वसुधैव कुटुम्बकम्: एकता और समानता को समर्पित सनातन धर्म का उद्घोष
डॉ0
रवीन्द्र कुमार*
"अयं
निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्/ उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्// –यह मेरा है, यह
उसका है;
इस प्रकार की धारणा संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती
है। इसके विपरीत,
उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरा एक ही
परिवार के समान होती है।"
सनातन
धर्म (वर्तमान में विश्वभर में हिन्दू के नाम से भी प्रसिद्ध धर्म) की मूल भावना
सर्व-एकता और मानव-समानता है। उक्त वर्णित लोकप्रिय श्लोक (जिसका
मूल रूप सामवेदीय शाखा के महोपनिषद् के छठे अध्याय में प्राप्त होता है), वास्तव में, इसी भावना को
प्रकट करता है।
सर्वेकता
एक शाश्वत सत्यता है। दूसरे शब्दों में, अविभाज्यता अक्षुण्ण है। एक ही अविभाज्य समग्रता,
वेदों-उपनिषदों सहित सनातन धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में परमात्मा (सर्वोच्च
चेतना –प्राण
शक्ति),
ईश्वर (सम्पूर्ण ऐश्वर्य युक्त), ब्रह्म ( –ब्रह्मन्, परम स्व, ब्रह्माण्डीय
एकता-निर्माता और आधार) आदि नामों से सम्बोधित,
सर्वेकता निर्माता है। वही अनुरक्षक तथा सँभाल करने वाला है। सनातन धर्म के
व्याख्याता वेदों की यह एक प्रमुख उद्घोषणा है।
ऋग्वेद
में (10: 121: 10) में स्पष्ट उल्लेख है:
“प्रजापते
न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव/”
अर्थात्, “हे
प्रजापति,
प्रजाओं के स्वामी! केवल आप ही समस्त सृजन –उत्पत्ति के
कारण हैं;
आप व्यापक (परमात्मा) के अतिरिक्त और
कोई नहीं है।“
ईशोपनिषद् (ईशावास्योपनिषद्) का प्रारम्भिक मंत्र है:
"ॐ
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते/ पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण
मेवावशिष्यते//"
अर्थात्, "वह
(परमात्मा) अनन्त एवं पूर्ण हैं; और यह
जगत भी पूर्ण हैI पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति
होती है। उस पूर्ण (ब्रह्म) में से पूर्ण निकल लें, तो भी
पूर्ण ही शेष रहता है।"
बुद्धि
और रचनात्मकता जैसे श्रेष्ठ गुणों के पोषक व सृष्टि के उन्नत प्राणी मानव का इस
सत्यता से साक्षात्कार करना और इसे अपने समस्त व्यवहारों के केन्द्र में रखना उसका
धर्म है। वेद-ज्ञान से परिचय कराते, स्वयं सनातन धर्म के स्थापित आधारभूत ग्रन्थों, उपनिषदों, में से एक
प्रमुख छान्दोग्योपनिषद् (3: 14: 1) में यह
स्पष्ट है:
"सर्वं
खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत/
अथ खलु
क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं
कुर्वीत//"
अर्थात्, "यह सब (वास्तव
में ही) ब्रह्म है। सब
कुछ ब्रह्म से आता है; सब कुछ ब्रह्म में वापस चला जाता
है। सब कुछ ब्रह्म द्वारा ही बनाए रखा जाता है। इसलिए व्यक्ति को शान्तता के साथ
ब्रह्म का ध्यान-स्मरण करना चाहिए। (पूर्णतः
ब्रह्म को ही समर्पित रहना चाहिए) मृत्यु के पूर्व जो जैसी उपासना करता है, वह
जन्मान्तर वैसा ही हो जाता है।“ अर्थात्, ब्रह्म-समर्पण
की स्थिति में जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है।
स्वयं
महोपनिषद् (4:
119) में भी उल्लेख है कि यह सब ब्रह्म है, जो शाश्वत, चेतन एवं अविनाशी है; इसके अतिरिक्त
कोई अन्य वस्तु,
अर्थात् मानसिक प्रक्षेपण,
वास्तव में, विद्यमान नहीं है।
अर्थात्,
“सर्वं
च खल्विदं ब्रह्म नित्यचिद्घनमक्षतम्/
कल्पनान्या मनोनाम्नी विद्यते न हि काचन//”
ब्रह्म
(अविभाज्य समग्रता-निर्माता,
निर्वाहक और सृष्टि-आधार) का सृष्टि के श्रेष्ठतम प्राणी, मानव, का
प्राथमिकता से,
एवं उसके परम कर्त्तव्य के रूप में, सर्वेकता की सत्यता की स्वीकृति का आह्वान है। मानव, जैसा कि कहा है, बुद्धि और
रचनात्मकता जैसे अद्वितीय गुणों का पोषक होता है; अपनी बुद्धि
द्वारा सत्य-असत्य का बोध करने में पूर्णतः समर्थ होता है। बुद्धि-बल से
वह सर्वेकता,
वृहद् परिप्रेक्ष्य में सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता से परिचय करने में
सक्षम होता है। वह
सार्वभौमिक एकता से परिचय करे,
उसी एकता के अविभाज्य अंग होने की सत्यता को स्वीकार करे,
तदनुसार व्यवहार करे,
यही मानव से ब्रह्म की अपेक्षा है।
अन्य
सरल शब्दों में इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मनुष्य एक सार्वभौमिक अविभाज्य
समग्रता के अंश के रूप में अपने को स्वीकार करते हुए, समष्टि-कल्याण
में ही अपने कल्याण को देखे। वह, अपने किसी पृथक या निजी हित के अवास्तविक विचार को छोड़कर,
सर्वहित हेतु समर्पित हो। इस संक्षिप्त वार्ता के प्रारम्भ में उद्धृत श्लोक की
यही मूल भावना, वास्तविक अभिप्राय और उद्देश्य है। बुद्धि और रचनात्मकता
जैसे गुणों से भरपूर सृष्टि का श्रेष्ठतर प्राणी मानव और जलवायु, तापमान, प्राकृतिक
संसाधनों सहित अन्य अनुकूलताओं से भरपूर वसुधा (पृथ्वी) इसके केन्द्र में हैं।
पृथ्वी
पर निवासकर्ता मानव प्राथमिकता से सजातीय एकता –परस्पर मानवीय
सहयोग, सहकार
और सौहार्द द्वारा,
प्रत्येक को अपना मित्र,
सखा व सहयोगी स्वीकार करते हुए सर्वकल्याण हेतु समर्पित हो। इस प्रकार, वह अविभाज्य
समग्रता की सत्यता का आलिंगन करे और समष्टि-हित के
लिए, जिसमें
आवश्यक रूप से स्वयं उसका हित भी सम्मिलित है, आगे बढ़े। यही,
वास्तव में,
सनातन धर्म की मूल भावना से साक्षात्कार कराते इस श्लोक का प्रयोजन है; अविभाज्य
समग्रता के निर्माता और सार्वभौमिक एकता की स्थापना करते –सृष्टि के आधार
ब्रह्म की मानव से, जैसा कि कहा है, आशा भी है।
अविभाज्य
समग्रता ही एकमात्र शाश्वत –सनातन सत्य है। अविभाज्य समग्रता ही सार्वभौमिक एकता
का आधार है। वही अविभाज्य समग्रता, जैसा कि उल्लेख किया है, ईश्वर, परमात्मा और
ब्रह्म सहित अनेकानेक नामों से,
अपने गुणों और सार्वभौमिक कार्यों के लिए सम्बोधित है।
इस
वास्तविक स्थिति में प्रत्येक कार्य अथवा छोटी या बड़ी गतिविधि का (वह
जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी भी स्तर पर हो) वृहद् अथवा
सार्वभौमिक प्रभाव पड़ता है। अविभाज्य समग्रता और उसके सदैव प्रवहमान सार्वभौमिक
नियम के अन्तर्गत एक व्यक्ति का कार्य या
गतिविधि, न्यूनाधिक, समस्त सजातीयों
और सार्वभौमिक व्यवस्था पर भी प्रभाव डालती है। एक की सु-प्राप्ति
वृहद् कल्याणकारी और एक का ह्रास या उसकी विफलता,
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में, सम्पूर्ण जगत
के लिए, न्यूनाधिक,
अकल्याणकारी होती है। मानव इस परम सत्य को समझे तथा प्राथमिकता से सजातीयों को
अपना बन्धु और परम मित्र स्वीकार कर भेदभावरहित व्यवहार करे, मानव-समानता
केन्द्रित सर्वेकता का यह सनातन धर्म का उद्घोष और आह्वान है।
*पद्मश्री
और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री
एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I