बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

मोरारजी देसाई: सत्य और सेवा के योगिक पथ पर विचरता एक जीवन- प्रोफेसर डॉ. रवीन्द्र कुमार


  मोरारजी देसाई: सत्य और सेवा के योगिक पथ पर विचरता एक जीवन

योग क्या हैभारतीय दर्शन की एक प्रमुख शाखा 'योगके प्रतिपादक व योगशास्त्र (योगसूत्र) के रचनाकार पतञ्जलि के विचारानुसारसंक्षेप मेंचित्त-एकाग्रता द्वारा एक ही अविभाज्य समग्रता में अपने को विलीन करने की प्रक्रिया को योग कहते हैं। योगइस प्रकारमन-स्थिरता यमनियमआसन (योग मुद्राप्रक्रिया द्वारा चित्तवृत्ति निरोध है। योग की यह एक श्रेष्ठ और अति संक्षिप्त व्याख्या है। 

पतञ्जलिभारतीय दर्शन के आधारभूत स्तम्भों में से एक हैं। सनातन-शाश्वत मार्गजो अन्ततः सत्य को समर्पित है और अविभाज्य समग्रता पर टिका हैपतञ्जलि-विचार के बिना पूर्ण नहीं होता। सनातन-शाश्वत भारतीय दर्शन के आधारभूत स्तम्भों में स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण हैंजिनका सर्वकालिक सन्देश हैयोगः कर्मसु  कौशलम्/” (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 50)

योग मानव-जीवन को अर्थपूर्ण –सार्थक बनाने का मार्ग हैजीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने का माध्यम है। जीवन का उद्देश्य क्या है?

एक ही अविभाज्य समग्रता की सत्यता की अनुभूति करते हुए व स्वयं को सार्वभौमिक एकता का अनिवार्य भाग या अंश स्वीकार करते हुएनिरन्तर सर्वकल्याण में रत रहना। इस हेतु सत्कर्मों में संलग्न रहते हुए उसी एक शाश्वत अविभाज्य समग्रता के साथ एकरूप हो जाना। मानव-कल्पना से भी परे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसकी परिधि से बाहर कुछ भी नहीं हैउससे पृथक कोई भी चल-अचल अथवा दृश्य-अदृश्य नहीं है। सर्वकल्याण भावना से सत्कर्मों में संलग्न रहते हुए उससे एकाकार ही जीवन का उद्देश्य है।

जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में काया का अत्यधिक महत्त्व है। कर्मकाया द्वारा ही सम्भव हैं। जीवन-उद्देश्य की प्राप्ति कर्मों से ही हो सकती है। इसीलिएयोगेश्वर ने अपरिहार्य कर्मों के सुकर्मों में रूपान्तरण का सन्देश दिया। सुकर्मअर्थात् उत्तरदायित्व केन्द्रित सर्वकल्याण को समर्पित कर्म।

कर्म-प्रक्रिया का माध्यमकायाशुद्ध होआत्मतत्त्व से निर्देशित होकर सुकर्मों –शुद्धाचरणों में संलग्न होइसलिए योग के सभी आसनोंप्राणायाम आदि के साथ ही व्यायाम व शरीर श्रम भी काया-शुद्धता के साधन हैं। कर्मों को सुकर्म बनाने का माध्यम हैं। इस प्रकारजीवन-सार्थकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं।  

मोरारजीभाई देसाई (29 फरवरी, 1896-10 अप्रैल, 1995) का जीवनशुद्धाचरणों –सुकर्मों द्वारा जीवन-सार्थकता की दिशा में बढ़ता –सतत प्रयासरत यात्रा के समान रहा।

सादगीसरलतास्वच्छतास्पष्टताशाकाहार और पर-सेवा जैसी विशिष्टताओं से युक्त एक सौ वर्षों से कुछ ही कम अवधि का उनका जीवन शुद्धाचरणों –सुकर्मों से बँधा रहा। वे  सार्वभौमिक एकता की सत्यता को स्वीकार करते थे। इस एकता का निर्माण करने वाली अथवा एकमात्र आधारअविभाज्य समग्रता को समर्पित थे। ऐसा मेरा विश्वास है।

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता में उनके अटूट विश्वास को स्वयं इस लेखक को उनके द्वारा कहे गए शब्दोंमैं परमेश्वर मैं अटूट विश्वास रखता हूँ तथा उसी को समर्पित सत्कर्मों में संलग्नता मेरा सतत प्रयास होता हैइससे मैं भय व चिन्ता मुक्त रहता हूँ और तकिए पर सिर रखते ही मुझे नींद आ जाती है। मोरारजीभाई का यह विश्वास और आचरणनिस्सन्देहयोग सेजिसकी सर्वोत्कृष्ट व्याख्या श्रीकृष्ण ने की हैजुड़ा था।

योगसत्य से जुड़ा है। यह सत्य से एकाकार करने  का माध्यम है। इसीलिएजीवन में सत्याचरण अपरिहार्य हैं। मोरारजीभाई का एक लम्बा सार्वजनिक जीवन रहा। वे दीर्घकाल तक राजनीति में रहे। राजनीति में सदा सत्याचरण कठिन प्रतीत हो सकता है। लेकिनअहिंसा से बँधे गाँधी-मार्ग को समर्पित मोरारजीभाई इस सम्बन्ध में भी अधिकाधिक सचेत रहे।

वे भारत के प्रधानमंत्री थे। वर्ष 1979 में उनकी सरकार पर भीतराघात हुआ। सरकार अल्पमत में आ गई। उनके और श्री चरण सिंह के समर्थक सांसदों की दो पृथक-पृथक सूचियाँ बनाई गई थीं। दोनों में कुछ नाम कॉमन थे। अन्ततः उन कॉमन नामों में से कई एक दूसरी ओर थे। मोरारजीभाई को जब इस वास्तविकता का पता चलातो उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसे अपनी त्रुटि माना और यह भी कहा कि उनकी सूचि में सम्मिलित प्रत्येक सांसद से उन्हें स्वयं पूछना चाहिए था। ऐसी थी उनकी दृढ़तानिर्भीकता और सत्य को स्वीकारने की शक्ति। 

इसी प्रकार के कई और उदाहरण भी उनके सार्वजनिक जीवन से जुड़े हैं। निर्भीकता के साथ सत्यता का आलिंगन उनके सत्याचरण का लक्षण थाजो योग की मूल भावना  वृहद् परिप्रेक्ष्य से जुड़ा एक पक्ष है।

गाँधी-मार्ग के अनुसरणकर्ता और प्रसारक श्री मोरारजीभाई शरीर श्रम के समर्थक थे। जीवन शुद्ध रहेएकाग्रता स्थिति को प्राप्त हो और काया स्वस्थ रहकर मानसिक संतुलन के साथ वृहद् कल्याण को समर्पित होमोरारजीभाई इस दृष्टिकोण को स्वीकारने व इसका अनुसरण करने वाले थे। स्वयं काया को योग की परिधि मेंइसकी मूलभावना के अनुसारजितना भी अनुकूल बनाया जा सकेउस दिशा में व्यवहार उनके जीवन का भाग था। इसमें योग से जुड़ी गतिविधियाँकायिक व्यायाम आदि सम्मिलित थे। अन्ततः इसका विशुद्ध उद्देश्य भौतिक का आध्यात्मिक से संयोग था। यही योग की मूल भावना है।

टहलते हुए मितभाषी रहनाक्रियाओं में एकाग्रचित्तता व परम सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास के साथ जीवन में वृहद् कल्याण भावना के साथ आगे बढ़ना मोरारजीभाई देसाई के दीर्घकालिकव्यसन-मुक्त व समर्पित जीवन का सार है। इसलिए मैं उनके जीवन को योग तथा सदाचार को समर्पित एक आदर्श जीवन मानता हूँ।    

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।

 

 

 

 

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

मोबाइल / स्मार्टफोन का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से ही करें - विवेक कुमार मिश्र


      मोबाइल / स्मार्टफोन का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से ही करें

                                              - विवेक कुमार मिश्र

जब तक मोबाइल नहीं था , हम सब हसरत भरी निगाहों से मोबाइल की दुनिया के बारे में सोचते थे । यह लगता था कि मोबाइल आ जायेगा तो दुनिया बहुत आसान हो जायेगी । कहीं से भी बैठे बैठे बात किया जा सकता

और देखते देखते मोबाइल आया और एक एक कर हर आदमी मोबाइल को अपना बनाने के जतन में लग गया । जिसके पास मोबाइल नहीं था वह भी किसी तरह कोशिश कर रहा था कि एक अदद मोबाइल उसके पास भी हो जाए तो वह भी चलते फिरते बात करें । यह भी क्या बात हुई कि घर के एक कोने में सिमट कर लैंडलाइन पर बात करें वह भी आसपास दो चार लोगों की घूरती निगाहों के बीच । मोबाइल आया और उसके साथ फ्री होकर हम सब अपनी अपनी दुनिया में घूमने लगे । दुनिया से कनेक्ट होने के लिए एक सहजता सी बन गई । शुरू शुरू में यह मोबाइल एक कुतूहल की तरह आया । लोग सोचते और देखते रहते कैसे बात करें । घबराते हकलाते बात करते । फिर धीरे धीरे मोबाइल के साथ सहजता भी होनी शुरू हो गई। पहले की-पैड वाले मोबाइल ही सामने आये , टच मोबाइल लेने में घबराहट सी होती थी कि किसी को फोन करो और किसी और को न लग जाए । टच मोबाइल और की-पैड वाले मोबाइल के बीच की-पैड वाले ही पसंद बन रहे थे फिर देखते देखते स्मार्टफोन का जमाना आ गया और मोबाइल की दुनिया में इतनी तेजी से परिवर्तन आना शुरू हुआ कि हर दो साल में पुराना मोबाइल , आउटडेटेड हो जाता और नये से नये मोबाइल की ओर लोग भागे जा रहे थे । अब मोबाइल केवल मोबाइल भर नहीं था वह पूरी एक दुनिया बन गया था । मोबाइल है यानी सब कुछ आपके पास है । पूरी दुनिया आपकी मुठ्ठी में है । एक तरह से हाई पावर कम्प्यूटर ही आपके हाथ में हो और हथेली में पूरी दुनिया ऐसे घूम रही थी कि कहीं जाने की जरूरत नहीं एक जगह से ही सारे कामकाज संभाला जा सकता था । यहां से आप पूरी दुनिया से जुड़ जा रहे थे । एक अद्भुत और अपूर्व क्रांति स्मार्टफोन के रूप में सामने थी । यह मोबाइल हमें दुनिया से तो जोड़ ही रहा था वहीं सबसे दूर करने का भी बड़ा कारक था । सबने अपना एक कोना एक अड्डा बना लिया जो उसकी वास्तविक दुनिया से उसे काटकर दूर किए जा रही थी । आप धीरे धीरे इस स्मार्टफोन की दुनिया में इस तरह धंसे जा रहे थे कि आपको कुछ भी नहीं दिखाई देता । यह इतना ज्यादा हमारे मन मस्तिष्क पर छा गया कि इसके अलावा कुछ और दिखता ही नहीं । यहीं से मोबाइल द्वारा दी सुविधा ही एक ऐसे खतरनाक लेवल पर पहुंचाने के लिए काफी था कि आदमी कुछ और सोच ही नहीं पा रहा था । यहां पर वह अपनी दुनिया, अपनी आजादी सब कुछ मोबाइल को सौंप कर जीवन जीने की कोशिश करता , कुछ दिन तो यह सब ठीक लग सकता है पर एक समय के बाद हालात   इस तरह से हो जाता कि आदमी को ढ़ूढ़ना पड़ता ? कि वह कहां है ? और कब वह इतना खाली मिले की उससे बात कर सकें वह तो खोया है मोबाइल में नीली रोशनी में और स्क्रीन पर बार बार बिना बात स्क्राल कर रहा है । इस कोशिश में दिमाग भ्रमित और गर्म हो जाता है जिसका प्रभाव तमाम तरह के एक्सिडेंट में देखने को मिलता।

एक तरह से बहुत सारी आजादी लेकर मोबाइल आया । यह  तकनीकी क्रांति का भी कमाल था कि कहीं से कहीं भी कनेक्ट हो सकते थे और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी मोबाइल क्रांति में सुधार आता गया । यह असीमित सुधार अब जी का जंजाल बन गया है । यह शायद मोबाइल की ग़लती नहीं है यह हम प्रयोगकर्ताओं की ही गलती है कि उसे तकनीक के रूप में न लेकर इतना ज्यादा उसे अपने उपर लाद लिए हैं कि वह हमारे लिए साधन से ज्यादा साध्य और बोझ ही बन गया है । बोझ किसी भी तरह का क्यों न हो वह जंजाल ही होता है । आप किसी भी तकनीकी संसार में क्यों न जाए उसकी परिधि तो आपको तय करनी ही पड़ेगी । यदि अपनी सीमा तय नहीं करते तो फिर वहीं होगा जो आज हर कोई मोबाइल/ स्मार्टफोन के बारे में कह रहा है । हद तो तब हो जाती है जब आप किसी को मोबाइल के लिए टोकते हैं और वह बौखला जाता है। अनियंत्रित व्यवहार करता है और इस क्रम में तमाम तरह के हादसे होते रहते हैं । जबकि होना यह चाहिए कि इसे सही ढ़ंग से उपयोग करते हुए अपने आपको दुनिया के साथ अपडेट करते चलें तो यह साधन हमारे लिए जरूरी और अति आवश्यक की श्रेणी में आ जाता है । यह हम पर है कि इसे अपना साथी और नायक बनाते हैं कि अपना विलेन । पर ज्यादातर आज यही देखने में आ रहा है कि हम सब उपयोग की जगह उसका इतना अधिक प्रयोग कर रहे हैं कि उसके बिना रहना मुश्किल सा होता जा रहा है । कई लोगों की यह स्थिति हो गई है कि उनसे यदि एक घंटे के लिए भी मोबाइल यदि हटा दिया जाए तो ऐसा लगता है कि आप उनके प्राण ही ले लिए हों । ऐसा लगता है कि उनका प्राण ही मोबाइल में बसा हों और वे मोबाइल के बिना नहीं रह सकते । यद्यपि यह सबको पता है कि मोबाइल के माध्यम से हम दुनिया भर की तरंगों से जुड़ते हैं तो यह भी सच है कि तरंगाघात के शिकार भी हम सब हो रहे हैं । ऐसे में जरूरी है कि हम मोबाइल का उपयोग विवेक पूर्ण तरीके से ही करें । एक लिमिट हो , एक अनुशासित समय हो कि इस तरह हमें अपने गजट का उपयोग करना है । यह नहीं संभव है कि आप पूरी तरह से मोबाइल बंद कर दें । आज पूरा आफिस ही मोबाइल पर चल रहा है, सारा लेन देन आनलाइन है फिर यह तो किया नहीं जा सकता कि हम तो मोबाइल को टच ही नहीं करेंगे पर उसकी सीमा रखनी होगी । वह हमारी जरूरत है और हमारी सुविधा है और इसे बस इसी रूप में प्रयोग करने की जरूरत है । कहते हैं कि बस मोबाइल का ऐसा और इतना ही उपयोग करें तो एक अपरिमित संसार में एक उपलब्धि भरी दुनिया में अनावश्यक रूप से बांधा बनने की भी बात आती है । पर यहां यह कहा जाना भी जरूरी लगता है कि मोबाइल ही सब कुछ नहीं है मोबाइल से बाहर भी दुनिया है । थोड़ा बाहर भी निकले और दुनिया को अपनी आंखों से भी देखें । यह भी सच है कि किसी भी तकनीक का इस्तेमाल तकनीक के आगे जाकर करते हैं तो वह खतरनाक हो जाता है । यहीं आज मोबाइल के साथ हो रहा है । हर आदमी मोबाइल में इस तरह उलझता जा रहा है कि उसे दुनिया दिखाई ही नहीं दे रहा है। जब दुनिया दिखेंगी ही नहीं तो भला क्या किया जा सकता ।

मोबाइल असीमित ढ़ंग से लोगों को पहले जोड़ता है फिर एक समय के बाद इस तरह से अपना आदी बना देता है कि वह आदमी और मोबाइल ही रह जाते बाकी दुनिया सिरे से गायब हो जाती है । एक समय के बाद बचा हुआ मोबाइल आदमी का पता देता है कि हां इधर या उधर आदमी है । मोबाइल खतरनाक हो जाता है यदि उसका प्रयोग अनावश्यक रूप से आप करने लग जाते हैं ।

वहीं जरूरत के हिसाब से उपयोग करें तो सबसे उपयोगी साधन है । पर लोगबाग मोबाइल को आत्मवत हो प्रेम करने लग जा रहे हैं जिस क्रम में घर परिवार सब टूट रहा है । जरूरत है तो अपने को सहेजने की पर लोग तकनीकी संसार में उलझकर मोबाइल/ स्मार्टफोन सहेज रहे हैं भला ऐसे में तेज गति से भाग रही दुनिया में क्या बचेगा ? यह देखना इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है।

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एफ -9, समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002


शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

संत शिरोमणि गुरु रविदास 15वीं शताब्दी में भारत के भक्तिकाल काव्य और धार्मिक भक्ति आंदोलन युग के एक तार्किक विचार के विचारक, वैज्ञानिक विचारधारा, तार्किक वक्ता, धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व और एक महान सामाजिक क्रांतिकारी संत थे: डॉ.कमलेश मीना।

 


संत शिरोमणि गुरु रविदास 15वीं शताब्दी में भारत के भक्तिकाल काव्य और धार्मिक भक्ति आंदोलन युग के एक तार्किक विचार के विचारक, वैज्ञानिक विचारधारा, तार्किक वक्ता, धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व और एक महान सामाजिक क्रांतिकारी संत थे: डॉ.कमलेश मीना।


सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करू काम। 

रैदास करम ही धरम हैं, करम करहु निहकाम॥ 


रविदास जयंती हर साल माघ महीने की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। पंचांग के अनुसार इस वर्ष 2024 रविदास जयंती 24 फरवरी 2024, शनिवार को मनाई जा रही है। संत रविदास ऐसे ईश्वर भक्त थे जिन्होंने जाति-पाति के भेदभाव को दूर कर समाज को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया। उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से समाज के लोगों को सही रास्ता दिखाने का काम किया। गुरु रविदास जी का जन्म संवत 1433 में माघ मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था और इस दिन को रविदास जयंती के रूप में मनाया जाता है। संत रविदास के पिता का जूते बनाने का पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने जीवन भर यह काम पूरी मेहनत और लगन से किया। अपने पिता की तरह रविदास जी ने भी अपनी आजीविका के लिए अपने पैतृक कार्य को अपनाया और पूरी लगन से काम किया। वह अपना काम करते हुए भगवान की पूजा भी करते थे। ईश्वर की भक्ति उनके मन में कूट-कूट कर भरी हुई थी और उन्होंने अपने कार्य को संतों की सेवा का माध्यम बना लिया। कहा जाता है कि संत रविदास के पास कुछ अलौकिक शक्तियां थीं और उनके चमत्कारों से कुष्ठ रोगी ठीक हो जाते थे। संत रविदास जी लोगों को दोहे सुनाते थे और उनके दोहों में ऐसी शिक्षाएं छिपी थीं जो समाज में जाति-पाति के भेदभाव को दूर करती थीं।


रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच। 

नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥ 


गुरु रविदासजी मध्यकाल में एक भारतीय संत कवि सतगुरु थे। उन्हें संत शिरोमणि सतगुरु की उपाधि दी गई है। उन्होंने रविदासिया संप्रदाय की स्थापना की और उनके द्वारा रचित कुछ भजन सिख लोगों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं। उन्होंने जातिवाद का पुरजोर खंडन किया और आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया। वह 15वीं सदी के महान दार्शनिक, बौद्धिक बुद्धि से परिपूर्ण और दूरदर्शी समाजवादी क्रांतिकारी नायक थे। गुरु संत रविदास जी 15वीं शताब्दी के दौरान भारत के एक महान संत, दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक और तर्कसंगत विचारों, वैज्ञानिक अवधारणाओं और तर्क आधारित ज्ञान के अनुयायी थे। वह निर्गुण संप्रदाय (संत परंपरा) के सबसे प्रसिद्ध और अग्रणी सितारों में से एक थे और उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे। अपनी महान काव्य रचनाओं के माध्यम से उन्होंने अपने प्रेमियों, अनुयायियों और समाज के लोगों को अपने मन को बेहतर बनाने और ईश्वर के प्रति अपना असीम प्रेम दिखाने के लिए कई तरह से प्रेरित किया। ईश्वर के प्रति अपना अगाध प्रेम दर्शाने के लिए उन्होंने कई आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिये।


एक व्यक्ति अक्सर अपने जूते ठीक कराने के लिए संत रविदास के पास आता था, लेकिन वह काम के बदले में नकली सिक्के (खोटे सिक्के) दे देता था। एक दिन उस व्यक्ति ने संत रविदास के एक शिष्य के साथ भी ऐसा ही किया।


दरअसल रविदास जी कहीं बाहर गए हुए थे और उनकी जगह उनका एक शिष्य जूते की मरम्मत कर रहा था। नकली सिक्के (खोटे सिक्के) देने वाला व्यक्ति उस दिन भी आया और शिष्य के जूते की मरम्मत करवाई और नकली सिक्के देने लगा। शिष्य ने उसे पकड़ लिया और डांटा। शिष्य ने उसके सिक्के और जूते बिना मरम्मत कराये ही वापस कर दिये।


जब रविदास जी वापस आये तो शिष्य ने उन्हें सारी घटना बतायी। संत रविदास ने शिष्य से कहा कि तुम्हें उसे डांटना नहीं चाहिए था, बल्कि उसके जूते ठीक कर देने चाहिए थे। मैं बस यही करता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि वह खोटे सिक्के लेकर निकलता है। यह सुनकर शिष्य हैरान रह गया। उन्होंने पूछा कि आप ऐसा क्यों करते हैं? संत रविदास ने उसे समझाया कि मुझे नहीं पता कि वह ऐसा क्यों करता है, लेकिन जब वह नकली सिक्के (खोटे सिक्के) देता है तो मैं उसे रख लेता हूं और अपना काम ईमानदारी से करता हूं। शिष्य ने आगे पूछा कि आप उन नकली सिक्कों का क्या करते हैं? 


संत रविदास ने कहा कि मैं उन सिक्कों को जमीन में गाड़ देता हूं, ताकि वह व्यक्ति इन सिक्कों से किसी और को धोखा न दे सके। दूसरों को धोखाधड़ी से बचाना भी एक सेवा है. अगर कोई व्यक्ति गलत काम करता है तो उसे देखकर हमें अपनी अच्छाई नहीं छोड़नी चाहिए।


इस प्रकार जीवन भर उनके साथ कई घटनाएँ घटीं, गुरु रविदास ने किसी के साथ कोई गलत कार्य नहीं किया और बदले में उनके साथ अच्छा व्यवहार किया। यह वास्तविक मानवीय ज्ञान है जो समाज, जनता और गरीब लोगों के प्रति जिम्मेदारी, जवाबदेही और सत्यनिष्ठा से भरा है। बौद्धिक मस्तिष्क और समाज का हिस्सा होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से मानवता की गरिमा का सम्मान करना नैतिक जिम्मेदारी है और गुरु रविदास ने जीवन भर सकारात्मक ऊर्जा के साथ इसे निभाया। उनकी शिक्षा उस समय पूरी तरह से मानवता के कार्य के लिए परिभाषित और दृढ़ थी। इस कहानी में संत रविदास जी ने हमें संदेश, दिशा, आज्ञाकारिता दी है कि बुरे लोग गलत काम करेंगे, लेकिन उनकी वजह से हमें अपनी अच्छाई नहीं छोड़नी चाहिए। हमें अपना कार्य ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा से करना चाहिए। गुरु रविदास ने हमें सिखाया कि हमें कभी भी अपने कार्यों और विचारों के माध्यम से किसी भी बुरे कार्य की कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। उन्होंने लोगों को यह सन्देश दिया कि "ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है न कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है", अर्थात इस धरती पर सभी को ईश्वर ने बनाया है और सभी को समान अधिकार हैं। इस सामाजिक परिस्थिति के सन्दर्भ में संत गुरु रविदास जी ने लोगों को विश्व बन्धुत्व एवं सहिष्णुता का ज्ञान दिया। गुरुजी की शिक्षा से प्रभावित होकर चित्तौड़ साम्राज्य के राजा और रानियाँ उनके अनुयायी बन गये।


वह लोगों की सामाजिक और आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एक मसीहा की तरह थे। वह आध्यात्मिक रूप से समृद्ध व्यक्ति थे और लोग उनकी पूजा भी करते थे। वे प्रतिदिन सुबह-शाम उन्हें सुनते और उनके महान गीत, छंद और दोहे, छंद आदि सुनाते थे। उन्हें दुनिया भर में प्यार और सम्मान दिया जाता है, हालांकि उनके भक्ति आंदोलन और भक्ति गीतों के लिए सबसे सम्मानित क्षेत्र उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र थे। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब उत्तर भारत के कुछ क्षेत्र मुगलों के शासन के अधीन थे और हर जगह अत्याचार, गरीबी, भ्रष्टाचार और अशिक्षा थी। उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा अधिकांश हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया गया। संत रविदास की प्रसिद्धि लगातार बढ़ती जा रही थी जिसके कारण उनके लाखों भक्त थे जिनमें हर जाति के लोग शामिल थे। यह सब देखकर एक प्रतिष्ठित मुस्लिम 'सदना पीर' उन्हें मुसलमान बनाने के लिए आये। उनका विचार था कि यदि रविदास मुसलमान बन गये तो उनके लाखों भक्त भी मुसलमान बन जायेंगे। लेकिन संत रविदास संत थे, उन्हें किसी हिंदू या मुसलमान से नहीं बल्कि मानवता से मतलब था। संत रविदासजी बहुत दयालु और दानी थे। संत रविदास ने अपने दोहों और छंदों के माध्यम से समाज में जाति आधारित भेदभाव को दूर किया, सामाजिक एकता पर जोर दिया और मानवतावादी मूल्यों की नींव रखी। रविदासजी ने सीधे लिखा कि 'रैदास, कोई जन्म से तुच्छ नहीं होता, कोई मनुष्य तुच्छ नहीं होता, वह अपने कर्मों से ही तुच्छ होता है' अर्थात कोई भी व्यक्ति अपने कर्मों से ही तुच्छ होता है। गलत कार्य करने वाला व्यक्ति घृणित होता है। संत रविदास ने अपनी कविताओं के लिए आम जन की ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। इसके अलावा इसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और रेखता यानी उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदासजी के लगभग चालीस छंदों को सिख धर्म के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहिब' में भी शामिल किया गया है।


कहा जाता है कि स्वामी रामानंदाचार्य वैष्णव भक्ति संप्रदाय के महान संत हैं. संत रविदास उनके शिष्य थे। संत रविदास को संत कबीर का समकालीन और गुरुभाई माना जाता है। कबीरदास जी ने स्वयं उन्हें 'बालक रविदास' कहकर पहचाना है। राजस्थान की कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई उनकी शिष्या थीं। यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं। चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी है। ऐसा माना जाता है कि वह वहीं से स्वर्ग पहुंचे। श्री गुरु रविदास जी का जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कांशी बनारस (आज की वाराणसी) में हुआ था। उनकी माता का नाम माता कलसी जी और पिता का नाम बाबा संतोख दास जी था। गुरु रविदास जी का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था जिसे उस समय हिंदू समाज में प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के अनुसार अछूत माना जाता था। गुरु रविदास ने जाति, रंग या पंथ के आधार पर मानव निर्मित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता और भाईचारे के ऊंचे विचारों का प्रचार किया। बचपन से ही वह साक्षात् ईश्वर की आराधना में बहुत समर्पित थे। ब्राह्मण जाति ने उनके लिए कई समस्याएँ पैदा कीं। गुरु रविदास को कई बार राजा नागरमल के सामने उपस्थित होना पड़ा। अंत में, राजा आश्वस्त हो गया और गुरु रविदास का अनुयायी बन गया। गुरु रविदास ने सार्वभौमिक भाईचारे, सहिष्णुता, अपने पड़ोसी से प्यार करने का संदेश दिया, जिसे आज की दुनिया में अधिक महत्व मिला है। गुरु रविदास ने पुरानी पांडुलिपियाँ दान करके गुरु नानक देव जी के अनुरोध को पूरा किया, जिसमें गुरु रविदास जी के छंदों और कविताओं का संग्रह था। इन कविताओं का सबसे पहला संग्रह श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उपलब्ध है। इसका संकलन सिखों के पांचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी ने किया था। सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु रविदास के 41 पद हैं। ऐसा कहा जाता है कि गुरु रविदास केवल अपने पैरों के निशान छोड़कर दुनिया से गायब हो गए। कुछ लोगों का मानना है कि गुरु रविदास अपने अंतिम दिनों में बनारस में रहे और 126 वर्ष की आयु में उनकी प्राकृतिक मृत्यु हो गई।


वह अपने समय के एक महान संत थे और एक आम आदमी की तरह जीवन जीना पसंद करते थे। कई बड़े-बड़े राजा-रानी तथा अन्य धनवान लोग उनके बड़े अनुयायी थे लेकिन वे किसी से किसी भी प्रकार का धन या उपहार स्वीकार नहीं करते थे। वह इतने वफादार गुरु थे कि एक बार उन्होंने कुछ साधुओं को, जो हरिद्वार जा रहे थे, एक दमरी दी और उनसे अनुरोध किया कि वे इसे उनकी ओर से गंगा माई को चढ़ा दें। वे कहते हैं कि जब साधु ने गुरु रविदास द्वारा भेजी गई दमरी भेंट की, तो गंगा ने उसे प्राप्त करने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए। उनके जीवन काल में उनका इतना सम्मान किया गया कि कांशी के दिग्गज पंडित भी उनके सामने झुकते थे। परंपरा यह है कि मेवाड़ की रानी झालन गुरु रविदास की अनुयायी बन गईं। लेकिन समाज के एक संपन्न वर्ग के साथ घनिष्ठ संपर्क के बावजूद, उन्होंने सादगी से रहना चुना। वे कहते हैं कि एक बार किसी ने उन्हें पारस दार्शनिक पत्थर जो सस्ती धातु को सोने में बदल देता है की पेशकश की और उन्हें आश्वासन दिया कि इसका उपयोग करके वह कितनी भी मात्रा में धन प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन गुरु रविदास ने इसका उपयोग नहीं किया और अपने घर के एक कोने में रख दिया था। जब वह कुछ महीनों के बाद फिर से गुरु रविदास के पास आए, तो उन्होंने पाया कि संत अभी भी गरीबी में छिपे हुए हैं। उन्होंने गुरु से पूछा कि उन्होंने पैरा का उपयोग क्यों नहीं किया। गुरु रविदास ने टिप्पणी की कि उनके लिए, "भगवान का नाम ही पारस है, वह "कामधेन" और "चिंतामणि" है। गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयायियों को सिखाया कि कभी भी धन का लालच न करें, धन कभी भी स्थायी नहीं होता, बल्कि ईमानदारी से आजीविका के लिए कड़ी मेहनत करें।


गुरु संत रविदास 15वीं शताब्दी के दौरान भारत के एक महान संत, दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक और ईश्वर के अनुयायी थे। उन्होंने अपने महान काव्य लेखन के माध्यम से अपने प्रेमियों, अनुयायियों और समाज के लोगों को अपने मन को सुधारने और भगवान के प्रति अपना असीम प्रेम दिखाने के लिए कई तरह के आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए थे। लोगों की सामाजिक और आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा करने के लिए वह एक मसीहा की तरह थे। वह आध्यात्मिक रूप से समृद्ध व्यक्ति थे और लोग उनकी पूजा भी करते थे। वे उन्हें सुनते थे और हर सुबह और शाम, उनके जन्मदिन, सालगिरह समारोह, या किसी धार्मिक कार्यक्रम उत्सव पर उनके महान गीत, पद आदि सुनाते थे। 


जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात। 

रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥ 


उन्हें दुनिया भर में प्यार और सम्मान दिया जाता है, वह लोगों की सामाजिक और आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एक मसीहा की तरह थे। वह आध्यात्मिक रूप से समृद्ध व्यक्ति थे और लोग उनकी पूजा भी करते थे। वे प्रतिदिन सुबह-शाम उन्हें सुनते और उनके महान गीत, छंद और दोहे, छंद आदि सुनाते थे। उन्हें दुनिया भर में प्यार और सम्मान दिया जाता है, हालांकि उनके भक्ति आंदोलन और भक्ति गीतों के लिए सबसे सम्मानित क्षेत्र उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र थे।


उनके जीवन की कुछ घटनाएँ एक बार, उनके कुछ शिष्यों और अनुयायियों ने उनसे पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि उन्होंने पहले ही अपने एक ग्राहक को जूते पहुंचाने का वादा किया था, इसलिए वह उनमें शामिल नहीं हो पाएंगे। उनके एक शिष्य ने उनसे बार-बार आग्रह किया तब उन्होंने आम कहावत "मन चंगा तो कठौती में गंगा" के बारे में उनकी मान्यताओं का उत्तर दिया, जिसका अर्थ है कि हमारे शरीर को केवल पवित्र नदी में स्नान करने से नहीं बल्कि आत्मा से पवित्र होने की आवश्यकता है, अगर हमारी आत्मा और हृदय शुद्ध है और खुश तो हम घर में टब में भरे पानी से नहाने के बाद भी पूरी तरह पवित्र हैं।


गुरु संत रविदास ने समानता, न्याय और जनता के शासन में सभी के लिए समान रूप से भागीदारी और भागीदारी की वकालत की और अपने छंदों, दोहे के माध्यम से उन्होंने अपने तर्कसंगत विचारों और भावनाओं को खुलकर प्रदर्शित किया। उनका हर छंद, लेखन कौशल, दोहे 15वीं शताब्दी के युग में उनके तार्किक वक्ता साहस और ज्ञान वैचारिक योगदान का प्रमाण थे।


रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय। 

प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥ 


वह लोगों की नजरों में एक ऐसे मसीहा के रूप में इसी आस्था और विश्वास के साथ उभरे जो उनकी सामाजिक, मानवीय और आध्यात्मिक जरूरतों को ईमानदारी के साथ हमेशा के लिए पूरा करेगा। आध्यात्मिक रूप से समृद्ध रविदास की लोग पूजा करते थे। हर दिन और रात, रविदास के जन्मदिन के अवसर पर और किसी भी धार्मिक कार्यक्रम के उत्सव पर, लोग उनके महान गीत आदि सुनते या पढ़ते हैं। उन्हें दुनिया भर में प्यार और सम्मान दिया जाता है, हालांकि उनके भक्ति आंदोलनों और धार्मिक गीतों और सामाजिक रूप से क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए वे सबसे अधिक आराध्य राजस्थान, पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र में थे और उनका सम्मान किया जाता था।


रविदास के पिता मल साम्राज्य के राजा नगर के सरपंच थे और वे स्वयं जूते का व्यवसाय और मरम्मत का काम करते थे। रविदास बचपन से ही बहुत बहादुर और भगवान के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन बाद में ऊंची जाति के कारण होने वाले भेदभाव के कारण उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा और रविदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को जीवन के इस तथ्य से अवगत कराया। करवाया है। उन्होंने हमेशा सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के अपने पड़ोसियों से प्यार करना सिखाया और सिखाया और उनका मानना ​​था कि केवल इस कार्य से ही हम प्यार, सम्मान, स्नेह, लगाव और संवेदनशीलता को गहराई से विकसित कर सकते हैं, एक-दूसरे के लिए संवेदनशील हो सकते हैं। उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपने लेखन छंदों के माध्यम से हमें सिखाया कि प्रेम, स्नेह, लगाव और न्याय पूर्ण व्यवहार से समाज के बीच के भेदभाव को नष्ट किया जा सकता है। संत रविदास का जन्मदिन पूरी दुनिया में भाईचारे और शांति की स्थापना के साथ-साथ उनके अनुयायियों को दी गई महान शिक्षाओं को याद करने के लिए मनाया जाता है। उनके अध्यापन के शुरुआती दिनों में काशी में रहने वाले रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा उनकी प्रसिद्धि में हमेशा बाधा बनी रही क्योंकि संत रविदास छुआछूत के भी गुरु थे। 


बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडित शारदा नंद के स्कूल गए, जिन्हें बाद में कुछ ऊंची जाति के लोगों ने वहां प्रवेश लेने से रोक दिया। हालाँकि, पंडित शारदा को एहसास हुआ कि रविदास कोई सामान्य बच्चा नहीं बल्कि भगवान द्वारा भेजा गया एक विशेष बच्चा था, इसलिए पंडित शारदानंद ने रविदास को अपने स्कूल में दाखिला दिलाया और उनकी शिक्षा शुरू हुई। वह बहुत मेधावी और होनहार था और उसके शिक्षक ने उसे जो सिखाया उससे कहीं अधिक उसने हासिल किया। पंडित शारदा नन्द उनसे और उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें पूरा विश्वास था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध और महान समाज सुधारक के रूप में जाने जाएंगे।


एक और दिलचस्प कहानी है उनके समय की जब संत रविदास बचपन में थे और कभी-कभी अपने बचपन के दोस्तों के साथ अलग-अलग खेल खेलते थे। उनके और उनके दोस्त के साथ बहुत ही आश्चर्यजनक घटना घटी जो इस प्रकार है:


स्कूल में पढ़ते समय रविदास पंडित शारदानंद के बेटे के मित्र बन गये। एक दिन दोनों लोग मिलकर छुपन-छुपाई खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके मित्र जीत गए। अगली बार रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने के कारण वे खेल पूरा नहीं कर सके, जिसके बाद उन दोनों ने अगली सुबह खेल जारी रखने का फैसला किया। अगली सुबह रविदास जी आये लेकिन उनके मित्र नहीं आये। काफी देर तक इंतजार करने के बाद वह अपने दोस्त के घर गया तो देखा कि उसके दोस्त के माता-पिता और पड़ोसी रो रहे थे।


उसने उनमें से एक से कारण पूछा और अपने मित्र की मृत्यु का समाचार सुनकर स्तब्ध रह गया। उसके बाद उनके गुरु संत रविदास को अपने पुत्र के शव के स्थान पर ले गए, वहां पहुंचकर रविदास ने अपने मित्र से कहा कि उठो मित्र, यह समय सोने का नहीं है, यह समय लुका-छिपी खेलने का है। चूँकि गुरु रविदास को जन्म से ही दैवीय शक्तियाँ प्राप्त थीं, इसलिए रविदास के ये शब्द सुनकर उनके मित्र फिर से जीवित हो उठे। इस अद्भुत पल को देखकर उनके माता-पिता और पड़ोसी दंग रह गए. यह संत रविदास का अपने समय में सच्चा समर्पण और उनकी पवित्रता, सच्ची आध्यात्मिकता और ईमानदारी का प्रभाव था।


एक बार गुरु जी के कुछ छात्रों और अनुयायियों ने पवित्र नदी गंगा में स्नान करने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उन्होंने पहले ही अपने एक ग्राहक को जूता देने का वादा किया था, इसलिए अब यह उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। जब रविदास जी के एक शिष्य ने उनसे दोबारा अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि उनका मानना ​​है कि "मन चंगा तो कठौती में गंगा" का अर्थ है कि शरीर को धोने से नहीं बल्कि आत्मा से शुद्ध होना चाहिए। उनका मानना ​​था कि सिर्फ पवित्र नदी में स्नान करने से ही नहीं, अगर हमारी आत्मा और हृदय शुद्ध है तो हम घर पर भी स्नान करके भी पूरी तरह पवित्र हैं।


बेगमपुरा शहर को गुरु रविदास जी ने बिना किसी दुख के शांति और मानवता वाले शहर के रूप में स्थापित किया था। अपनी कविताएँ लिखते समय, बेगमपुरा शहर को रविदास जी ने एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया था, यह वह शहर है जहां किसी भी स्तर पर कोई अन्याय नहीं होगा। जहाँ उन्होंने कहा था कि यह बिना किसी दुःख, दर्द या भय के एक शहर है और एक ऐसी भूमि है जहाँ सभी लोग बिना किसी भेदभाव, गरीबी में भी स्नेह से रहते हैं और जातिगत अपमान के बिना सभी जिएं। ऐसा स्थान जहां कोई आरोप न लगाए, कोई भय, चिंता या उत्पीड़न न हो।


संत रविदास जी को मीरा बाई का आध्यात्मिक गुरु माना जाता है जो राजस्थान के राजा की बेटी और चित्तौड़ की रानी थीं। वह संत रविदास की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी महान अनुयायी बन गईं। मीरा बाई ने अपने गुरु के सम्मान में कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं और मीरा बाई अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थी:


“गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,


चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी”।


हम ऐसे महान व्यक्तित्व, सत्य के प्रतीक, भारत के 15वीं सदी के सामाजिक क्रांतिकारी के सच्चे गुरु को उनकी जयंती पर याद करते हैं और उनकी शिक्षा और शिक्षा का अनुसरण करने का संकल्प लेते हैं जिन्होंने अपने पवित्र जीवन के माध्यम से हमें दिया।


#drkamleshmeenarajarwal 


सादर।


डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।


एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

स्वावलम्बन-  केदार शर्मा,”निरीह’’ सेवानिवृत व्याख्याता (अंग्रेजी)


 स्वावलम्बन

 श हर की फैक्ट्री बंद हो जाने के कारण  जमना और विनोद को वापस एक अरसे बाद गाँव आना पड़ा । पति विनोद दमें का मरीज था। वहाँ निगरानी और माल की गिनती  के काम में नियुक्त था । जमना का काम मीटर के डिब्बों को ट्रकों में लादना था।

           शहर से वापस आने पर उसने पाया कि उसका वह छोटा सा घर आज बदरंग हालत में हो गया था। बरसात की सीलन से लकडी के दरवाजे अकड़े हुए थे । घर के भीतर चूहों के बड़े-बड़े बिल थे। जमना की दो दिन की अथक मेहनत के बाद घर रहने लायक स्थिति में आ गया था। सच  में बिन घरनी घर भूत का डेरा जैसा हो गया था ।

तभी बाहर किसी  पाँवों की आहट सुनाई पड़ी। ‘आज शहर वालों के यहाँ क्या बन रहा ?’ छोटी देवरानी भीतर आ गयी थी।

‘कुछ नहीं बहन, चटनी-रोटी बनी हैं । क्यों मजाक उड़ाती हो? शहर वाले बनना तो हमारी मजबूरी थी। ‘

‘ऐसी क्या मजबूरी थी ,हम तो नहीं गए गाँव छोड़कर ।‘कहते हुए वह सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गयी।

‘’ न जाते तो क्या करते बहिन ? ससुरजी की मौत के बाद सारी जिम्मेदारी रतन के पापा के कंधों पर आ गयी थी। दोनो देवरों और तीन ननदों का खर्चा उठाया ,पढ़ाया-लिखाया ,विवाह किया । उसके बाद गाँव से शहर के बीच की भागम-भाग से परेशान होकर  साथ मुझे भी उनके साथ शहर जाना ही पड़ा । यहाँ सब कुछ सीधा मिल गया,इसलिए तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।

        ‘जो कुछ किया होगा तुम्हारे देवरों के लिए किया होगा,अब हमें गिनाने से क्या होगा ?’ कहते हुए देवरानी बड़बड़ाती हुई धीरे-धीरे  बाहर चली गई ।

खाना खाने के बाद रतन,रतनी और धन्नी तीनों पुत्रियाँ तो सो गई  पर जमना की आँखों में नींद नहीं थी। ‘इस तरह से चेहरा लटकाए क्या सारी रात जागत रहोगी ?’— विनोद ने टोका तो जमना की रूलाई फूट पड़ी ।

            ‘’अपने भाग्य को कोस रही हूँ—भीतर भरा गुबार मानो निकलने की प्रतीक्षा में था । ‘’ कैसे यहाँ नई जिन्दगी की शुरूआत होगी ? किसी उखड़े हुए पौधे की सी हालत हो गई है हमारी । नकद पैसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है । कैसे हम परिवार का खर्च चलाएँगे ।‘’ कैसे तीनों संतानों को पढ़ाने का और विवाह का खर्च उठाएँगे ?

‘तू चिंता मत कर,ईश्‍वर सब सही करेगा ।‘ विनोद ने सांत्वना देने का प्रयास किया ।

         ‘ ईश्‍वर क्या आकर मुँह में खाना डाल देगा ?आपने शहर जाकर क्या कर लिया ?’

       ‘ शहर की महँगाई कुछ करने देती तब न । वहाँ तो बस दाल-रोटी खाकर जिंदा रहा जा सकता है।‘

 पति से बहस करते करते जमना की न जाने आँख लग गई ।

                       मुर्गा बोलने की आवाज से उसे पता चला कि सुबह होने वाली है। आवाजाही शुरू होने से पहले ही पड़ौस की औरतों ने घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाना शुरू कर दिया था। उधर हरिबोल कीर्तन वालों की प्रभात-फेरी ढोल-मजीरों के साथ चल पड़ी थी।हेण्‍डपंप चलाने की आवाज भी रह रहकर वातावरण की इस हलचल में अपना अलग ही सुर बिखेर रही थी। अभी.अभी  मस्जिद की अजान बंद हुई थी और मंदिर की आरती शुरू हो गई थी । जमना भी अपने नित्य-कर्म में जुट गयी। विनोद कब का नहा-धोकर पूजा-पाठ में लग गया था ।

भोर का उजाला हो चुका था। बाहर कोई आवाज लगा रहा था।उत्सुकता का भाव लिए दोनो पति-पत्नी बाहर निकल आए।  यह तो चौधरी रामलाल था —“खेत से सब्जियाँ तोड़कर शहर भिजवानी है,दो मजदूरों की जरूरत है,चलोगे?”

विनोद  कुछ कहता इसके पहले ही जमना ने घूँघट नीचे सरका कर अपने पति से कहा—“हाँ, चले चलेंगे।“

पति और बच्चों सहित जमना आधे घंटे में चौधरी के खेत में पहुँच गई । लोकी,भिण्‍डी,बैंगन,गवार की फलियाँ और टमाटर प्लास्टिक के कट्टों में पैक करके जुगाड़ में लाद दिया गया । विनोद भी रामलाल के साथ थोक-मंडी पहुँच गया। उसने एक-एक कर सभी कट्टे उतरवाए ।  हिसाब-किताब करके दोपहर बाद दोनों  वापस गाँव के लिए रवाना हो गए।

           आज मिली दोनो की मजदूरी से जमना ने किराने का  जरूरी सामान मंगवाया।

शाम को  विनोद को अपने बचपन का घनिष्‍ट मित्र नानगराम जाता हुआ दिखाई दिया।जिस समय विनोद जयपुर गया था उन्ही दिनों नानगराम ने ठेले पर कुल्फी बेचने का काम संभाल लिया था।उसने जोर से आवाज देकर उसे बुला लिया । नानगराम भी चौंका—“अरे भैया कब आए शहर से ?सब ठीक-ठाक तो है न भाई ?कहता हुआ वह चारपाई पर बैठ गया ।कहने लगा-‘’मैंने भी अब फेरी लगाकर कुल्फी बेचना बन्द कर दिया भैया, अब बुढा़पे में कमर ने जवाब दे दिया है । सो यह ठेला बेचने का मन था । यहाँ भी पड़े -पड़े खराब हो जाएगा --  नानगराम ने पास में ही अपने बाड़े में पड़े ठेले की ओर इशारा करते हुए कहा।

           ठेले की बात आते ही जमना के मष्तिष्‍क में कोई विचार कौंधा —‘’हमें दे दो भैया । हम मजूरी करके खा लेंगे ।‘’चाय का कप सौंपते हुए जमना ने कहा । विनोद चौंका — ‘’किसके लिए ले रही हो तुम ?,मेरी तो कमर का पहले ही हाल बेहाल है । मुझसे नहीं लगेगी फेरी-वेरी ।‘’

‘’ आपको फेरी लगाने के लिए कौन कह रहा है  जी ? आड़े वक्त में चीज काम आ ही आती हे ‘’ कहकर जमना चुप हो गयी ।

  थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया । फिर जमना ही बोली-  भैया , आप तो यह बताओ —‘’कितने रूपए लोगे ? विनोद मन ही मन चकरा रहा था । आखिर जमना को हो क्या गया  है ? एक दिन तो मजूरी की है ओर ठेले का सौदा  कर रही है। कहाँ से इसके पैसे देगी यह ? पर प्रत्यक्ष में वह चुप ही रहा ।

‘वैसे तो एक हजार से कम का नहीं है पर तुम नौ सौ रूपए दे देना  ‘’ नानगराम ने जवाब दिया

‘’ ठीक है भैया , सौदा पक्का । दो महीने की मोहलत दे दो । हम बिना माँगे हिसाब चुकता कर देंगे ।‘’

 नानगराम को नकद की उम्मीद थी । पर वह कुछ कह नहीं सका ।

          दूसरे दिन जमना ठेला उठाकर चौधरी के खेत पर चली गई । वहl सीधी रामलाल की पत्नि के पास गई और उससे अनुमति लेकर ,सब्जियाँ शहर के लिए लदवाने से पहले तौलकर अपने ठेले में रख ली । उसने चोधराईन से कहा—“ जो भाव थोक मंडी में हो उसी भाव से मैं भी हर दूसरे रोज दाम दे दिया करूंगी ।“

             इस तरह रोज विनोद रामलाल के साथ शहर चला गया और जमना तराजू और सब्जीका ठेला लेकर गाँव में चल पड़ी।           शाम तक जमना की सारी सब्जी बिक गयी थी ।ठेले पर अनाज का ढेर ओर पल्लू में नकदी बंधी हुई थी । अब चिंता ओर अनिश्चितता की धुंध छट  चुकी थी । दिन भर का परिश्रम और  आत्मविश्‍वास का  आलोक  उसके चेहरे पर  दिपदिपा रहा था ।उसे  आत्मनिर्भरता के लिए एक  नया संबलन  मिल गया था और गाँव वालों को घर बैठे सब्जी  की सुविधा । धीरे-धीरे जमना सब्जी का धंधा चलने लगा ।एक दिन रामलाल ने लकड़ी की केबिन बनवाकर गाँव के बीच चौराहे के पास रखवा दिया । अब जमना वहाँ बैठकर सब्जी बेचने लगी । दूसरे दिन ही वहाँ पर ताश खेलने वाले लोगों में से किसी ने पंचायत में शिकायत कर दी कि विनोद और जमना ने सरकारी जमीन पर कब्जा करने की नीयत से केबिन रख दी है ।

  रात को पंचायत का नुमाइंदा घर आया और एक कागज दे गया । कहा --- ‘’संरपंच साहब ने भेजा है । और कल तुम्हें पंचायत घर मे बुलाया है ।‘’

          देर रात तक जब विनोद घर पर आया तो जमना क्रोध में थी —‘’जब ठेले से काम चल रहा था तो क्या जरूरत थी केबिन बनवाने की ? अब दो जवाब पंचायत को। अब भरो जुर्माना । ‘’ जमना के स्वर में जोरदार आक्रोश था।

    ‘’ पर जुर्माना किस बात का ?   कोनसा कागज आया है ? मुझे भी तो बताओ ।‘’ विनोद चकराया ।

   ‘’ कागज तो मैं कहीं रखकर भूल गई पर जहाँ आपने केबिन रखी है वह उसी सरकारी जमीन का लगता है । किसी ने हमारी शिकायत की है ।  मैंने उड़ती हुई खबर मेरे कानों में पड़ी थी ।मुझे लगता है वह कागज इसीलिए आया है और इसीलिए सरपंच साहब ने कल पंचायत घर में बुलाया होगा ।

      ‘’देखो मैने तुम्हारी भलाई के लिए ही यह काम किया था। तुम शाम तक बुरी तरह से थक जाती थी । यह गाँव के बीच आम चौराहा है इसलिए बिक्री भी खूब हो रही है ।जो होगा सो देखा जाएगा।

       सुबह जब विनोद उठा तो पलगँ के नीचे एक कागज नजर आया । पता चला तो वह आश्‍चर्य चकित रह गया । जल्दी से उसने जमना को बुलाया —‘’यह नोटिस नही आमत्रंण पत्र है, शहर से आकर तुमने अपने संघर्ष के बलबूते पर स्वावलम्बन  का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है उसके लिए स्वतंत्रता- दिवस पर तुम्हें  पंचायत द्वारा सम्मानित किया जाएगा, साथ ही मुख्‍य चौराहे पर रखी केबिन की जमीन का अनुमति पत्र भी तुम्हारे नाम जारी किया जाएगा ।‘’

          सामने स्वर्णिम सूर्य क्षितिज पर थोड़ा ऊपर तक चढ़ आया था । जमना के चेहरे पर गिरती किरणें उसके  चेहरे के आत्मविश्‍वास  की आभा  में रंग भर रही थी ।

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रविवार, 18 फ़रवरी 2024

पहाड़ आ रहे हैं!- -हूबनाथ

 


पहाड़ आ रहे हैं!

 

पहाड़ आ रहे हैं

सभ्य बनाने की ख़ातिर

शहर लाए जा रहे हैं

 

पहाड़ आ रहे हैं

 

पहाड़ों की खाल खींचकर

छोटी-बड़ी बोटियों में बाँटकर

धरती के जिस्म से काटकर

 

शैतानी ट्रकों ट्रेलरों में

लादकर

विशाल मशीनों में पीसकर

 

ख़ूबसूरत बोरों में भरकर

शहरों में भेजे जा रहे हैं

हरे भरे ख़ूबसूरत पहाड़

 

पहाड़ों की कब्र पर

पहाड़ों के लोग

बिदाई गीत गा रहे हैं

 

पहाड़ आ रहे हैं

 

चमचमाती लंबी सड़कों

उड़ते हुए लहराते पुलों

दैत्याकार भवनों की शक़्ल में

बिछ रहे हैं

ऊँचाई से गिरकर

घिसट रहे हैं

 

जब रात गहराती है

लोहे की गाड़ियाँ

सरसराती गुज़र जाती हैं

 

ठीक उसी वक़्त

हराहराते झरने

लहलहाते दरख़्त

चहचहाते पंछी

सरसराती घासें

 

पहाड़ों की साँसों से

निकलकर

आसमान पर छा जाते हैं

 

सारी कायनात सो रही है

पहाड़ों को पहाड़

याद आ रहे हैं

 

जिनके पेट भरे हैं

वे विकास के गीत गा रहे हैं

 

पूरी तरह सभ्य होने

पहाड़ शहर आ रहे हैं

पुस्तक संस्कृति, समाज और सार्वजनिक पुस्तकालय - विवेक कुमार मिश्र

पुस्तक संस्कृति, समाज और सार्वजनिक पुस्तकालय

- विवेक कुमार मिश्र

 

पुस्तक संस्कृति की जब बात करते हैं तो साफ है कि हमारा भाव पुस्तकों के प्रति आत्मीय संवाद से है । पुस्तकों को जब जीवन का , कार्य व्यवहार का , अपनी गति व सोच का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं तो हमारे पास पुस्तक के साथ प्रेम करने का विकल्प और भाव होता है । पुस्तकों से किसी एक व्यक्ति का लगाव या जुड़ाव होना पुस्तक संस्कृत नहीं है । कोई एक व्यक्ति ऐसा मिल सकता है जिसका घर पुस्तकों से भरा हो , कोई एक व्यक्ति ऐसा मिल सकता है जो नई से नई पुस्तक और पत्र पत्रिकाएं खरीदता रहता हो , कोई ऐसा व्यक्ति मिल सकता है जिसका ड्राइविंग रूम पुस्तकों से सजा हो , यह एक दो उदाहरण पुस्तक संस्कृत के प्रतीक या उदाहरण नहीं हो सकते । जब पुस्तक संस्कृत की बात की जाती है तो यह देखा जाना जरूरी है कि हमारे जीवन में किस गहराई से पुस्तकों  के लिए  जगह है । पुस्तक किस तरह हमारे जीवन से जुड़ी है और जीवन के प्रत्येक पक्ष में कहां तक पुस्तकों का साथ है । इसे तभी समझा और जाना जा सकता है जब हम इस बात को इस भाव को समाज में व्यापक रूप से होते हुए देखते हैं । पुस्तक संस्कृति है इस बात का प्रमाण है कि हम अपने रीति रिवाज को मनाते समय कितनी जगह पुस्तकों को देते हैं । हमारे यहां महंगी से महंगी शादियां होती हैं किसी भी अवसर पर पटाखे में अनाप-शनाप खर्च कर देते हैं । बाजार से लौटते हुए थैली भरे पैकेट इस तरह भरे होते हैं कि आदमी को चला नहीं जाता पर इन स्थलों को उलट पलट कर देख लीजिए एक पन्ना भी नहीं मिलेगा । एक पत्रिका नहीं मिलेगी एक किताब भी नहीं मिलेगी तो कहां से पुस्तक संस्कृति आएगी पुस्तक संस्कृति को बनाने के लिए हमें अपने विचार में , अपने मन में इतनी जगह बनानी होगी की विभिन्न अवसरों के लिए हमारे पास पुस्तक हों । हम अपने आसपास के समाज में पुस्तक के लिए वातावरण निर्माण कर सकें । कम से कम जन्मतिथि , वैवाहिक वर्षगांठ पर अपने परिचितों को एक अच्छी पुस्तक भेंट कर सकें । रिटायरमेंट या अन्य जो भी अवसर आसपास आते हैं तो उसमें आपकी उपस्थिति एक पुस्तक प्रेमी और पुस्तक संस्कृति के संवाहक के रूप में होती है तो समाज में बड़ा मैसेज जाएगा । हमें पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए आसपास के उन दुकानों के बारे में पता करना चाहिए जहां पुस्तकें होती हैं । वहां पुस्तक क्रय  करने के लिए होती है । यदि आप पुस्तक क्रय करते हैं तो उससे दुकानदार का भी हौसला बढ़ता है और वह आपको नई पत्रिकाएं नई पुस्तक दिखता है उनके बारे में बताता है । चलिए आजकल अमेजॉन फ्लिपकार्ट और ऐसे ही अनगिनत ऑनलाइन प्लेटफॉर्म आ गए हैं जहां से पुस्तक आसानी से मंगा सकते हैं । यह आपको तय करना होगा कि हर साल कुछ अच्छी पुस्तक खरीद कर पढ़ें । गोष्ठियों आदि में दी गई पुस्तक , पुस्तक संस्कृति का बढ़ावा नहीं करती बल्कि पुस्तकों के प्रति एक विपरीत माहौल भी बनाती है । बहुत सारे लोग उन पुस्तकों को ले जाकर रख देते हैं । पुस्तक को पढ़ना आवश्यक है । जो चर्चित है जो महत्वपूर्ण है वहां यह देखना भी जरूरी है कि ऐसा क्या है उस पुस्तक में जो लोग उस पुस्तक को पढ़ने के लिए इतना भाग रहे हैं । जब आप पुस्तक पढ़ते हैं तो विचार के साथ पुस्तक के साथ और उस दुनिया के साथ चलते हैं जो सामाजिकता की वह दुनिया होती है जिसे लेखक द्वारा दिया गया होता है । लेखक के संसार को जीना फिर उसे संसार में जाना और उसके लिए कुछ नया लेकर आना ही पुस्तक संस्कृत का निर्माण करता है । जहां तक पुस्तक संस्कृति के साथ समाज की बात है तो कोई भी मूल्यवान संदर्भ तब तक मूल्यवान नहीं बनता जब तक उसमें समाज शामिल न हो । जब आप अपने ज्ञान को अपनी पढ़ी गई दुनिया को औरों के साथ जोड़ते हैं औरों से संवाद करते हैं तो सच मानिए आप पुस्तक संस्कृति का निर्माण कर रहे होते हैं । पुस्तकें समाज में आकर उल्लसित होती है और खिलती व खिलखिलाती हैं । जब पुस्तकें सामाजिक होती हैं पूरे समाज में लोकार्पित होती हैं तो पुस्तकों के साथ समाज की एक अलग मानसिकता होती है । आप अकेले पुस्तक का लोकार्पण कर लें , अकेले में पढ़ लें तो पुस्तक की सामाजिकता के लिए आप कुछ नहीं कर रहे हैं । इसलिए जरूरी है की पुस्तकों की सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए भी कुछ न कुछ करते रहना चाहिए । समाज में अन्य पर्वों की तरफ पुस्तक पर्व के लिए भी अवसर व समय होना चाहिए । यदि पुस्तकें  समाज में अपनी जगह बनाती हैं तो और लोगों के जीवन का आधार भी बनती हैं और लोगों के जीवन जीने का जरिया भी । जब प्रेमचंद भोला महतो के घर का शब्द चित्र खींचते हैं तो लिखते हैं कि उनके बरामदे में एक ताखे पर लाल कपड़े में लिपटी रामायण थी ।  रामचरितमानस थी तो यहां सामाजिक पुस्तक प्रेम का जिक्र कर रहे होते हैं । रामचरितमानस के दोहे चौपाई लोगों की जुबान पर ऐसे थे कि उनकी कोई भी बातचीत चौपाइयों के बिना पूरी नहीं होती थी । यही हाल भक्ति काल के अन्य कवियों अन्य संतों और लेखकों का था । वे लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलते रहते थे । लोग बात पर कबीर रहीम मीरा के पद कोड करते थे । यह पुस्तक संस्कृति का सामाजिक पक्ष था कि लोग अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए संतो भक्तों की पंक्तियां इस्तेमाल करते थे । आज जब लोग बातचीत करते हैं तो इधर-उधर बंगले झांकते हैं या फिल्मी गाशिप करने लग जाते हैं या जोक सुनाते हैं । जो अंततः उनके  व्यक्तित्व को कमजोर करने का काम करती हैं । सार्वजनिक पुस्तकालय की जहां तक बात कर है तो वह आपको पुस्तकों के एक अपरिमित संसार में ले जाने की जगह होती है । यहां आप एक साथ असंख्य पुस्तकों को पाते हैं । अपने समय और समकाल को पाते हैं तो पीछे जो पुस्तकों की दुनिया रही है वह सब कुछ यहां उपलब्ध होता है । एक पुस्तकालय स्कूल कॉलेज विश्वविद्यालय में होता है जहां विषय सामग्री की सब्जेक्ट को केंद्र में रखकर पुस्तक होती हैं पर जहां तक सार्वजनिक पुस्तकालयों की बात होती है तो वह आम आदमी की मनो रूचियों को ध्यान में रखकर होती है इस पुस्तकालय में जो लोग होते हैं जो पढ़ने आते हैं उनकी रुचियां को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा पुस्तक मंगाई जाती हैं जहां तक सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय की बात है तो यह एक विशेष संदर्भ और अभिरुचि से जुड़ा ऐसा पुस्तकालय है जिसे मंडल पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा विशेष स्नेह से सींचा गया है उनकी रुचि और पुस्तक प्रेमियों के साथ इनका सौजन्य सौहार्द और पुस्तकालय को जन-जन के बीच ले जाने की उनकी पहल ही इस पुस्तकालय को न केवल हाडोती में बल्कि राजस्थान और देश के कुछ विशिष्ट सार्वजनिक पुस्तकालयों में जगह दिलाने का काम करती है । आम आदमी के बीच पुस्तकों के प्रति प्रेम बढ़े इसकी उज्जवल घोषणा ही सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय कोटा को विशिष्ट बनाती है । सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय की उपस्थिति सामाजिक पुस्तक प्रेमी को तैयार करने में है । यहां आप सब एक अभिरुचि से आते हैं और आपकी अभिरुचि को तैयार करने का काम पुस्तक प्रेमी पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा की जाती है । वह अपने पाठकों की जरूरत अभिरुचियों को ध्यान में रखकर पुस्तक संसार का एक ऐसा कोना तैयार  करते हैं जहां आकर आपको लगेगा कि हां यहां सुकून है । यही तो मैं खोज रहा था । एक खुला मन एक साथी का भाव ही कि हां सब हो जाएगा । सब उपलब्ध हो जाएगा । इस तरह किताबों का एक बड़ा संसार यहां सामाजिक केंद्र बनकर आता है । पुस्तक यहां संवाद और साक्षात्कार करती हैं । साथ में केंद्र में होते हैं पुस्तकालय अध्यक्ष । इस तरह पाठकों पुस्तकालय और समाज के बीच एक व्यापक सेतु बन जाता है । इस पर चलना आवश्यक लगता है । पुस्तकें पहचान और व्यक्तित्व को पुख्ता बनाने का काम करती हैं । पुस्तक पढ़ते-पढ़ते आप एक संसार में , एक समाज में न केवल जाते हैं अपितु एक जीवन संसार को जीते हुए अपने बहुत करीब महसूस करते हैं । अपने संसार को नजदीक से देखते हैं । यह आकर जो सांसारिक होते हैं उसमें शब्द से संसार से एक अमरता की सत्ता भी जुड़ जाती है और जो यहां होता है वह अमर होता है । उसके विचार बोलते हैं । उसकी वाणी लोगों के भीतर जीवित हो अमर गान बन जाती है । इस तरह पुस्तक संस्कृति समाज और पुस्तकालय एक सांस्कृतिक सत्ता को निर्मित करने का मंच है । यहां से आप संसार के मन मस्तिष्क पर राज करने का काम करते हैं ।

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एफ -9 , समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...