 को हिक्की अखबार की स्थापना हुई, जिसे बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर के नाम से भी जाना जाता है। यह ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता में प्रकाशित एक साप्ताहिक अंग्रेजी भाषा का समाचार पत्र था। जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा 1780 के प्रकाशन में बंगाल गजट को "एक साप्ताहिक राजनीतिक और वाणिज्यिक पत्र, सभी पार्टियों के लिए खुला लेकिन किसी से प्रभावित नहीं" के रूप में वर्णित किया गया था। अखबार में विज्ञापन और राजनीतिक, सामाजिक और व्यावसायिक समाचार प्रकाशित होते थे। अखबार में न केवल राजनीति, अंतरराष्ट्रीय समाचार और राय पत्रों से संबंधित आइटम शामिल थे, बल्कि यह एक विज्ञापनदाता भी था, जो शहर के होर्डिंग की तुलना में दूर तक विज्ञापन ले जा सकता था। अखबार सिर्फ 2 साल तक चला, छपे राजनीतिक अंशों से ब्रिटिश सरकार खुश नहीं थी। राज की तीखी आलोचना के कारण 1782 में यह अखबार जब्त कर लिया गया। इसके तुरंत बाद हिक्की को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

आज के युग में पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हो गया है। आज पत्रकारिता व्यापक होने के साथ-साथ बदलने भी लगी है। ब्रिटिश सरकार से लोहा लेने वाली पत्रकारिता आजकल लगभग गायब होती जा रही है और मिशनरी पत्रकारिता लगभग लुप्त हो चुकी है। आज के युग में अखबार मिशनरी लगभग गायब हो चुके हैं। अधिकांश अखबार सरकारों और सत्ताधारी राजनीतिक दलों के प्रवक्ता के रूप में एकतरफा पत्रकारिता कर रहे हैं।

 हालाँकि, पत्रकारिता हमेशा से लोगों तक सूचनात्मक, शिक्षाप्रद और मनोरंजक संदेश पहुंचाने का माध्यम रही है। अगर आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि समाचार पत्र और वेब पोर्टल उत्तर पुस्तिकाओं की तरह हैं, जिनके लाखों परीक्षक, दर्शक, पाठक, आलोचक और अनगिनत समीक्षक हैं। अन्य मीडिया के परीक्षक, आलोचक, पाठक एवं समीक्षक भी इनके लक्ष्य समूह हैं, जिनमें तथ्यात्मकता, यथार्थवाद, संतुलन एवं वस्तुनिष्ठता आधारित पत्रकारिता इसके मूल तत्व हैं। आज के समय में आलोचकों, सच्चे विश्लेषकों का अभाव और उनकी कमियाँ आज पत्रकारिता के क्षेत्र में एक बड़ी त्रासदी साबित हो रही हैं।

 मीडिया और पत्रकारिता का कर्तव्य निर्वाचित सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं की वकालत करना भी है ताकि उन योजनाओं का लाभ आम लोगों को आसान तरीके से दिया जा सके। यह तथ्य है कि कई कल्याणकारी योजनाएं दूरदराज के क्षेत्रों में लक्षित समूहों तक नहीं पहुंच पाती हैं और इस समय मीडिया की यह प्रमुख जिम्मेदारी है कि वे अपने लेखों, समाचार पत्रों और विचारों के माध्यम से सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का अधिकतम प्रचार करें ताकि आम जनता लाभ के माध्यम से सशक्त हो सके।

 हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता लोकतंत्र की आधारशिला है और लोकतांत्रिक मूल्यों की कल्याणकारी अवधारणा दूरदर्शी और ईमानदार पत्रकारिता पर निर्भर करती है जो हमेशा चुनी हुई सरकार और उसके चुने हुए जन प्रतिनिधियों को निर्वाचित जनादेश, उनकी राय, विचार के आधार पर मार्गदर्शन देने की भूमिका निभाती है। चाहे कोई पत्रकार पत्रकारिता में प्रशिक्षित हो या नहीं, सभी जानते हैं कि पत्रकारिता सदैव सत्य पर आधारित होती है और इससे परे कुछ भी नहीं। पत्रकारिता में तथ्यात्मकता होनी चाहिए, लेकिन आजकल पत्रकारिता में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर, बढ़ा-चढ़ाकर या छोटा करके सनसनी पैदा करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। आज की पत्रकारिता केवल अफवाहें, पक्षपातपूर्ण खबरें और किसी की वकालत करना मात्र रह गई है। आजकल असंतुलन भी देखा जा सकता है। इस प्रकार समाचारों में निहित स्वार्थ स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। आज खबरों में हमारे निजी विचार शामिल किये जा रहे हैं। समाचारों का संपादकीयकरण शुरू हो गया है, केवल पक्षपातपूर्ण विचारों पर आधारित समाचारों की संख्या बढ़ने लगी है। इससे पत्रकारिता में एक अस्वास्थ्यकर प्रवृत्ति विकसित होने लगी है। समाचार विचारों की जननी है, इसलिए समाचार पर आधारित विचारों का स्वागत किया जा सकता है, लेकिन विचारों पर आधारित समाचार अभिशाप के समान है। आजादी से पहले पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी। आजादी के बाद यह उत्पादन बन गया, जिससे कमाई के रास्ते ढूंढने की कोशिशें तेजी से होने लगीं। हम उन दिनों को याद करते हैं जब हमने अपने देश के पिछले इतिहास को सुना और पढ़ा था और उस समय पत्रकारों और पत्रकारिता एक मिशनरी जिम्मेदारी थी और ब्रिटिश शासन के समय में देश के लिए काम करना पत्रकारों का प्राथमिक कर्तव्य था। भारत में आपातकाल के दौरान, जब सरकार ने प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी, तो पत्रकारिता एक बार फिर भ्रष्टाचार को खत्म करने का मिशन बन गई, लेकिन कई सच्चे पत्रकारों, लेखकों, कवियों और रचनाकारों ने कलम और कागज के माध्यम से अद्भुत रचनाएँ कीं। इसने एक क्रांति ला दी, पत्रकारिता के माध्यम से इन्हीं सच्चे पत्रकारों ने कई तरह के भ्रष्टाचार को भी उजागर किया। सरकार को उखाड़ फेंका, कई बार सरकार खुद बैकफुट पर नजर आई, जब पत्रकारिता का डर सताने लगा, तभी मीडिया पर सेंसर लगा दिया गया आपातकाल की स्थिति में मीडिया पर सेंसर लगाया गया। आज भी कई पत्रकार अपने जुनून के साथ पत्रकारिता करते नजर आते हैं। कोरोना काल में जब लोग एक-दूसरे से मिलने में झिझक रहे थे, हर किसी की आंखों में कोरोना वायरस का डर साफ नजर आ रहा था, लेकिन अघोषित कोरोना योद्धा यानी पत्रकार तब भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। कभी अस्पताल से, कभी सड़क से, कभी कहीं गली से। इसलिए वह कहीं न कहीं से सच सामने लाते रहे। कोरोना काल में ही न जाने कितने पत्रकारों की जान चली गयी। मेरे कई निजी और करीबी मीडिया मित्रों ने कोविड-19 के दौरान अपनी जान गंवाई। सत्य हमेशा सत्य ही रहता है और किसी को भी इसे याद रखने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सत्य हमेशा हमारे दिमाग की विचारशीलता का हिस्सा बना रहता है। पत्रकारिता और मीडिया को सत्य, विश्वसनीयता और देश के नागरिकों, संविधान और लोकतंत्र के प्रति निष्ठा पर आधारित होने की आवश्यकता है। यह मेरा विश्वास है कि बाकी चीजें सही क्रम में होंगी और पूरी प्रशासनिक जवाबदेही के साथ जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के प्रति काम करेंगे। हम पूरे विश्वास के साथ आशा करते हैं कि मिशनरी, दूरदर्शी और संविधान आधारित पत्रकारिता और मीडिया की सच्ची भावना मेरे विचारों का हिस्सा बनी रहेगी। ऐसे कई कोरोना संक्रमित पत्रकार थे जिनकी कलम नहीं रुकी और उन्होंने देश और इसके नागरिकों की सेवा को अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी और कर्तव्य मानते हुए अलगाव में रहते हुए भी पत्रकारिता की। खैर ये तो पत्रकारों के जुनून की बात है। अगर पत्रकारों की आजादी और मीडिया की आजादी की बात करें तो आज इस आजादी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। सोशल मीडिया पर पत्रकारों और पत्रकारिता को लेकर तमाम तरह की बातें की जाती हैं। सरकार प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने की कोशिश कर रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लगातार पत्रकारों की हत्या, मीडिया चैनलों के प्रसारण पर लगाए जा रहे प्रतिबंध, शासन प्रशासन के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले पत्रकारों का जीना दूभर करना, उन पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाना, ऐसी घटनाओं ने प्रेस की स्वतंत्रता को खतरे में डाल दिया है। एडविन वर्क ने मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा था। वहीं, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ए) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा है, यानी प्रेस की स्वतंत्रता मौलिक अधिकार के अंतर्गत आती है, लेकिन इसके बावजूद पत्रकारिता का गला घोंट दिया गया है। हालांकि यह तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कहा जा सकता है कि आधुनिक समय में मीडिया पर प्रलोभन और पैसा कमाने की चाहत हावी हो गई है, समाचार और बहस के नाम पर फर्जी खबरों का चलन इस बात की पुष्टि करता है। खबरों और बहस के नाम पर फर्जी खबरों का चलन इस बात को पुष्ट करता है इसलिए मीडिया की आजादी का मतलब आजादी कतई नहीं है, खबरों के माध्यम से कुछ भी परोस कर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा में ले जाना कतई स्वीकार्य नहीं है। न ही इसे लोकतंत्र में कभी स्वीकार किया जा सकता है और हमें याद रखना चाहिए कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र के मूल्य और मुख्य नैतिकता है।

 पत्रकारिता का मतलब है आम जनता के वास्तविक मुद्दों को उठाना, सभी समाजों के लोगों की आवाज बनना और उनके अधिकारों के लिए सरकार के खिलाफ लड़ना, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना, सरकार की गलत नीतियों को जनता के सामने लाना और जनता को सच बताना है। हकीकत में देखा जाए तो पत्रकारिता एक ऐसी ताकत है जो किसी भी सरकार को हिला सकती है। लेकिन अगर यह पत्रकारिता जिम्मेदारी से नहीं की गई तो यह जनता, सभी विभागों, समाजों और सरकार के लिए हानिकारक साबित हो सकती है।

 आजकल सोशल मीडिया पर सक्रिय हर व्यक्ति खुद को पत्रकार समझने लगा है लेकिन वास्तव में वह राष्ट्र के प्रति एक पत्रकार की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं है जिससे वास्तविक पत्रकारों की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और यह लोकतंत्र के लिए भी घातक है। आज के समय में नैतिकता, निष्पक्षता और वॉच डॉग का महत्व सेमिनारों, बैठकों और मीडिया पर होने वाले वर्चुअल कार्यक्रमों में होने वाली उन चर्चाओं तक ही सीमित रह गया है जिनमें पत्रकारों की प्रशंसा की जाती है और पत्रकारिता की उत्पत्ति, सबसे पहले कौन सा अखबार प्रकाशित हुआ वगैरह पर लंबी चर्चाएं होती हैं। कौन सी पत्रिका पहली थी ये इन्हीं बातों तक सीमित है, यानी इतिहास है और इतिहास नहीं बदलता, ऐसी चर्चा होती तो बेहतर होता अगर भारत में पत्रकारिता के इतिहास के दिन पत्रकारिता पर पत्रकारिता के आयाम तय होते, एकजुटता पर बात होती और किसी भी सरकार की तानाशाही के खिलाफ एकमत रहे हैं पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट पर चर्चा की जरूरत है कि एक पत्रकार जनहित में क्या लिख ​​सकता है, गरीबों का हक कैसे दिलाया जा सकता है, आज हमारे देश को जाति, क्षेत्र, धर्म, पंथ, भाषा और रंग के आधार पर कई गुटों में विभाजित होने से कैसे रोका जाए?, क्या कलम के सिपाही देश को बचा सकते हैं, इस पर चर्चा होनी चाहिए लेकिन हर साल पत्रकारिता के इतिहास दिवस मनाया जाता है लेकिन सिर्फ सेमिनार, मीटिंग, बैठक आदि का आयोजन किया जाता है और दो-चार भाषण देने के बाद चाय पीकर सब अपनी झूठी पत्रकारिता करने निकल जाते हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम न तो अपने व्यावहारिक जीवन में और न ही जमीनी स्तर की पत्रकारिता में नैतिकता और मूल्य आधारित पत्रकारिता के नियमों का पालन करते हैं। इसलिए आज मीडिया की दिशा और दशा पर गंभीरता से चिंतन की जरूरत है। अपने विचारों के अंत में मैं यही कहूंगा कि आज हमारी पत्रकारिता अपने सबसे अविश्वसनीयता के दौर से गुजर रही है। हमारे पत्रकारों, पत्रकारिता पर विश्वास, विश्वसनीयता, सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का संकट मंडरा रहा है। समय, भरोसा और इज्जत ऐसे पंछी हैं जो अगर उड़ जाएं तो वापस नहीं आते। पत्रकारिता और मीडिया लोकतंत्र के इन सिद्धांतों की तरह है जहां समय, विश्वास और सम्मान हमेशा रहना चाहिए अन्यथा न तो पत्रकारिता का कोई मतलब रह जाएगा और न ही पत्रकारों पर कोई विश्वास करेगा।

 सौभाग्य से मैं पिछले लगभग 21 वर्षों से पत्रकारिता और मीडिया का हिस्सा हूं और मैंने हमेशा अपने विचार, राय, सोच और विचारों को संतुलित, सच्चाई पर आधारित रखने की कोशिश की है और मैंने कभी भी अपनी सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और वफादारी के साथ समझौता नहीं किया है। न ही मैंने अपने अब तक के पत्रकारिता योगदान के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई गलत कार्य किया है। यह मिशनरी पत्रकारिता में मेरा योगदान है और मैंने इसे लोकतंत्र की मजबूती के लिए जवाबदेह और कर्तव्यनिष्ठा से किया।

 मैंने हमेशा विभिन्न संस्थानों, मंचों और माध्यमों से अपने विचार साझा किए लेकिन मेरे दिल और दिमाग में सच्चाई, तथ्य, निष्पक्षता, संवैधानिक मूल्य और नैतिक सिद्धांत दृढ़ता से मेरे विचारों, चर्चाओं और विचार-विमर्श में बने रहे। मुझे पूरे विश्वास के साथ उम्मीद है कि मिशनरी पत्रकारिता और मीडिया की सच्ची भावना मेरे विचारों का हिस्सा बनी रहेगी।

 


सादर।

 

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

 एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...