मंगलवार, 16 जनवरी 2024

कविताएँ- 1-मिट्टी का चूल्हा 2-अभी 3-सह-अनुभूति - सुश्री कमलेश कुमारी


1-मिट्टी का चूल्हा

 

प्रवासी लौट जाते हैं, प्रवासी पक्षियों की भाँति;

प्रवास के नि:शेष चिह्नों में छूट जाता है,

लिपा-पुता मिट्टी का चूल्हा ...

 अपने आस-पास बैठकर

रोटी खाते लोगों के तृप्त-दीप्त चेहरे,

आधी रोटी हाथ में लिए, बच्चों की किलकारियाँ

रोटी सेकने वाली के हृदय की ऊष्मा, कंगन की खनक;

मानो, सब याद करता हुआ...

धीरे-धीरे होना चाहता है ठंडा!

 घर उजड़ जाते हैं, लोग उजड़ जाते हैं

छूट जाते हैं कच्चे आँगन, पेड़,

पशुओं की खोर में छूटा चारा,

उखड़े खूँटे, सूनी खूँटियाँ…

कुछ दिन शोक मनाती हैं नल से टपकती बूंदें,

सूख जाता है कुंआ!

किंतु...

अपने सीने में धधकती आग लिए,

लंबे समय तक कान लगाए रहता है,

 सूनी ड्योढ़ी पर पदचापों की प्रतीक्षा में ...

मिट्टी का चूल्हा, अपने मिट्टी होने तक!

 2-अभी

 सर्वत्र, संभाषण में सीधी बात नहीं कह सकी स्त्री;

हृदय की उठती हूक-सी कविताएँ देंगी वाणी ‘विमर्श’ को...

अभी शेष है विमर्श, नि:शेष रहेगी कविता

कविता की प्रकृति है स्त्री, स्त्री की प्रकृति है कविता।

 परजीवी मान्यताओं, कलुषित कुप्रथाओं के

ताबूत में नहीं ठोक सकी वह आखिरी कील,

ताकि बना कर उसकी नाव, पार कर जाए हर धारा;

और जीवन के सब घाटों पर रहे उपस्थित उत्सव-सी!

 बनानी होंगी उसे कविता लिखे कागज़ों की नौकाएं

बैठा कर उनमें अपने सपने, तैराना होगा दसों दिशाओं में...

भले ही गल जाए, घुल जाए कागज़ की नाव

उठती-गिरती लहरों में;

किंतु रहेगी शाश्वत गूँज अक्षरों की

 गुंजित होंगे अक्षर-जल से धारे और किनारे

लौटेगी ‘अनुगूँज’ उस किनारे तक भी,

 जिस पर करती है ‘वह’ दीर्घकाल से प्रतीक्षा,

सपनों के मस्तक पर करने सूरज का अभिषेक।

 

3-सह-अनुभूति

हृदय में गड़ा रहता है दुःख फांस-सा

और पीड़ा की अनुभूति से बिंध जाते,

जीवन के सब कोमल अंग !

 किसी संवेदना की सुई

नहीं निकाल सकती इसे जड़ से,

संपूर्ण हृदय ही उखड़ता ऐसे अभ्यास में...

फिर संवादों की नोक से कुरेदना

क्या रहता है श्रेयस्कर?

 जाने किस ग्रंथिवश,

वे तो निकाल लेना चाहते हृदय ही

ओह... कितनी पीड़ा

 कदाचित वहीं कोई सह-अनुभूति का साधक

करता है स्पर्श वेदना का अपनी आत्मा से”

 वह रोक लेता आँसुओं को भी,

 गिरने से इसकी जड़ में;

कि कहीं किसी

सूखे हुए रुधिर-कोंपल का रंग

हो जाए न हरा!

 


 

खरीदारी-  चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'


 

खरीदारी

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आया हूं बाजार में

खरीदारी करने

मुझे कुछ चीजें खरीदनी हैं।

एक केजी सुख

आधा केजी शांति

सौ ग्राम चैन

और एक मीटर संतुष्टि चाहिए।

इस यौवन का क्या भाव है?

हां, हां, तुम्हारी भाषा में जवानी

दे दो एक लीटर

और एक लीटर सौंदर्य भी।

दया, माया, ईमानदारी, सच्चाई

आदि समस्त छोटी-छोटी मानवीय चीजों को

एक साथ मिलाकर

एक किलो दे दो

छोटे-छोटे सौ पैकेट चाहिए

अच्छे विचारों के

और हां

एक बोतल प्रेम भी चाहिए मुझे।

हे दुकानदार !

पैसा खत्म है मेरा

पर एक चीज छूट गई

फ्री में

गिफ्ट के रूप में दोगे--

एक टुकड़ा जीवन?

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हमारा संसार वहीं है जिसे हम जीते हैं - विवेक कुमार मिश्र


 

हमारा संसार वहीं है जिसे हम जीते हैं

- विवेक कुमार मिश्र

 

कितनी ही बातें , कितनी ही धारणाएं बनती बिगड़ती रहती हैं । किसी एक रूप या एक धारणा से जीवन का संवाद नहीं होता न ही कोई एक रूप जीवन को संभालता है । हर समय परिवर्तन की एक लहर सामने आती है । आदमी है कि लहरों पर सवार होकर चल रहा होता है । कब कौन सी लहर कहां लें जायेगी यह किसी को भी पता नहीं होता । लहरों पर चलना एक तरह से जिंदगी को जीना है । लहरें हैं कि अपने साथ उठा लें जाती हैं... कहती हैं कि यह है जिंदगी .... कहां भटक रहे हों ? ऐसे कब तक भटकते रहेंगे ?  जीने के लिए लहरों के साथ, लहरों पर सवार होकर चलना ही पड़ता है । जो समझदार होते वो लहरों के सहारे चल देते । संसार को अपने ही अंदाज में देखने के लिए । संसार आंखों के सामने होता है । हम कैसे उस संसार को अपने ढ़ंग से लें यह जानना जरूरी होता है । हमारा संसार वहीं है जिसे हम जीते हैं । वर्तमान को छोड़कर कल्पित भविष्य के भरोसे हम जीवन नहीं जी सकते न ही जीवन का किनारा हमसे इतना दूर होता कि उसके बारे में हम कुछ सोच न सकें । हमें बराबर से संसार के बारे में सचेत ढ़ंग से सोचते हुए चलना होता है । अपना संसार बनाना पड़ता है । जो संसार हमने बनाया है जो गढ़ा है उसे जीने का आनंद ही अलग होता ।

संसार में आपकी उपस्थिति तभी होती है जब आप संसार के साथ समायोजन करते हैं । संसार को इस तरह लेते हैं कि आप इसी संसार में हैं और संसार की हर गतिविधि में आपकी कोई न कोई भूमिका है । संसार से अलग थलग होते हुए आप कुछ नहीं कर सकते । कम से कम ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिसका उल्लेख किया जा सके । यह सब संभव तब होता है जब आप अपने साथ अधिक से अधिक लोगों को लेकर चलते हैं । केवल अपनी चलाने की कोशिश नहीं करते अन्य के हिसाब से भी चलने के लिए तैयार होते हैं । अधिक से अधिक लोगों को सुनते हुए जब चलते हैं तो कोई भी समस्या केवल आपकी नहीं होती उसे सब हल करने के लिए आगे आते हैं । यह सब संभव तब होता है जब आप अपनी दुनिया को अपने से आगे रख समाज की सुनते हुए चलने की कोशिश करते हैं तो समाज सहज रूप से आपके साथ चल पड़ता है ।

संसार में पड़े रहने का कोई अर्थ नहीं होता । संसार में आपकी उपस्थिति दर्ज होनी चाहिए । यदि आपकी उपस्थिति है तब तो संसार में होने का कोई अर्थ है और आप अर्थ पूर्ण जिंदगी जी रहे हैं ।

आदमी की जिंदगी उसके अर्थ में होती है । जिंदगी को मूल्य के साथ जीना , किसी सिद्धांत को लेकर चलना और सिद्धांत के लिए जीना ही सही मायने में जीवन को एक व्यवस्था व अर्थ देना होता है । जब हम सब अपने सिद्धांत को लेकर जीते हैं तो स्वाभाविक सी बात है कि हम सामाजिक जीवन और मर्यादा की जिंदगी को जीते हैं ।‌ मनुष्य मात्र के लिए जीवन नियमों की एक दुनिया है । जिसमें वह अकेले नहीं होता उसके साथ उसकी पूरी दुनिया होती है । आदमी जो जीवन जीता है उसमें विविध रूप समय समय पर अपने आकार लेते रहते हैं । यह रूप संसार ही दुनिया है जिसमें हम सब जीवन जीते हैं । जीवन क्रम पर चलना एक तरह से संसार को समझने के लिए आगे आना है । संसार की हर गतिविधि में हम सब होते हैं । कोई अकेले कुछ नहीं कर रहा होता है सबको साथ लेकर चलने पर ही हम सब संसार में आते हैं । हम किसी एक स्थापत्य में , एक ही संरचना में नहीं होते न ही एक संसार हमारे पास होता । एक समय में एक संसार से संवाद करते-करते अन्य संसार से भी संवाद करते चलते हैं । यह संसार संसारी राज के बीच रह रहे लोगों की दुनिया से संवाद करने का प्रमाण है । संवाद कभी भी एकरूपता से नहीं होता । संवाद की प्रकृति ही विविधता में है । विविधता से साक्षात्कार करते हुए हम संवादी होते हैं । संसार के रंग में संवाद अर्थ ग्रहण की भी दुनिया है । कोई भी अर्थ एक रूप नहीं होता । हर आदमी अपने संसारी स्वभाव से संसारी हिसाब किताब से अर्थ ग्रहण करता है । एक ही तत्व अलग-अलग सामाजिक सांसारिक स्थितियों में संसार का अलग-अलग अर्थ करता है । इसलिए किसी एक स्वरूप किसी एक रूप को लेकर चलने वाले लोग अपनी यात्रा में अकेले पड़ जाते हैं । अपने संवाद में एक सीमित संसार से ही संवादी हो पाते हैं । संवाद की विविधता ही हमें संसार से जोड़ती है । संसार से जुड़ने के लिए किसी एक रूप में ही नहीं चला जा सकता है । संसार से , संसार के विविध रूप से जुड़ने के लिए उस संसार को करीब से जानना समझना होता है । एक संसार इतना भर नहीं होता कि उसे देखें और चलता बने । संसार तभी आपके लिए संसार हो पाता है जब उस संसार को जीते हैं । उससे जुड़ते हैं और अपना संवाद स्थापित कर अपनी उपस्थिति को उस संसार से जोड़ते हुए आगे बढ़ते हैं ।

 जबकि अन्य संसार से संसार भर से रिश्ता रखते हुए संवादी होते हुए अपने लिए एक व्यापक दुनिया बनाते हुए संवादी व्यक्तित्व का आदमी बड़ा संसार बनाता है । इस क्रम में उसका व्यक्तित्व भी बड़ा बनता है । सर्व स्वीकारी होना , सबको अपने साथ लेकर चलने की कोशिश करना और अपने व्यक्तित्व का सामाजिक संसार में स्थापित करते हुए चलना ही सही मायने में व्यक्ति के व्यक्तित्व रूप से रूपांतरित होने की कहानी होती है ।  व्यक्ति अपने संसार से कितना संवाद कर पाता है यह तभी संभव हो पाता है जब वह अपने अंह को किनारे पर छोड़कर जाता है । किसी से भी संवाद करने के लिए उसके पास कुछ दूर तक, कुछ देर तक चलना पड़ता है तब जाकर उस व्यक्ति से जुड़ पाते हैं । यदि आप अपने अंह के शिकार हो गए तो किसी से भी संवाद नहीं कर सकते ऐसे लोग जो अंह के पुतले होते हैं वे खुद से साक्षात्कार नहीं कर पाते । फिर संसार और समाज से क्या संवाद करेंगे । समाज से संवाद करने के लिए सहज और सामाजिक प्राणी होना पड़ता है। तब जाकर आप स्वयं से और समाज से संवाद कर पाते हैं । यह संभावना व्यक्ति मात्र में होती है पर व्यक्ति का अहम् उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बाधा होती है । अहम् आपको पुतला बना देता है । एक रूप में एक जगह पर बस पड़े रहे । आपकी उपस्थिति होने का कोई मायने नहीं। और आपके जीवन की जीवंतता से गायब हो जाती है । ऐसे में आप ना तो स्वयं को ठीक से जान पाते हैं ना अन्य को जान समझ पाते । बस अपनी जगह पर पड़े पड़े पैर पटकते रहते हैं । और सोचते हैं कि मैंने तो पूरी दुनिया की परिक्रमा कर ली । हो सकता है अपनी जगह पर पैर पटकते पटकते दुनिया भर चलने की ऊर्जा को व्यर्थ में गंवा दिया । इससे कुछ नहीं होता क्योंकि ना तो आप अपने लिए एक कदम चले न दूसरों के लिए दो कदम चले । बस अपने अंह के साथ दांत किटकिटकिटाते  रहे । कुछ भी होने वाला नहीं है । जो संवादी और व्यक्तित्व के प्रति आग्रही होते हैं व्यक्तित्व को जीते हैं वह अपने भीतर होते हुए भी हर समय अपनी उपस्थिति अपने समय और समाज से संवाद करते हैं । आदमी की दुनिया में सहज होकर जाते हैं । बाजार , मेले , चौराहे उनकी पसंदीदा जगह होती है । बाजार मेले से संवाद करते हुए हम संसार को जीते हैं । संसार जहां कोई भी अकेले नहीं होता सब एक दूसरे के साथ जीवन की गति को अर्थ देते हैं । एक दूसरे के लिए जीते हैं । यहां सारा संवाद ही जीवन के केंद्र से होता है । यहां से इस तरह के लोग संवाद करते हुए न केवल सहज होकर जीवन जीते हैं बल्कि संसार की समस्याओं के बीच अपने ढंग से समाधान खोजते हैं और अपनी उपस्थिति को सार्थक बनाते हैं ।

हास्य व्यंग्य - चमचा की चमचई ... व्यंग्यकार जयचन्द प्रजापति 'जय' प्रयागराज


 

हास्य व्यंग्य

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चमचा की चमचई

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व्यंग्यकार जयचन्द प्रजापति 'जय'

प्रयागराज

 

हम लेखकीय करते हैं। एक दिन हम जा रहे थे पैदल ही तो रास्ते मे सफेद कुर्ता पायजामा में एक चमचा मिल गया। हमसे बोला कि हम राष्ट्रीय टाइप के चमचा हैं। हम कुछ सहयोग के उद्देश्य से सुबह सुबह मिलने चल दिए आप से। हम चमचा देखा।ऊपर नीचे तक देखा। भारी भरकम शरीर।गोरा टाइप का।बाल में डाई लगा रखा था। स्माइल गजब की रही।

 

तो बताओ चमचा भाई क्या मदद कर सकता हूं। हमको कसाई कि तरह उपर नीचे तक देखा।बोला..तो आप कवि लेखक हैं। हमने कहा कोई दिक्कत है क्या चमचा बाबू। नही दिक्कत नही है। किस पार्टी से हैं। हम किसी पार्टी से नही हैं। हम तो सरक लेते हैं कोई मोटा रकम दिया। आप मोटे रकम वाले हैं। हां भाई कोई शक नहीं।

 

हमारी पार्टी की तरफ हो जाओ। पार्टी पर कुछ लेख कविता तारीफ में लिखना है। मालामाल कर दूंगा। चार पीढ़ियां तक मौज करेगी। हमने बात मान ली। चमचा बोला कुछ आओ समोसा चाय हो जाय। हमने कहा ..चमचा भाई। ऊ होटल ठीक रहेगा। हां चलो दबा दबा कर खालो कवि जी।मालामाल कर दूंगा। हम थोड़ा लालची टाइप के। जी हमार खुश हो गया।हमने मन ही मन सोचा। फंस गया चमचा बेचारा।

 

हम दोनो महंगे होटल में गए।खूब दबा दबा कर एक एक आइटम खाए ।पेट पर हाथ फेरे।सब सामान हम मंगा रहे थे। पैसा चमचा बाबू देगा। पांच हजार का बिल बन गया।चमचा बोला कवि जी बैठे रहिए। पैसा कम है। एटीएम से निकाल कर आते हैं।एक लाख तक आपको एडवांस दे देते हैं। हमने कहा जाओ भाई जल्दी करो।

 

हम सपने बनाने लगे। एक लाख। बड़ा फायदा है लेखकी में। मजा आ जायेगा। एक लाख एडवांस।ऊपर से जमकर खिलाया पिलाया।मजा आ गया। होटल वाला बोला... बाबूजी पैसा जल्दी से जमा कर दो। एक  घण्टे हो गए। पैसा आ रहा है सब मिल जायेगा। धीरज रखो। दो घंटे बीत गए। तीन घंटे बीत गए। इसी तरह शाम हो गई। पर चमचा दिखा नही। मैं समझ गया चमचा हमसे चमचई कर गया। हाय हमारा एक लाख। हम लूट गए। बर्बाद हो गए।

 

सब स्टाफ आ गए होटल के। पैसा जमा करो बाबू। बेवकूफ बना रहे हो हमे। पैसा नही जमा करोगे तो एक माह तक होटल में बर्तन मांजना पड़ेगा। मेरे तो पैरो तले जमीन खिसक गई। वीआईपी होटल में आज बर्तन मांज रहा हूं। उस चमचा के कारण एक माह तक मांजना है। अच्छा हुआ चमचा का नेता नही आया नही तो पांच साल तक बर्तन मांजना पड़ता अगले चुनाव तक।

 

सोमवार, 15 जनवरी 2024

मुनव्वर राना ने भी माना था टोंक की शायरी का लौहा - एम.असलम| टोंक


 

मुनव्वर राना ने भी माना था टोंक की शायरी का लौहा

 

एम.असलम| टोंक

 

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती, बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती..। हां, ये उसी अज़ीम शायर मुनव्वर राना का अशआर है, जो आज बरबस ही लोगों की ज़बां पर आ गया। 26 नवंबर 1952 में पैदा हुए मुनव्वर राना 14 जनवरी की देर रात इस दुनिया से रुख़सत हो गए। जिसने तवायफ के कोठे से ग़ज़ल को घसीट कर मां के तलवे तक पहुंचाया। आज वो भले ही इस दुनिया में नहीे रहे है, लेकिन मां को लेकर की गई उनकी शायरी सदियों अदब से पढी जाएगी। रियासत कालीन टोंक महोत्सव में 15 नवंबर 2015 को मुनव्वर राना टोंक आए थे। उन्होंने इस मौक़े पर विश्व विख्यात अरबी-फारसी शोध संस्थान में अपना कलाम पेश किया। इस मौक़े पर उन्होंने कहा था कि मेरे बच्चों के लिए सआदत की बात होगी कि उनके पापा ने टोंक में ग़ज़ल सुनाई। मुनव्वर राना की टोंक के प्रति इस टिप्पणी से पता चलता है कि टोंक का शायरी में क्या मुकाम रहा हैं। गौरतलब है कि टोंक में अख़्तर शीरानी, मुश्ताक़ अहमद यूसुफी, बिस्मिल सईदी, मख़्मूर सईदी, जगन्नाथ शाद, उत्तमचंद चंदन जैसे कई बा -कमाल शायरों की सरज़मीं रही है। बहरहाल उन्होंने टोंक में करीब एक घंटे तक अपना कलाम पेश किया था। जहां उस समय अपने एक बयान से अपनी मां के खफा होने की बात कहते हुए उन्होंने मां एवं बाप का सम्मान करने का अपनी शायरी के मध्यम से इस तरह पैगाम दिया।

 

हम को दुनिया ने बसा रखा है दिल में अपने,

हम किसी भी हाल में बेघर नहीं होने वाले।

और कुछ रोज यूही बोझ उठा लो बेटे,

चल दिए हम तो फिर मय्यसर नहीं होने वाले।

 

मुनव्वर राना ने अपनी कामयाबी का राज़ बताते हुए कहा कि आज में जो भी हूं वो मां की बदौलत हूं। मैंने मां को टूटकर चाहा। यहीं मेरी कामयाबी है, मेरा कोई कमाल नहीं है।

 

चलती फिरती आंखों से अजां देखी है,

मैंने जन्नत तो नहीं देखी मां देखी है।

 

मुशायरें में उन्होंने देश की महत्ता एवं मुहाजिरों की पीड़ा को इस तरह बयान कर खूब दाद पाई थी।

 

मुहाजिर है मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,

तुम्हारे पास जितना है उतना छोड़ आए हैं।

भतीजी अब सलीके से रूपट्टा औढती होगी,

वहीं, झुले में जिसको हुमकता छोड़ आए हैं।

 

मुशायरे में उन्होंने बेटी की महत्ता एवं हालातों को इस तरह प्रतिपादित किया-

 

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बांधेगा,

अगर बहने नहीं होंगी तो राखी कौन बांधेगा।

ये बाजारे सियासत है यहां खुदारियां कैसी,

सभी के हाथ में कासा है मुट्टी कौन बांधेगा।

 

उल्लेखनीय है कि शायर मुनव्वर राना का दिल का दौरा पड़ने की वजह से 14 जनवरी देर रात इंतेक़ाल हो गया। उन्होंने 71 साल की उम्र में लखनऊ में अंतिम सांस ली। उन्हें लंबे समय से किडनी की बीमारी थी। वे मां पर लिखी गईं अपनी शायरी की वजह से खूब लोकप्रिय रहे। शान-ए-बनास भाग दो पुस्तक में भी राना के बारे में रोशनी डाली गई है।

 

इतना सांसों की रफाकत पे भरोसा न करो

सब के सब मिट्टी के अम्बार में खो जाते हैं ।

 

मां पर लिखी उनकी शायरी -

 

मामूली एक कलम से कहां तक घसीट लाए,

हम इस ग़ज़ल को कोठे से मां तक घसीट लाए।

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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।

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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई

मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।

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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

मां बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है।

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दावर-ए-हश्र तुझे मेरी इबादत की कसम

ये मेरा नाम-ए-आमाल इज़ाफी होगा

नेकियां गिनने की नौबत ही नहीं आएगी

मैंने जो मां पर लिखा है, वही काफी होगा।

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26नवंबर 1952में मुनव्वर राना रायबरेली में पैदा हुए थे। उनका बचपन कोलकाता में गुजरा। उनकी जिंदगी विभाजन के कारण काफी, उतार-चढ़ाव भरी रही। बताया जाता है कि मुनव्वर को कोलकाता के बाद लखनऊ शहर पसंद आया। यहीं उनकी मुलाकात शायर वली असी से हुई।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ,

माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर ने पहली बार दिल्ली के एक मुशायरे में अपनी नज़्मों को पेश किया।

1993 में रईस अमरोहवी और 1995 में दिलकुश पुरस्कार से सम्मानित किया गया, 1997 में सलीम जाफ़री पुरस्कार और 2004 में सरस्वती समाज पुरस्कार, 2005 में ग़ालिब, उदयपुर पुरस्कार और 2006 में उन्हें कविता के कबीर सम्मान उपाधि, इंदौर में प्रदान की गई। 2011 में पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी द्वारा मौलाना अब्दुल रजाक मलिहाबादी पुरस्कार से नवाजा गया। 2014 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उर्दू साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भविष्य में सरकारी पुरस्कार नहीं लेने का ऐलान किया। बैटी के लिए वो लिखते हैं -

घरों में यूं सयानी बेटियां बेचैन रहती हैं

कि जैसे साहिलों पर कश्तियां बेचैन रहती हैं

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है

कहीं भी शाख़े—गुल देखे तो झूला डाल देती है

ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया

उड़ गईं आंगन से चिड़ियां घर अकेला हो गया।

आज जब वो दुनिया से रुखसत हो गए। अल्लाह उनकी मगफिरत फरमाएं -आमीन

‘इलाहाबाद के मुक्तिबोध हैं कवि अजामिल - जयचन्द प्रजापति 'जय' प्रयागराज

 इलाहाबाद के मुक्तिबोध हैं कवि अजामिल

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 जयचन्द प्रजापति 'जय' प्रयागराज

    साहित्य के क्षेत्र मे एक ऐसा नाम एक ऐसी पहचान जिसने साहित्य में नाम कमाया वो हैं अजामिल साहब। इलाहाबाद की एक ऐसी शख्सियत के रूप में सबसे वरिष्ठ साहित्यकार अजामिल जी शुद्ध इलाहाबादी हैं। आजादी के एक दिन बाद स्व.बसंत नारायण व्यास के घर आर्यरत्न व्यास का जन्म हुआ आगे चलकर अजामिल के नाम से पूरे हिंदी साहित्य में विख्यात हो गए। मुक्तिबोध की रचनाओं से प्रभावित होकर एक से एक रचनाएं दी कवि अजामिल।

हिंदी के प्रति इनके ह्रदय में साहित्य का अंकुर बचपन से ही फूटने लगा। हिंदी में विशेष रूचि के कारण हिंदी से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए.डिग्री हासिल की। इसके बाद चल पड़ी इनकी कलम। यह कलम रुकी नहीं अभी भी साहित्य के ये पारखी अजामिल अब भी साहित्य की अनवरत सेवा में संलिप्त हैं। इस अवस्था में भी इतनी सक्रियता है। उर्जा से लबरेज हैं। आजकल फेसबुक पर दिन प्रतिदिन के नाम से पोस्टर पर रचनाकारों की रचना उकेरते रहते हैं।

इनकी रचना आम लोगो से जुड़ी हुई होती हैं।आम लोगो की बातें होती हैं। कविताएं तथा कहानियां इनकी देश की समस्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में छपती रही। एक से एक श्रेष्ठ रचनाएं दी। लोग वाह वाह कर उठे। इनकी रचनाये गहराई तथा सादगी से भरी होती हैं। सादगी भरा जीवन भी जीते हैं। यही इनकी असल हकीकत है। कोई दिखावटीपन नहीं जो उनके साथ रहे हैं वे उनकी भावों को महसूस किए हैं। उनकी एक रचना=

औरते जहां भी हैं

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दरवाजे खोलो

और दूर तक देखो खुली हवा में

मर्दों की इस तानाशाह दुनिया में

औरतें जहाँ भी हैं - जैसी भी हैं

पूरी शिद्दत के साथ मौजूद हैं - वे हमारे बीच

अंधेरे में रोशनी की तरह

औरतं हँसती हैं - खिखिलाती हैं औरतें

खुशियाँ बरसती हैं सब तरफ

छोटे-छोटे उत्सव बन जाती हैं औरतें

औरतें रोती हैं - सिसक-सिसककर जब कभी

अज्ञात दारूण दुःख में भीग ताजी है यह धरती

औरतें हमारा सुख हैं

औरतें हमारा दुःख हैं

हमारे सुख-दुःख की गहरी अनुभूति हैं ये औरतें

जड़ से फल तक - डाल से छाल तक

वृक्षों-सी परमार्थ में लगी हैं - ये औरतें

युगों से कूटी-पीसी-छीली-सुखायी और सहेजी जा रही हैं औरतें

असाध्य रोगों की दवाओं की तरह

सौ-सौ खटरागों में खटती हुई

रसोईघरों की हदों में

औरतें गमगमाती हैं - मीट-मसालों की तरह

सिलबट्टों पर खुशी-खुशी पोदीना-प्याज की तरह

पिस जाती हैं औरतें

चूल्हे पर रोटी होती हैं औरतें

यह क्या कम बड़ी बात है

लाखों करोड़ों की भूख-प्यास हैं औरतें

पृथ्वी-सी बिछी हैं औरतें

आकाश-सी तनी हैं औरतें

जरूरी चिट्ठियों की तरह

रोज पढ़ी जाती हैं औरतें

तार में पिरो कर टांग दी जाती हैं औरतें

वक्त-जरूरत इस तरह

बहुत काम आती हैं औरतें

शोर होता है जब

औरतें चुपचाप सहती हैं ताप को

औरतें चिल्लाती हैं जब कभी

बहुत कुछ कहतीं हैं आपको

औरतों के समझने के लिए तानाशाहों

पहले दरवाजे खोलो

और दूर तक देखो खुली हवा में ।

प्रयाग टेलीविजन नेटवर्क तथा सिटी टेलीविजन के संपादक रहे तथा लगभग 10 वर्षो तक आस्था चैनल के लिए वृतचित्र बनाए।भोपाल गैस त्रासदी तथा फूलन देवी के समर्पण की कवरेज भी की। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से भी जुड़े रहे। इलाहाबाद विश्वविद्यालयईसीसी कालेज तथा मुक्त विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किए। एशिया की सबसे बड़ी पथरचट्टी रामलीला कमेटी के लिए 18 घंटे की रामलीला लिखने का सराहनीय कार्य किया। उसका निर्देशन तथा मंचन वर्षो तक किए।

देश की चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं में इनकी कहानियां तथा कविता छपी। काफी पाठकों ने सराहना की। एक चर्चित साहित्यकार हो गए। 'औरतें जहां भी हैंकविता संग्रह भी प्रकाशित हुई। बाल साहित्य तथा नाटक भी लिखे। कई विधाओं में रचनाएं दी। इस तरह से साहित्य को नई मुकाम दी। एक उपलब्धि दी। चित्रांकन तथा फोटोग्राफी में विशेष रुचि है। काव्यगोष्ठियों में नई ऊर्जा भरते रहते हैं। ब्लॉग पर भी लिखते हैं।

एकदम खाटी इलाहाबादी रंग में रहते हैं। मैं भी इनकी रचनाएं पढ़ता रहता हूं और बहुत कुछ सीखता रहता हूं। इनके पास साहित्य का विपुल भंडार है। जिंदगी जीने का वो अनुभव है जिस इलाहाबादी रचनाकार ने नही लिया साहित्य का अनुभव उनसे। करोड़ों रुपए खर्च करके भी साहित्य का सहीं तजुर्बा नहीं प्राप्त कर सकता है। आपकी हमने बहुत सी कविताएं साहित्यिक पत्रिकाओं में पढ़ी है। बहुत कुछ हमने भी सीखा है। महान रचनाकार से कुछ न कुछ सीखते रहना चाहिए।


 

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...