गुरुवार, 13 जून 2024

कविताएं- डॉ.पूनम तुषामड़ सामाजिक चिंतक, लेखक, कवयित्री

 

खुशफहम

 

वो खुश फहम है बड़ा ,

खुद पे बहुत इतराता है।

कभी खुद को खुदा

कभी फकीर बताता है।

बहरूपिया है ,ना जाने

कितने स्वांग रचाता है,

झूठ का पुलिंदा,सच की

कसमें खाता है।

जनता को बहकाने के

नए नए हथकंडे अपनाता है।

जब कुछ नही चलता तो

बौखला जाता है।

सब को डराने वाला खुद

हारने के भय से

जाकर किसी पहाड़ की

गुफा में छुप जाता है।

 

हम मुजरा करने वालियां

जी हुजूर, "मुजरा" यही तो

करती हैं हम तवायफें

तुम्हारा दिल बहलाने को।

तवायफ ,रण्डी, वैश्या या

पश्यन्ती

खंडशीला,रुपजिवा,कंजरी

या कंचनी

इतिहास से वर्तमान तक

तुम्हारे  दिए नाम और पेशे

से मिले अपमान को सदी दर

सदी ढोती स्त्रियां।

तुम्हारे सामने सज संवर कर

हंसती मुस्कुराती, गुनगुनाती

अपनी अदाओं और नाच -गा कर

तुम्हारा दिल बहलाती

 

हम मुजरे वालियां

मुस्कुराकर झुककर '

तुम्हारा इस्तकबाल करती

झुक झुक कर सलाम ' करती

तुम्हे इज्जत बख्शती हैं

यही होता है, ' मुजरा '

पर लगता है ,साहेब को

इज्जत रास नहीं आती।

 

साहेब क्यों भूल जाते हो

हर बार

आखिर तुम्हारे जैसे रईसों

राजे रजवाड़ों और धन्ना सेठों ,

वैश्यों ने ही धकेला हमे इस धंधे में

और सिखाया देह - व्यापार।

 

वरना.. हम भी थी किसी की

बहन ,बेटी ,पत्नी इज्जतदार

पर तुमने खरीद कर हमारी

मजबूरी ,बेबसी और लाचारी

लगा दी हमारी बोली और

बसा दिए अपने शहरों में

शाही कोठे,खोल दिए वैशालय ,

मंडी और बाजार ।

 

हमारी कला को बनाकर कलंक

और कर्म को दुष्कर्म

तुम ही करते रहे  हमे बदनाम

करते आए संभोग,शोषण और

व्यभिचार।

 

घर में बीवी को परदे में रखकर

हमें बेपर्दा करते रहे

हमारी इज्जत हमारी अस्मत

नीलाम कर चौराहों पर

खुद इज्जतदार होने का

दम भरते रहे।

 

क्यो भूल जाते हो साहेब

ये बदनाम  कहलाने वाली वेश्याएं

सदियों तुम्हारे न जाने कितने

कुकर्मों को छिपाती हैं ।

तुम्हारी नाजायज कही जाने वाली

संतानों को जायज ठहराती हैं ।

 

लेकिन मत भूलना कि

आसान नहीं होता

अपने अस्तित्व अपने वजूद

को मिटा कर ,दूसरो को खुश करना

अपने हुनर अपनी कला का सौदा कर

खून के घूंट भरना।

 

सदियों से वैश्या के आंगन की

मिट्टी को पवित्र मान  उससे

देवी शक्ति की मूर्ति बनवाते हो

और चकलों,चौराहों पर आते ही

उसे  पैरों की धूल बताते हो।

 

 

कभी गणिका, देवदासी ,

राज नर्तकी तो कभी वैश्या बनाकर

तुम साहेब जादे, अपनी साख पर

इतराते हो, ' मुजरा ' शब्द का

उपहास  उड़ाते हो।

 

अरे हुजूर शुक्र करो , हम वेश्याओं ने

तो मजबूरी में अपनी देह बेची

गरीबी में अपना हुनर बेचा

मुल्क की खातिर कुर्बान हो गई

पर मुल्क नही बेचा।

 

 

चूड़ियां

मुझे बचपन से ही चूड़ियां

बहुत भाती हैं ।

रंग बिरंगी ,लाल,गुलाबी ,हरी

नीली,पीली नारंगी,सतरंगी

चूड़ियां मुझे अक्सर बहुत

लुभाती हैं ।

 

चूड़ियों सजे हाथ मुझे

बेड़ियां नही नही लगते

अगर

मैं उन्हें शौक से पहनू

नही लगते वे मुझे स्त्रियों

की किसी कमजोरी का आधार।

बल्कि देखते ही रंग बिरंगी कांच

की ,सिल्वर ,मेटल और लॉक

की चूड़ियां ।

अचानक ही  उमड़ पड़ता है

माता पिता का वात्सल्य,

याद आ जाती है

बचपन में पढ़ी नागार्जुन की

कविता गुलाबी चूड़ियां हर बार।

 

अच्छे लगते हैं वे पुरुष जो

चूड़ियों को स्त्री की कमजोरी

नही बताते।

चूड़ियों को मर्दानगी से जोड़

घटिया मुहावरों की ईजाद पर

नही इतराते।

घर और समाज में

किसी का उपहास नही उड़ाते।

 

कभी कभी  तो प्रेम की

निशानी होती हैं चूड़ियां

किसी के खामोश स्नेह की

मासूम कहानी होती हैं चूड़ियां।


बुधवार, 12 जून 2024

विश्वगुरु के रूप में भारत के बढ़ते कदम — डॉ0 रवीन्द्र कुमार

 

विश्वगुरु के रूप में भारत के बढ़ते कदम

 हजारों वर्षों के अपने ज्ञात इतिहास में भारत ने विश्व में एक प्रतिष्ठित राष्ट्र का स्तर बनाए रखा है। भारतीय सभ्यता पृथ्वी ग्रह पर सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता के उपलब्ध चिह्न प्राचीनकाल में भारतीयों के मूल चरित्र को दर्शाते हैं। वृहद् स्तर पर सहयोग, समन्वय और सौहार्द के माध्यम से लोगों का विकासोन्मुख दृष्टिकोण, प्रकृति के साथ सद्भाव, और सर्वोच्च मानवीय मूल्य अहिंसा (जिसे भारतीय दर्शन में परम धर्म के रूप में घोषित किया गया है –"अहिंसा परमो धर्मः") हेतु प्रतिबद्धता इस सभ्यता की निरन्तर पहचान रही है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों के लिए विभिन्न स्थलों पर की गई खुदाइयाँ भारत के उस समय के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और उनमें लोगों की भागीदारी को स्पष्ट करती हैं।

प्राचीनकाल से ही भारत विविधताओं का देश रहा है। विभिन्नताएँ –विभिन्नताओं में एकता और एकता में विभिन्नताएँ ही भारतीय समाज और संस्कृति की पहचान हैं। भारतीय समाज स्वभाव से उदार एवं सहिष्णु है। सहनशीलता भारतीय समाज की आधारशिला है। यही बात भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में है, जिसका इतिहास भी अतिप्राचीन है। भारतीय इतिहास देश की संस्कृति की मूल विशिष्टता के रूप में अहिंसा और, साथ ही, स्वीकार्यता, अनुकूलनशीलता, सद्भाव और सहिष्णुता जैसी विशिष्टताओं को भी दर्शाता है।

मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहे यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक 'दि इण्डिका' में उस काल के भारतीय समाज, राजनीतिक व्यवस्था और संस्कृति के सम्बन्ध में  लिखा है। इसमें उन्होंने लोगों की जीवनशैली में सहिष्णुता, परस्पर सौहार्द, सामंजस्य रचनात्मकता तथा उनके सांस्कृतिक गुणों का वर्णन किया है। दो प्रसिद्ध चीनी यात्रियों, फाह्यान और ह्वेनसांग ने क्रमशः गुप्त साम्राज्य और वर्धन राजवंश के समय भारत भ्रमण किया। उन्होंने भी उस समय के भारतीय समाज, संस्कृति और लोगों की जीवनशैली के सम्बन्ध में लिखा। साथ ही, उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति की मूल विशेषताओं के सम्पूर्ण एशिया के लोगों पर प्रभाव पर चर्चा की है। उनके वर्णन से प्राचीनकाल में आध्यात्मिक विश्वगुरु के रूप में भारत की स्थिति की वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है।

अबू रेहान मुहम्मद अल-बेरुनी (जीवनकाल: 973-1048 ईसवीं), एक फारसी विद्वान, विचारक और इंडोलॉजिस्ट, अपने प्रसिद्ध कार्य तारीख-उल-हिन्द (किताब उल हिन्द –भारत का इतिहास) में भारतीय समाज, संस्कृति और जीवन शैली, विशेषकर भारत की भव्यता के बारे में विस्तार से लिखते हैं। साथ ही, धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में देश की स्थिति, कला, संस्कृति, शिक्षा और विज्ञान में प्रगति का उल्लेख करते हुए विश्व-ज्ञानगुरु के रूप में भारत के पक्ष की सुदृढ़ता को सामने लाते हैं। 

इन सभी और अनेक अन्य विद्वानों-बुद्धिजीवियों के योग्य विवरणों से, जिनमें सिकन्दर के इतिहासकार एरियन (जीवनकाल 86-160 ईसवीं) भी सम्मिलित हैं (जिन्होंने ‘इण्डिका’ शीर्षक से ही पुस्तक भी लिखी), सम्पूर्ण पूरबी जगत में भारत की उत्कृष्ट स्थिति के सम्बन्ध में समान भावनाएँ प्रतिध्वनित होती हैं। विशेष रूप से, भारत के सम्पूर्ण एशिया पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव तथा, साथ ही, सारे संसार के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उत्थान में इसकी भूमिका का उक्त विद्वानों द्वारा उल्लेख किया है।

शैक्षिक, बौद्धिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों के साथ ही विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत को प्रतिष्ठित स्थान प्रदान करने में वैदिक ऋषियों का योगदान सर्वोपरि रहा है। इस सम्बन्ध में व्यास के नाम के साथ ही, जिन्होंने वेदों का संकलन किया और जो महाभारत के लेखक तथा कई पुराणों से सम्बद्ध भी हैं, मार्कण्डेय पुराण के रचनाकार महामुनि मार्कण्डेय, चिकित्साशास्त्र के जनक और चरकसंहिता के रचनाकार, आयुर्वेद-विश्वकोश (मानव काया-रचना विज्ञान, भ्रूणविज्ञान, औषध विज्ञान, रक्त-संचार और मधुमेह, यक्ष्मा, हृदय रोग आदि जैसी रुग्णताओं के सम्बन्ध में उल्लेखनीय ग्रन्थ) प्रदान करने वाले चरक, भारतीय दर्शन की छह प्रमुख विचारधाराओं में से एक वैशेषिक दर्शन के संस्थापक तथा परमाणु सिद्धान्त के जनक महर्षि कणाद भी उल्लेख के योग्य हैं। यह एक लम्बी शृंखला है, जिसमें अनेक अन्य लोगों के साथ-साथ योग विज्ञान के जनक महर्षि पतञ्जलि का नाम भी सम्मिलित है। योगविज्ञान विश्व को भारत का एक अमूल्यवान तथा अतिविशिष्ट उपहार है। एक उत्कृष्ट खगोलशास्त्री और गणितज्ञ आर्यभट्ट, जिन्होंने कॉपरनिकस द्वारा हेलियोसेंट्रिक सिद्धान्त विकसित किए जाने से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व सर्वप्रथम यह घोषणा की कि पृथ्वी गोल है और सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर घूमती है, और आइजैक न्यूटन से सैकड़ों वर्ष पूर्व गुरुत्वाकर्षण नियम की खोज करने वाले भास्कराचार्य का नाम भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।     

गत दो हजार पाँच सौ वर्षों का भारत का इतिहास अद्वितीय अनेकान्तवाद (बहुलवाद सिद्धान्त और दृष्टिकोण बहुलता) के प्रतिपादक तीर्थंकर वर्धमान महावीर, शाश्वत परिवर्तन नियम के उद्घोषक शाक्यमुनि गौतम बुद्ध, महान ऋषियों-महर्षियों और युगद्रष्टाओं, भारत की दार्शनिक परम्परा को एक अद्वितीय आयाम प्रदान करने वाले आदि शंकराचार्य, जो अद्वैत वेदान्त के उपदेशक और ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के टीकाकार भी हैं, महान वैदिक-हिन्दू विचारक, परम विद्वान, सुधारवादी और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक, जो एक महान विद्वान और सुधारवादी, हिन्दू धर्म और भारतीय राष्ट्रवाद के पुनरुद्धारकर्ता थे तथा जिन्होंने शैक्षणिक, बौद्धिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भारत को पूरब के नेतृत्वकारी के रूप में स्थापित किया, की प्रेरणाओं और मार्गदर्शनों से भरा हुआ है। इन भारतीयों के कार्यों और विचारों ने पूरब (एशिया) के लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन पर विशेष रूप से गहरा तथा शेष विश्व पर सामान्य प्रभाव छोड़ा। यह महान ऋषियों की सत्य-आधारित अभूतपूर्व खोजों और उत्कृष्ट विद्वानों व युगपुरुषों के प्रयासों का परिणाम था कि भारतीय दृष्टिकोण ने जीवन के सभी क्षेत्रों में सार्वभौमिकता की सत्यता को विश्वभर के लिए प्रमुख मार्गदर्शक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया।

गत दो हजार पाँच सौ वर्षों में कितने ही आक्रमणकारी और अत्याचारी भारत आए। उन्होंने भारतीय संस्कृति की मूल विशेषताओं से खिलवाड़ करने के निरन्तर बर्बर प्रयास किए। आक्रान्ताओं ने जीवन-मूल्यों को नष्ट करने और भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों को बिगाड़ने के प्रयास किए। भारत को सैकड़ों वर्षों तक पराधीन रखने का कार्य भी किया, लेकिन वे अपने कार्यों में सफल नहीं हो सके। भविष्य में भी इस प्रकार के कुप्रयास सफल नहीं होंगे।

उपलब्ध इतिहास स्वयं इस सत्यता का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता है कि महान भारतीयों ने एक ओर हिन्दुस्तान के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखते हुए स्वदेश और संसार के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन किया और दूसरी ओर वसुधैव कुटुम्बकम्, तथा जियो व जीने दो का सन्देश प्रसारित किया।

आज भारत विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। लोकतंत्र की जन्मस्थली होने के साथ-साथ, हिन्दुस्तान विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है। भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है; हिन्दुस्तान विश्व की तीसरी सबसे बड़ी क्रय शक्ति वाला देश है। संयुक्त राज्य अमरीका, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त अरब अमीरात, दि नीदरलैंड्स, सिंगापुर, सऊदी अरब, चीन, जर्मनी, ब्राजील और हॉन्ग कॉन्ग, ये दस भारतीय वस्तुओं के शीर्ष आयातक देश हैं। भारत के पास विश्व की तीसरी सबसे बड़ी स्थायी सेना है।

भारत संयुक्त राष्ट्र, जी-20 (बीस प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की सरकारों का एक अन्तर्राष्ट्रीय मंच), विश्व व्यापार संगठन व राष्ट्रमण्डल सहित लगभग सभी प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय संगठनों का सदस्य होने के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संघ और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ जैसे मंचों के कार्य सञ्चालन में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। इसलिए, जीवन के सभी क्षेत्रों, विशेषकर सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में, भारत एक सुदृढ़ स्थिति रखता है। इसके बाद भी भारत विशेष रूप से पूरब (एशिया) का नेतृत्व करने के साथ ही अभी भी विश्वगुरु का अपना स्तर पुनः प्राप्त नहीं कर पाया है।

इस हेतु, भारतीयों को पूरब का नेतृत्व करने की दिशा में प्रथम कदम के रूप में अपने स्वदेशी मूल्यों और व्यवस्थाओं की रक्षा करनी चाहिए। साथ ही, भारतीयों को अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व के रूप में राष्ट्र के मूल संस्कारों को स्थापित रखना होगा; अपनी सांस्कृतिक परम्परा और विरासत की रक्षा करनी होगी, जो सहिष्णुता, सद्भाव और अहिंसा आधारित हैं। ये वे तत्त्व हैं, जिन्होंने भारत को सामाजिक-सांस्कृतिक, शैक्षणिक-शास्त्रीय आदि जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में सम्पूर्ण एशिया और पूरब के गुरु के रूप में स्थापित किया। सदैव इन्हीं क्षेत्रों में अग्रणीय होने के कारण भारत वैश्विक एकता और सार्वभौमिक कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। विश्व इतिहास में अंकित भारतीय संस्कारों की आज पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। मूल्य रूपी  इन संस्कारों और विशिष्टताओं के बल पर भारत एक बार पुनः जीवन के सभी क्षेत्रों में विश्व का नेतृत्व कर सकता है, एवं विश्वगुरु का गौरव प्राप्त कर सकता है।

भारत की युवा-शक्ति एक सोने की खान के समान है। भारत की कुल जनसँख्या में चालीस प्रतिशत से भी अधिक 16-30 वर्ष आयु-वर्ग के युवा हैं। हिन्दुस्तानी युवा ऊर्जावान, उत्साही, कुशल, प्रतिभाशाली और आगे बढ़ने हेतु लालायित रहते हैं। सारा संसार भारतीय युवाओं की क्षमता को स्वीकार करता है, उन पर भरोसा करता है। विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, संचार और चिकित्सा तथा कम्प्यूटर विज्ञान में उनका लोहा मानता है। भारतीय युवाओं की ईमानदारी, कार्य के प्रति समर्पण और उत्तरदायित्व भावना की विश्वभर में सराहना की जाती है। ये उनके अनोखे पित्रैक अथवा वंशानुगत गुण हैं। ये उनके संस्कार हैं। वास्तव में, ये विशिष्ट गुण उन्हें अपने पूर्वजों, सनातन मूल्यों और जीवन शैली –सनातन धर्म के अनुयायियों की संस्कृति से प्राप्त हुए हैं। यह संस्कृति विकासोन्मुख, गतिशील और समावेशी है, तथा मानवता के व्यापक कल्याण के लिए, समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार, निरन्तर नवाचार (नूतनैरुत) का आह्वान करती है। इसलिए, यदि हिन्दुस्तान के युवा अपनी मातृभूमि की सांस्कृतिक विरासत की मूल विशेषताओं को अंगीकार करते हुए आगे बढ़ें, तो विश्व पर भारत का प्रभाव कई गुना बढ़ जाएगा। भारत न केवल सम्पूर्ण एशिया (पूरब) पर अपनी पताका फहराएगा, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पुनः विश्वगुरु के रूप में स्थापित हो जाएगा।

 

डॉ. रवीन्द्र कुमार सुविख्यात भारतीय शिक्षाशास्त्री, समाजविज्ञानी, रचनात्मक लेखक एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैंI डॉ.कुमार गौतम बुद्ध, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य, गुरु गोबिन्द सिंह, स्वामी दयानन्द 'सरस्वती', स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और सरदार वल्लभभाई पटेल सहित महानतम भारतीयों, लगभग सभी राष्ट्रनिर्माताओं एवं अनेक वीरांगनाओं के जीवन, कार्यों-विचारों, तथा भारतीय संस्कृति, सभ्यता, मूल्य-शिक्षा और इंडोलॉजी से सम्बन्धित विषयों पर एक सौ से भीअधिक ग्रन्थों के लेखक/सम्पादक हैंI विश्व के समस्त महाद्वीपों के लगभग एक सौ विश्वविद्यालयों में सौहार्द और समन्वय को समर्पित भारतीय संस्कृति, जीवन-मार्ग, उच्च मानवीय-मूल्यों तथा युवा-वर्ग से जुड़े विषयों पर पाँच सौ से भी अधिक व्याख्यान दे चुके हैं; लगभग एक हजार की संख्या में देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एकता, बन्धुत्व, प्रकृति व पर्यावरण,समन्वय-सौहार्द और सार्थक-शिक्षा पर लेख लिखकर कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैंI भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से प्रकाशित होने वाले भवन्स जर्नल में ही गत बीस वर्षों की समयावधि में डॉ0 कुमार ने एक सौ पचास से भी अधिक अति उत्कृष्ट लेख उक्त वर्णित क्षेत्रों में लिखकर इतिहास रचा हैI विश्व के अनेक देशों में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के अवसर पर शान्ति-यात्राओं को नेतृत्व प्रदान करके तथा पिछले पैंतीस वर्षों की समयावधि में राष्ट्रीय एकता, विशिष्ट भारतीय राष्ट्रवाद, शिक्षा, शान्ति और विकास, सनातन मूल्यों, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और सदाचार एवं भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध विषयों पर निरन्तर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ-कार्यशालाएँ आयोजित कर स्वस्थ और प्रगतिशील समाज-निर्माण हेतु अभूतपूर्व योगदान दिया हैI डॉ. रवीन्द्र कुमार शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान की मान्यतास्वरूप ‘बुद्धरत्न’ तथा ‘गाँधीरत्न’ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय और ‘भारत गौरव’, ‘सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान’, ‘साहित्यवाचस्पति’, ‘साहित्यश्री’, ‘साहित्य सुधा’, ‘हिन्दी भाषा भूषण’ एवं ‘पद्म श्री‘ जैसे राष्ट्रीय सम्मानों से भी अलंकृत हैं।


बुधवार, 5 जून 2024

अंतहीन प्रतीक्षाएँ -सुश्री कमलेश कुमारी

अंतहीन प्रतीक्षाएँ

सुश्री कमलेश कुमारी*

 

संपूर्ण शृंगार किए हुए, लाल साड़ी में लिपटी देह उस आँगन में शांत लेटी थी, जिसमें कभी उसने नई दुल्हन के रूप में शुभता संग सारे शगुन निभा कर कदम रखे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो गृहस्थी के सर्वधर्म निभाते हुए थक कर ऐसी सो गई है कि कोई भी पुकार उसे चिरनिद्रा से जगा नहीं सकती। अपने जुड़वा बच्चों को जन्म देते ही, जिनकी अभी इस संसार में आँखें भी न खुली हों, को छोड़कर भला कौन माँ ऐसी चिरनिद्रा में सोना चाहेगी...लेकिन ईश्वर-इच्छा के आगे किसका वश‌ चलता है!

पड़ोसी, रिश्तेदार एवं परिजन…सब अपने-अपने तरीके से दुख में उपस्थिति दर्ज कर रहे थे। सब कुछ न कुछ कह कर उस दुःख की घड़ी से जुड़ रहे थे...

अभी उम्र ही क्या थी, इस दुनिया के मेले में देखा ही क्या…

अब उन नवजात शिशुओं का लालन-पालन कैसे होगा? माँ जैसा तो कोई नहीं हो सकता…

कोई कह रहा था कि बच्ची के बारे में तो सोच-सोच कर ही मन काँप रहा है...

भरी आँखें और चिंतित हृदय लिए हुए एक तरफ अशक्त से खड़े हुए पति के साथ भी सबकी सहानुभूति एवं सांत्वनाएँ थीं।

संसार से विदा होने वाली बेटी के माता-पिता की सिसकियों को समझ ही न‌ आता था कि वे अपनी बेटी के रोएं या उसके बच्चों की माँ के लिए? बिटिया के बचपन से लेकर विवाह तक के सारे दृश्य, उसकी निर्जीव देह के चारों ओर नृत्य कर रहे थे। इस सब के बीच जो यक्ष प्रश्न था, वह यह कि माँके द्वारा अपने पीछे छोड़े गए तीन बच्चों में बड़ी, पाँच वर्ष की बच्ची को माँ की मृत्यु के सत्य से अवगत कराया जाए कि नहीं...या फिर माँ के किसी परियों के देश‌ से भाई लाने की बात कह कर, भुलावे की प्रतीक्षा में डाल दिया जाए!

अंततः यह निर्णय हुआ कि बच्ची को सच बताते हुए माँ के अंतिम दर्शन कराए जाएँ।

जैसे ही बच्ची को गोद में लिए उसके पिता माँ की देह के समीप लाए और उसे माँ का भगवान जी के पास चले जाने काकठोर वाक्य कहा; वैसे ही बच्ची अपनी माँ के ठंडे पैरों से लिपटकर बिलख उठी…! लेकिन आज माँ ने लाडली को झट से कलेजे से लगा कर , उसका माथा, पलकें चूम लेने जैसी कोई ऊष्म और वात्सल्यमयी प्रतिक्रिया नहीं दी। बच्ची का बिलखना स्वयं ही सुबकियो में सिमट गया; मानो उसे समझ आ गया हो कि माँ का लाड़ भी मर गया माँ के साथ! अब रुलाई फूटने पर स्वयं ही चुप होना होगा।

बालिका को जीवन-मृत्यु के शाश्वत रूप का उतना ही बोध रहा होगा, जितना किसी टेलीविजन पर धारावाहिक या फिल्म में माँ के बिछोह के दृश्य की अनुभूति से उपजा नि:शेष रहा होगा! उस मासूम की रुलाई पत्थर हृदयों को भी आँखों के रास्ते बहा रही थी। प्रत्येक जन और रिश्ते के दुख पर भारी पड़ रहा था बच्ची का दुख।

मानवी’ इस हृदय को चीर देने वाली घटना की साक्षी बनी, एक कोने में सिमटी हुई यह फैसला नहीं कर पा रही थी कि बच्ची के कोमल मन पर शोक का इतना भारी पत्थर रखना चाहिए था या नहीं? क्या ईश्वर बच्चों के हिस्से आई दुख की शिला, उन बच्चों के बड़ा होने तक अपने हृदय पर नहीं रख सकते? तभी उसकी चेतना में वह बारह-तेरह वर्ष की किशोरी आ खड़ी हुई; जिसकी अपनी आयु के समान वर्षों तक अपनी माँ के लिए प्रतीक्षा अचानक अंतहीन प्रतीक्षा”  में बदल गई। वह किशोरी अपनी माँ के देहावसान के समय कोई दो वर्ष की थी; धीरे-धीरे बड़े होने के साथ पिता, भाई, मौसी इत्यादि, सबके द्वारा यही बताया गया कि  “माँ मामा के यहाँ गई हैं, एक दिन लौट आएंगी। वह जमाने भोलेपन से सिंचित थे…बच्चों में बड़ों के द्वारा निश्छलता से बहकाने की क्रिया स्वाभाविक रूप से घटित हो जाती थी।

दो वर्ष की नन्हीं बालिका भी उसी भाव में पोषित होकर किशोरावस्था तक पहुंच गई। वार-त्योहारों पर सबकी माँओं को देखकर अब उसकी व्याकुलता उसे दिनों दिन असहज बना रही थी। कितनी ही ऐसी निजी बातें और समस्याएं थीं, जिन्हें वह केवल अपनी माँ से साझी करना चाहती थी। बहुत-सी बातों की छोटी-छोटी पोटलियाँ बना कर उन्हें अपने मन की दराजों में रख लिया था। इस प्रतीक्षा में कि माँ एक दिन आएगी और एक-एक पोटली की गांठ खोल कर, बेटी की सब समस्याएं और जीवन सुलझा देगी। पिता से जब भी सवाल करती, “बाबा अब माँ को बहुत दिन हो गए… उन्हें आ जाना चाहिए, कब आएंगी?” पिता इस प्रश्न के उत्तर में उसका नन्हा हाथ अपने तेजी से धड़कते कलेजे पर रख लेते ! पिता के ऐसे संवेदनशील उत्तर पर बालिका की भी धड़कन बढ़ जाती; लेकिन वह चुप ही रह जाती।

एक दिन, पशुओं की व्यवस्था संभालने को लगाई हुई गाँव की दो औरतों ने आपस में कनखियों से देखा और फिर किशोरी से पूछ लिया:

लाड़ो तेरी माँ कहाँ है?”

किशोरी ने उत्तर दिया, “मेरी माँ मामा के यहाँ गई हैं, अब जल्दी ही लौटने वाली हैं।

तेरी माँ मर गई है, अब कभी नहीं लौटेगी”, उन औरतों ने झटके से सब पोटलियां छितरा दीं!

इन शब्दों ने उज्ज्वला किशोरी के प्रतीक्षा के सब दीये एक भक से बुझा दिए। उस दिन उसके बाबा की हवेली एक साथ बारह वर्षों के रुदन से काँप उठी। सबके बहलावे कम पड़ गए, उस पर आसमान से टूटी निराशा को बहलाने में…

उस समय के दुख की किशोरी आज मानवी की पचासी वर्ष (85 वर्ष) की माँ है।

---आज के दुख की पाँच वर्ष की बालिका के अश्रु नमक में परिवर्तित होकर, उसके गालों पर दर्द के अक्स बना रहे थे। मानवी के भीतर ऐसी बेचैनी लहर गई कि वह एकदम उठी और बच्ची के माथे को चूम कर जल्दी से बाहर निकल गई। व्याकुलता उसके कदम तेज कर रही थी। वह अतिशीघ्र उस बारह वर्ष की किशोरी को गले लगाकर, अपनी माँ की माँ बन जाने का अद्भुत संजोग जीने को तत्पर थी।

*सुश्री कमलेश कुमारी सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका हैं तथा वर्तमान में शिक्षा विभाग, हरियाणा में कार्यरत हैं।  

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...