शनिवार, 18 मई 2024

वेद: राष्ट्रवाद और मानवता- डॉ0 रवीन्द्र कुमार


 

वेद: राष्ट्रवाद और मानवता 

              अनेक समकालीन-आधुनिक इतिहासकारों द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद पर अपने विचार अथवा दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है कि इसका इतिहास प्राचीन नहीं है। ऐसे ही इतिहासकारों द्वारा यह भी कहा जाता है कि अँग्रेजी दासता से देश की मुक्ति के लिए संघर्ष के समय, विशेषकर उन्नीसवीं शताब्दी ईसवीं और उसके बाद के समय में भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ; उसका विकास और प्रसार हुआ। ऐसे लोगों  के विचार, वास्तव में, भारतीय राष्ट्रवाद को, जाने-अनजाने में न समझने के साथ ही उनके आधे-अधूरे ज्ञान का परिणाम हैं। इसी के साथ, यह उनके आधारभूत और प्रचीनकालिक भारतीय धर्मग्रन्थों, अतिविशेष रूप से वेदों के ज्ञान के पूर्णतः अभाव का भी परिणाम है। वेदों की लिपिबद्धता का इतिहास ही, यह सर्वमान्य और स्थापित सत्यता है, शताब्दियों प्राचीन है।

            प्रथम वेद, ऋग्वेद (दस मण्डल, एक हजार अट्ठाइस सूक्त और लगभग दस हजार छह सौ मंत्र) की लिपिबद्धता का समय लगभग दो हजार ईसा पूर्व का स्वीकारा जाता है। यह विश्व का प्रचीनतम धर्मग्रन्थ है। अध्यात्म-दर्शन, विज्ञान सहित जीवन के लगभग समस्त क्षेत्रों में ज्ञान के स्रोत होने के साथ ही इतिहास की सूचना भी इससे प्राप्त होती है।    

ऋग्वेद के साथ ही यजुर्वेद और अथर्ववेद में अतिविशेष रूप में, मातृभूमि को केन्द्र में रखते हुए राष्ट्रवाद की परिकल्पना तथा उसके माध्यम से स्वराज्य, स्वदेशी और सजातीय सेवा-भावना प्रकट होती है। राष्ट्रवाद के विकास और उसके माध्यम से मानवता की रक्षा और समृद्धि के लिए कार्य किए जाने का आह्वान सामने आता है। अन्ततः मानवता अथवा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद को समर्पित अति प्रचीनकालिक और अतिविशिष्ट भारतीय राष्ट्रवाद की मूल भावना को, जो, निस्सन्देह पश्चिमी जगत के समकालीन-आधुनिक राष्ट्रवाद-सम्बन्धी विचार अथवा अवधारणा से पूर्णतः भिन्न है, इस प्रकार, वैदिक ऋचाओं से भली-भाँति जाना और समझा जा सकता है।  

प्रथम वेद, ऋग्वेद (10: 18: 10) में मानवाह्वान है:

"उप सर्प मातरं भूमिमेतामुरुव्यचसं पृथिवीं सुशेवां/"

अर्थात्, "हे मानव! तू मातृतुल्य व आदरणीय इस आकाश सम विशाल सुखदायी भूमि की सेवा कर।"

इस आह्वान में मातृभूमि के प्रति मानव के कर्त्तव्यों एवं समदेशियों से अटूट भ्रातृत्व के साथ व्यवहारों की अपेक्षा है। सहयोग, सामंजस्य और सौहार्द के वातावरण में सबके समान कल्याण के उद्देश्य से साथ-साथ आगे बढ़ने की कामना है। ऋग्वेद के मंत्रों "यतेमहि स्वराज्ये" (5: 66: 6) और "सासह्याम पृतन्यतः" (1: 8: 4),  अर्थात्, "हम स्वराज्य (जिसमें स्वदेशी भी सम्मिलित है) के लिए सदैव प्रयत्न करें"  एवं "आक्रान्ताओं पर विजय प्राप्त करें" की मूल भावना के अनुरूप विकसित यह भारतीय राष्ट्रवाद का वह श्रेष्ठ स्वरूप है, जो अपेक्षानुसार, मातृभूमि से प्रारम्भ कर सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु कदम आगे बढ़ाने का सन्देश देता है।

सर्वत्र राष्ट्रोत्थान, सुरक्षा और समृद्धि को समर्पित यजुर्वेद के मंत्र (22: 22) में प्रार्थना है:

"आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्//"

अर्थात्, "हे ब्रह्मन्! हमारे राष्ट्र (राज्य) में विद्या से प्रकाशमान (तेजस्वी) विद्वान हों, वीर-योद्धा-शूरवीर (क्षत्रिय) महारथी हों, जो शत्रु दमन करें, दुधारू गाय और समर्थवान पशु (अश्व आदि) हों, गुणवान स्त्रियाँ एवं सभ्य जन हों, अपेक्षानुसार (पर्याप्त) वर्षा हो, फलों-फूलों से लदे (वृक्ष) और अन्न-औषधियाँ प्राप्त हों।"

राष्ट्र को समर्पित राष्ट्रवाद की सीमाओं से आगे बढ़ते हुए, राष्ट्रोन्नति के माध्यम से सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए समान रूप से कल्याणकारी स्थिति के निर्माण हेतु यजुर्वेद ही के मंत्र (9: 22) में  प्रबल कामना की गई है, नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्याऽइयं ते राड्यन्तासि यमनो ध्रुवोऽसि धरुण:/ कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्ये त्वा पोषाय त्वा//"

अर्थात्, माता समान पृथ्वी को हमारा नमस्कार, बारम्बार नमस्कार; परस्पर उपकार के लिए (राष्ट्र से) आगे जाकर (मित्र भावना के साथ) स्वयं के साथ ही (हम) समष्टि कल्याण हेतु कार्य सिद्धि के लिए समर्पित हों।"

अथर्ववेद (12: 1: 62) में जहाँ एक ओर यह कामना है, "दीर्घ न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम/", अर्थात्, "दीर्घकाल तक अपने जीवन से हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों", वहीं दूसरी ओर इससे भी पहले अथर्ववेद के ही एक मंत्र (12: 1: 12) द्वारा यह प्रतिबद्धता भी प्रकट है कि "तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः/", अर्थात्, "चारों ओर से हमें शुद्ध करने वाली भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।

 ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के उक्त वर्णित उद्धरणों से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद का उदय और इसका विकास अँग्रेजी दासता से देश की मुक्ति हेतु संघर्ष के समय ही नहीं हुआ। भारतीय राष्ट्रवाद का इतिहास अतिप्राचीन है और इसकी जड़ें वेदों में हैं। वेद ही मूलतः इसके आधार हैं। वेद अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता के उद्घोषक हैं। अविभाज्य समग्रता की परिधि से बाहर कुछ भी नहीं है। सार्वभौमिक एकता में सब कुछ समाहित है। भारतीय राष्ट्रवाद, जिसकी जड़ें वेदों में हों, वह पश्चिमी जगत में विकसित समकालीन-आधुनिक राष्ट्रवाद की भाँति संकुचित अवधारणा वाला कदापि नहीं हो सकता।   

भारतीय राष्ट्रवाद, भारत-भूमि पर उत्पन्न प्रत्येकजन का, मातृभूमि के प्रति कर्त्तव्यबद्ध होकर, इसकी हर रूप में सुरक्षा, समृद्धि और उत्थान हेतु आह्वान करता है; इस हेतु समदेशियों में अपरिहार्य वृहद् सहयोग, सामंजस्य और सौहार्द के वातावरण के निर्माण पर बल देता है। लेकिन, साथ ही भारत की सुरक्षा, समृद्धि और चहुँमुखी विकास के माध्यम से विश्व जन के कल्याण के लिए भी यही भावना रखता है। प्रत्येक धरावासी के उत्थान और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करता है। इस हेतु सकारात्मक और शुद्ध विचारों के पोषण और कार्यों की प्रबल अपेक्षा रखता है। 

ऋग्वेद के मंत्र (10: 191: 4) "समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:/ समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति//", अर्थात्,  "हमारा उद्देश्य एक हो,  हमारी भावनाएँ सुसंगत हों, हमारे विचार एकत्रित हों, उसी प्रकार जैसे  ब्रह्माण्ड के विभिन्न पहलुओं एवं क्रियाकलापों में एकता तथा तारतम्यता है से लेकर  अथर्ववेद के मंत्र (12: 1: 62 के प्रथम भाग) "उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता:", अर्थात्, हे पृथ्वीमाता! हम क्षय आदि समस्त रोगों से मुक्त रहकर सदैव ही तेरी सेवा में उपस्थित रहें" की मूल भावना मातृभूमि के माध्यम से मानवता की सेवा, सुरक्षा और समृद्धि के लिए समर्पित रहना है।

देश को केन्द्र में रखकर पर्यावरण-प्रकृति, आर्थिक-राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी मंत्र, जो वेदों में प्रकट हैं; विशेष रूप से जो अथर्ववेद के माध्यम से हमारे सामने आते हैं, उन सभी की मूल भावना अन्ततः समष्टि कल्याण है। यही नहीं, राष्ट्रभक्ति, जो राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्यों से सम्बद्ध है, उसकी कसौटी भी वृहद् मानव कल्याण है। अथर्ववेद (12: 1: 1) में प्रबल मानवीय कामना है, "सत्यं बृहद्दतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति/स नो भूतस्य भव्यस्य पत्य्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु//", अर्थात्, सत्य, परम ज्ञान, स्थानों, ऋतुओं आदि को धारण करने वाली, अन्न, औषधियाँ और बल आदि प्रदान करने वाली पृथ्वी हमारे (समस्त जन के) लिए विशाल हो तथा मानव-कल्याण करे।

वास्तव में, यही भावना मानवतावाद को समर्पित भारतीय राष्ट्रवाद का मूल आधार है, और इसे अतिविशिष्ट भी बनाती है। यही भावना स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' (जीवनकाल: 1824-1883 ईसवीं), स्वामी विवेकानन्द (जीवनकाल: 1863-1902 ईसवीं), लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (जीवनकाल: 1856-1920 ईसवीं), ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (जीवनकाल: 1820-1891 ईसवीं), देवेन्द्रनाथ टैगोर (जीवनकाल: 1817-1905 ईसवीं), केशव चन्द्र सेन (जीवनकाल: 1838-1884 ईसवीं), लाला लाजपत राय (जीवनकाल: 1865-1928 ईसवीं), महात्मा गाँधी, सरदार वल्लभभाई पटेल (जीवनकाल: 1875-1950 ईसवीं) और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस (जीवनकाल: 1897-1945 ईसवीं) सहित उन अग्रणियों के विचारों और कार्यों के मूल में रही थी, जो भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलन और अँग्रेजी उपनिवेशवाद से देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। इसी भावना को केन्द्र में रखते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को समझने की आज भी नितान्त आवश्यकता है। युवा पीढ़ी को इससे परिचित कराने के साथ ही इसकी मूल भावना के अनुरूप वृहद् मानव-कल्याणार्थ कार्य किए जाने की अपेक्षा भी है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश)        के पूर्व कुलपति हैं I 

डॉ0 रवीन्द्र कुमार सुविख्यात भारतीय शिक्षाशास्त्री, समाजविज्ञानी, रचनात्मक लेखक एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैंI डॉ0 कुमार गौतम बुद्ध, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य, गुरु गोबिन्द सिंह, स्वामी दयानन्द 'सरस्वती', स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और सरदार वल्लभभाई पटेल सहित महानतम भारतीयों, लगभग सभी राष्ट्रनिर्माताओं एवं अनेक वीरांगनाओं के जीवन, कार्यों-विचारों, तथा भारतीय संस्कृति, सभ्यता, मूल्य-शिक्षा और इंडोलॉजी से सम्बन्धित विषयों पर एक सौ से भीअधिक ग्रन्थों के लेखक/सम्पादक हैंI विश्व के समस्त महाद्वीपों के लगभग एक सौ विश्वविद्यालयों में सौहार्द और समन्वय को समर्पित भारतीय संस्कृति, जीवन-मार्ग, उच्च मानवीय-मूल्यों तथा युवा-वर्ग से जुड़े विषयों पर पाँच सौ से भी अधिक व्याख्यान दे चुके हैं; लगभग एक हजार की संख्या में देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एकता, बन्धुत्व, समन्वय-सौहार्द और सार्थक-शिक्षा पर लेख लिखकर कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैंI भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से प्रकाशित होने वाले भवन्स जर्नल में ही गत बीस वर्षों की समयावधि में डॉ0 कुमार ने एक सौ पचास से भी अधिक अति उत्कृष्ट लेख उक्त वर्णित क्षेत्रों में लिखकर इतिहास रचा हैI विश्व के अनेक देशों में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के अवसर पर शान्ति-यात्राओं को नेतृत्व प्रदान करके तथा पिछले पैंतीस वर्षों की समयावधि में राष्ट्रीय एकता, विशिष्ट भारतीय राष्ट्रवाद, शिक्षा, शान्ति और विकास, सनातन मूल्यों, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और सदाचार एवं भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध विषयों पर निरन्तर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ-कार्यशालाएँ आयोजित कर स्वस्थ और प्रगतिशील समाज-निर्माण हेतु अभूतपूर्व योगदान दिया हैI डॉ0 रवीन्द्र कुमार शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान की मान्यतास्वरूप ‘बुद्धरत्न’ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय तथा भारत गौरव, सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान, साहित्यवाचस्पति, साहित्यश्री, साहित्य सुधा, हिन्दी भाषा भूषण एवं ‘पद्म श्री‘  जैसे राष्ट्रीय सम्मानों से भी अलंकृत हैंI

 

 


 

 

 

 

बुधवार, 15 मई 2024

चौथीराम यादव हजारी प्रसाद द्विवेदी के अन्तिम शिष्य थे - जयचन्द प्रजापति 'जय’ प्रयागराज


चौथीराम यादव हजारी प्रसाद द्विवेदी के अन्तिम शिष्य थे

     हिन्दी साहित्य के प्रसिध्द आलोचक चौथीराम यादव के निधन से हिन्दी साहित्य का एक मुखर वक्ता चला जाना साहित्य की एक गली सूनी हो गयी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्रोफेसर रहे चौथीराम यादव का जन्म 29 जनवरी 1941को कायमगंज जौनपुर में हुआ था। बेबाक आवाज के इंसान थे। बेबाकी से दलित कमजोर, वंचितों की आवाज थे। मुखर वक्ता थे। बनारस की गलियां गलियां परिचित थी। पढ़ाने का उनका अंदाज बहुत सुंदर था कि छात्र मंत्रमुग्ध हो जाते थे। ऐसे थे चौथीराम यादव। वेद और लोक: आमने सामने..इनकी लिखी पुस्तक रही और सम्मानों की लम्बी लिस्ट है। साहित्य साधना सम्मान, कबीर सम्मान तथा लोहिया साहित्य सम्मान से नवाजे गये थे। काशीनाथ कथाकार के साथ मिलकर प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय एक्टिविष्ट थे।  लोकधर्मी परम्परा में हजारी प्रसाद द्विवेदी के अन्तिम शिष्य चौथीराम यादव थे। दलित विमर्श पर इनकी विचाराधारा दलितों के हालातों पर अपनी बात रखते थे। चा़य खैनी के बहुत शौकीन थे। यात्रा करने के भी शौकीन थे। अभी कुछ दिन पहले बाहर भी घूमने गये थे। अचानक मौत की खबर मिलते ही साहित्यकारों में शोक की लहर दौड़ गयी इनकी मृत्यु 12 मई 2024 को हो गयी। लोगों ने खूब प्यार दिया, लोगों में भी काफी लोकप्रिय लेखक थे। एक अच्छे निबन्धकार थे। प्रसिध्द आलोचक थे। सफेद लम्बे बाल उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा दे रहे थे। धोती कुर्ता भारतीय संस्कृति को धारण किये थे। ऐसे महान पुरूष थे चौथीराम यादव। रोज कोई न कोई विचार फेसबुक पर अपलोड करते रहते थे। बहुत कुछ सीखने को मिलता था। सच में उनका जाना एक साहित्य के लिये बहुत बड़ी हानि कही जा सकती है। 

महान आलोचक चौथीराम यादव को प्रणाम।


रविवार, 12 मई 2024

सनातन धर्म के मूल सिद्धान्त - डॉ0 रवीन्द्र कुमार


 

सनातन धर्म के मूल सिद्धान्त

     डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

 ब्रह्माण्ड में समस्त चल-अचल एवं दृश्य-अदृश्य की अपरिहार्य सम्बद्धता एवं, इस प्रकार, सार्वभौमिक एकता और एकता का निर्माण करने वाली शक्ति अथवा सत्ता की विद्यमानता की सत्यता की स्वीकार्यता, सनातन धर्म के ये दो सर्वप्रमुख सिद्धान्त हैं।

एक ही अविभाज्य समग्रता अपने अनेकानेक गुणों –सार्वभौमिक कार्यों और स्वभावों के कारण, तदनुसार, नामों से सम्बोधित की जाती है, तथा अपनी परिधि में ब्रह्माण्ड में विद्यमान समस्त दृश्य-अदृश्य और चल-अचल को समेटती है। वही अविभाज्य समग्रता, इस प्रकार, सार्वभौमिक एकता का निर्माण करती है।

इस प्रकार, स्पष्ट शब्दों में एक ही अविभाज्य समग्रता की विद्यमानता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता में विश्वास सनातन धर्म के प्रथम और द्वितीय, क्रमशः, मूलाधार हैं।    

सनातन धर्म के इन दोनों मूलाधारों (एक ही अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की शाश्वतता की स्वीकृति) की स्थिति को कोई भी अन्य धार्मिक विश्वास, सामाजिक चिन्तन अथवा वैज्ञानिक सिद्धान्त नकार नहीं सकता। यहाँ तक कि कोई नास्तिक विचार भी इस सत्यता से मना नहीं कर सकता। प्रत्येक सामाजिक चिन्तक, वैज्ञानिक और नास्तिक भी, किसी-न-किसी रूप में, इस वास्तविकता को स्वीकार करता है कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्था एक निरन्तर प्रवहमान सार्वभौमिक नियम द्वारा संचालित होती है। सार्वभौमिक नियम की परिधि के बाहर कुछ भी नहीं है; कोई भी नहीं है। वही सार्वभौमिक नियम एक अविभाज्य समग्रता है। उसके अपरिहार्य रूप से सर्वत्र व्याप्त होने के कारण सार्वभौमिक एकता का निर्माण होता है।

यह भी लगभग सर्वमान्य है कि ब्रह्माण्ड में समस्त चल-अचल व दृश्य-अदृश्य की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परस्पर निर्भरता है। इससे भी स्वतः ही सिद्ध होता है कि सार्वभौमिक एकता की सत्यता विद्यमान है और, इस प्रकार, सनातन धर्म के प्रथम एवं द्वितीय, दोनों, मूलाधारों पर मुहर लगती है।

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली और, साथ ही, सार्वभौमिक व्यवस्था का आधार रहने वाली अविभाज्य समग्रता सनातन धर्म में परब्रह्म के नाम से सम्बोधित है। परब्रह्म=पर (सर्वोच्च)+ब्रह्म (जगत-सत्य और सार)। सर्वोच्च ब्रह्म संकल्पनाओं से परे और अवर्णनीय उत्पत्तिकर्ता, पालक एवं उद्धारकर्ता हैं। वे अनादि और अक्षर हैं; वे बुद्धि का विषय नहीं हैं तथा, वेदान्त उन्हें ही निर्गुण ब्रह्म भी स्वीकारता है। सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता ब्रह्म नाम से भी सम्बोधित है। 'बृह्' धातु से निष्पादित शब्द ब्रह्म का सरल अर्थ है आगे की ओर बढ़ना अथवा प्रस्फुटित होना। स्वयं वृद्धि को प्राप्त होना। इस प्रकार, सब कुछ, चर-अचर व दृश्य-अदृश्य ब्रह्म ही हैं। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म/" (छान्दोग्योपनिषद, 3: 14: 1)

वही परमसत्ता, अविभाज्य समग्रता, परमेश्वर हैं। परमेश्वर=परम+ईश्वर; अर्थात्, सर्वोच्च ईश्वर; ऐश्वर्यशाली तथा जगत नियन्ता। वे ईश्वर हैं; ऐश्वर्य युक्त तथा समर्थ हैं। वनस्पति, प्रकृति, जलवायु आदि सहित समस्त पदार्थों के स्वामी हैं। इशे यो विश्वस्या" (ऋग्वेद, 10: 6: 3), अर्थात्,  समस्त दिव्यता के स्वामी, सर्व समर्थ एवं दिव्यता प्रदानकर्ता ईश्वर।

वे परमात्मा हैं। परमात्मा=परम (सर्वोच्च)+आत्मा (चेतना), इस प्रकार प्राण शक्ति हैं। वे भगवान हैं। भूमि, गगन, वायु, अनल और नीर जैसे मूल तत्त्वों के स्वामी हैं। वे नारायण हैं; जलस्रोत हैं। अग्निमीळे हैं; प्रकाश-स्रोत हैं। वे इन्द्र परम ऐश्वर्यवान व दिव्य प्रकाश में प्रकाशमान हैं; वे मातरिश्वान (ऋग्वेद, 1: 164: 46) अर्थात्, वायु-स्रोत सर्वव्याप्त हैं। वे विष्णु (व्यापनशील) हैं; सर्वत्र व्याप्त सम्पूर्ण जगत (ब्रह्माण्ड) में प्रवेश किए हुए हैं। (ऋग्वेद, 1: 154: 1)

वे व्यापक, विशेषणों से युक्त, विभिन्न रूपों में प्राणी-प्रशंसित एवं महिमामण्डित स्वामी हैं। (ऋग्वेद, 1: 154: 2) वे ब्रह्मा, सबसे बड़े और सर्व-जनक –सृजक स्वामी हैं। वे सहस्रशीर्षा: पुरुषः –हजारों शीर्ष वाले जगत-व्याप्त महाराजा हैं; उत्पत्तिकर्ता तथा कारण हैं। (ऋग्वेद, 10: 90: 1-2 ) वे त्र्यम्बकं (त्रिनेत्रीय), सर्वथा सर्वकल्याणकारी और उद्धारकर्ता हैं। वे तीन कालों में –जीव, कारण तथा कार्यों की रक्षा करने वाले हैं। (ऋग्वेद, 7: 59: 12) वे रूद्र –दुष्ट शत्रुओं का दमन करने वाले (ऋग्वेद, 1: 114: 2) पराक्रमी व परम शक्तिशाली हैं। वे समस्याओं के समूल नाशकर्ता हैं। वे गरुत्मान् –महानतम आत्मा वाले और यमं –न्यायकर्ता जगत-नियन्ता हैं। (ऋग्वेद, 1: 164: 46)

वे सवितुः हैं; सम्पूर्ण जगत -ब्रह्माण्ड के उत्पन्न करने वाले और ऐश्वर्य-युक्त स्वामी हैं। (ऋग्वेद, 3: 62: 10) वे हरि हैं; दुखों को हरने वाले स्वामी हैं। वे सच्चिदानन्द हैं; सदा सत्य, शाश्वत, स्थाई और अपरिवर्तनीय हैं। वे चेतनायुक्त और पूर्णतः आनन्दमय हैं। वे प्रत्येक स्थिति में पूर्ण हैं। (ईशावास्योपनिषद्, प्रारम्भ और बृहदारण्यकोपनिषद्, 5: 1: 1) परब्रह्म, पुरुषोत्तम परमात्मा सभी रूपों में सदैव ही परिपूर्ण हैं। वे सदैव ही आनन्द की पराकाष्ठा से भी परिपूर्ण हैं।

आनन्द उनका गुण है; वे इसीलिए सदा शान्त चित्त हैं। वे ॐ (ओम) हैं। ओम=अ+उ+म, इस प्रकार, ब्रह्माण्ड की अनाहत ध्वनि है। वे सर्वरक्षक और सर्वव्याप्त हैं। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण तथा सार हैं। सृष्टि के द्योतक हैं।

उनके सम्बन्ध में इतना ही नहीं है। उनकी महिमा अपरम्पार है। उनके गुण असंख्य हैं और शक्तियाँ असीमित हैं। उनके असंख्य गुणों और शक्तियों के अनुसार ही, जैसा कि उल्लेख कर चुके हैं, उनके असंख्य ही नाम हैं। उन्हीं में से कुछेक ही का उल्लेख हमने किया है। अन्ततः वे एक अविभाज्य समग्रता हैं; वे सार्वभौमिक एकता के निर्माता हैं। सदा विद्यमान सनातन धर्म इसी सत्यता को स्वीकार करता है। अविभाज्य समग्रता की शाश्वतता एवं सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता, इस प्रकार, सनातन धर्म के प्रथम एवं द्वितीय, क्रमशः, मूलाधारों के रूप में स्थापित हैं।

II

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली, परब्रह्म-ब्रह्म, परमेश्वर-ईश्वर, परमात्मा आदि सहित अनेकानेक नामों से सम्बोधित अविभाज्य समग्रता, ब्रह्माण्डीय व्यवस्था के सुचारु एवं कल्याणकारी रूप से संचालनार्थ सृष्टि के श्रेष्ठ प्राणी मानव का एक परम अपेक्षित कर्त्तव्य निर्धारित करती है।

ब्रह्माण्डीय एकता और इसमें समस्त ज्ञात-अज्ञात की परस्पर निर्भरता की सत्यता का आलिंगन करने एवं ब्रह्माण्ड में विद्यमान समस्त चराचर व दृश्य-अदृश्य के प्रति मित्रवत रहने की अपेक्षा करती है। मूल तत्त्वों के साथ ही प्राणिमात्र एवं प्रकृति के प्रति, जो सभी अविभाज्य समग्रता मूलक हैं तथा उसी की परिधि में भी हैं, सहिष्णु रहते हुए आदर-सम्मान तथा प्रेम का सन्देश देती है।

सहनशील भावना के साथ सभी के प्रति, अपने स्वयं के चयनित मार्ग से भी, श्रद्धा रखने अथवा उसकी उपासना करने का आह्वान करती है। ऐसा करना स्वयं अविभाज्य समग्रता के प्रति आदर-सम्मान, प्रेम या श्रद्धा प्रकट करना है। व्यक्तिगत के साथ ही सर्व कल्याण का यही मार्ग है। सर्व कल्याण में ही व्यक्ति का कल्याण भी निहित है।

सहिष्णुता एवं सहनशीलता अहिंसा की दो श्रेष्ठतम व्यावहारिकताएँ हैं। अहिंसा सर्व एकता की अनुभूति और उसके प्रति श्रद्धा प्रकट करने का सर्वोत्तम माध्यम अथवा मार्ग है। अहिंसा अपनी मूल भावना में ठहरते हुए –प्राणिमात्र के साथ ही जगत में विद्यमान समस्त चराचर व दृश्य-अदृश्य के प्रति सक्रिय सद्भावना रखते हुए, साथ ही दृष्टिकोण-समायोजन द्वारा वृहद् सहयोग एवं सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त करती है।

अहिंसा, इसीलिए, सनातन धर्म के तृतीय मूलाधार के रूप में प्रतिष्ठित है। वृहद् सहयोग और सामंजस्य के वातावरण में सर्व कल्याण को, जो सार्वभौमिक एकता की जीवन्त द्योतक व उस एकता की स्थापना करने वाली अविभाज्य समग्रता का आह्वान है, केन्द्र में रखते हुए, समय एवं परिस्थितियों की माँग के अनुसार निरन्तर आगे बढ़ना –आवश्यक नया करने हेतु पुरुषार्थ करना सनातन धर्म का आह्वान है।

'नित-नूतन' शाश्वत सार्वभौमिक नियम का सन्देश है। नया करने का संकल्प विकास का मार्ग प्रशस्त करता है; नया होने से ही वास्तविक प्रगति प्रकट होती है। सर्व-कल्याण भावना को अक्षुण्ण रखते हुए, नया करने का आह्वान, इसलिए, सनातन धर्म का चतुर्थ मूलाधार है।  

सनातन धर्म चार मूलाधारों से सुसज्जित है और, इस प्रकार, सार्वभौमिक एकता ही को समर्पित सर्वकालिक व्यवस्था है। सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता ही एकमात्र सत्यता है।

सर्व सहयोग, परस्पर सामंजस्य और सौहार्द के वातावरण में, सहिष्णु तथा सहनशील रहते हुए (इस प्रकार अहिंसा मार्ग द्वारा) सर्व-कल्याण हेतु पुरुषार्थ –जीवन-मार्ग पर निरन्तर नया करते हुए आगे बढ़ना, इस सत्यता की मानव से अपेक्षा है। अपने परम कर्त्तव्य के रूप में इसी अपेक्षा की प्राप्ति का सनातन धर्म का मानवाह्वान है। मानव अविभाज्य समग्रता की सत्यता में स्वयं को पहचाने; वह अविभाज्य समग्रता परमेश्वर स्वरूप को प्राप्त हो, यही मानव-जीवन का सार, लक्ष्य और उद्देश्य है:

"जीवो ब्रह्मैव नापरः –जीव ही ब्रह्म है; (जीव ब्रह्म से) भिन्न –बाहर नहीं है।"

आदिकाल से ही सनातन धर्म के अग्रणी समय-समय पर आए अवतार, ऋषि-महर्षि और महापुरुष इसी सत्यता को सर्व-कल्याण भावना के साथ मानवता के समक्ष  रखते रहे। 

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

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गुरुवार, 9 मई 2024

ब्रह्मपुत्र- चन्द्र पश्चिम कार्बी आंगलांग असम

ब्रह्मपुत्र

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बंधु क्या तुम्हें पता है ब्रह्मपुत्र सराय घाट के पुल तक आते-आते कितना नाम बदलते आता है

बंधु क्या तुम्हें पता है 

अरुणाचल में जो अभी बह रहा है ब्रह्मपुत्र 

उसका नाम क्या है

बंधु क्या तुम्हें पता है

चीन में बांग्लादेश में 

और तिब्बत में ब्रह्मपुत्र का नाम क्या है

बंधु क्या तुम्हें पता है ब्रह्मपुत्र हर साल 

कितनों को निर्वासन में भेज देता है

हजीरा मजूरी के लिए।

बंधु क्या तुम्हें पता है

ब्रह्मपुत्र की मछलियां हर साल 

किस-किस देश के मछलियों से मिलने जाती हैं 

और मारी जाती हैं।

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...