गुरुवार, 4 जनवरी 2024

।। तुम क्या गए यहाँ से ।।- अनीता





।। तुम क्या गए यहाँ से ।।

 

तुम क्या गए यहाँ से, हम हर रोज नया दर्द लाए जहां से।

खैरियत ख्यालात के बहाने यहाँ,सुकून अपना तलाशने लगा जहां।।

 

हमने,अपनी अभिलाषाओं को संजोए,जिन दीवारों को दी भाषा यहाँ।

जाने कब घर को मेरे, मकान की परिभाषा दे दी जहां ने ।।

 

हम तो नाराजगी भी अपनी, मुस्कराहटों में समेटने लगे हैं यहाँ।

काँटों के लिए आंचल फैला दिया, गुलशन दामन छुड़ाने लगे जहाँ ।।

 

मेरी रज़ा जाने बगैर, मेरे जीवन का अर्थ तय कर दिया यहाँ।

लेकिन यारों अपनी शतों पर जीने की, मेरी भी जिद है जहां से ।।

 

अनीता की कलम से..... 

सीखने के सारे दरवाजे- संध्या जैन


                                                                              संध्या जैन 

व्याख्याता -- रा.उ.मा.वि. झिराना, टोंक

सीखने के सारे दरवाजे

सीखने के सारे दरवाजे

बड़ी सावधानी से बन्द कर दिए हैं उन्होंने

और उनके इशारों की परछाइयों ने चुपके सेरातों रात सफेदी पोत दी है..

दरवाजें बड़ी सफाई से दीवारें हो गए है !

और आगे जाने के तीर कोकिसी ने नजर बचाकर

उल्टी दिशा में कर दिया है ।

लोग सब इठला रहे हैं..

क्यूँकि उनकी समझ में वे आगे जा रहे है..

और सब झूठ कहने वाले_सबको जेल में डाल दिया गया है ।

वो जो कहते थे कि यहाँ तो सीखने के दरवाजें थे..

थेतो कहाँ गए.. !!

सोचने पर भी रोक है..

बोलना तो खैरपाप है ही ।

सबसे अच्छा सीखना: सुनना रखा गया है ।

खासकर बच्चों और महिलाओं के लिए..

सीखने के दरवाजों के पार तरह तरह के खतरे है ।

किससे – उन्ही से – जिनसे यहाँ भी है ।

 

नाम कमाने की लालसा

 

सूरज नही पैदा हुआ होगा

नाम कमाने की लालसा के साथ,

चाँद अपनी ख्याति के लिए नही फैलाता है चांदनी,

ना ही नदियाँ प्रसिद्धि पाने के लिए बहती है अनवरत,

न समुद्र चाहता है अपने नाम के गीत,

पर्वत भी यश बटोरने नही बने है प्रहरी सीमाओ के,

न धरती ने मांगा है गुणगान बड़प्पन कापैरों तले आने के बदले,

ये सब बस है..

है.. जैसे ईश्वर.. जो नही चाहता उसके महान होने के दावे,

ईश्वर या उसकी कोई कृति नहीं चाहती कि उनके नामों के ढोल पीटे जाए

सिवाय मनुष्य के….!!



ब्रेल लिपि के जादू ने बढ़ाया हौसला...… एम.असलम


ब्रेल लिपि के जादू ने बढ़ाया हौसला...…

फांस के लुई ब्रेल की आंख बचपन में ही जूते गांठने का सुआं लगने से चली गई थी। वो ठीक नहीं हुई। और दूसरी आंख भी खराब हो गई। कहते हैं कि  लुई ब्रेल ने उसी सुएं से ब्रेल लिपि का अविष्कार कर दिया। जिसने कई दृष्टिबाधित बच्चों को हौसला दिया। वो आज भी किसी चमत्कार की भांति हमें प्रेरणा देते नज़र आते हैं। ब्रेल लिपि से पढ़कर देश और समाज को बुलंद हौसले का संदेश देने वाले टोंक के वकील भरत सिंह नरूका व आगरा की शायरा डा आरेफा शबनम का जिक्र करना ऐसे समय प्रासंगिक हैं।आज भी ये ब्रेल लिपि की चमत्कारिक सफलता के जीवंत उदाहरण है।

 

 

आगरा की नाबिना (दृष्टि बाधित) शायरा डा. आरेफा शबनम देश का वो प्रेरित चेहरा बन गई। जिसकी शायरी ही नहीं नाबिना बच्चों की शिक्षा में दिए जा रहे योगदान की अब लोग मिसाले भी देने लगे हैं। दृष्टि बाधित होने के बावजूद उनका हौसला देखकर भी लोग दांतों तले उंगलियां दबा लेते हैं।

जो दुनिया को देख, तो नहीं सकती, लेकिन उसका दर्द बहुत करीब से महसूस कर सकती है। और इस नामवर शायरा ने बहुत ही करीब से महसूस भी किया। एक ऐसी ही शख्सियत काे आज आरेफा शबनम के नाम से जाना जाता है। टोंक महोत्सव पर आयोजित ऑल इंडिया मुशायरे में आई आरेफा शबनम का कहना था कि जब वो बचपन में स्कूल पढ़ने गई, तो वहां मौजूद कई बच्चों ने कहा कि अंधे भी क्या कोई पढ़ते हैं। बस ये बात दिल को कचौट गई। बस, मन में ठान लिया की मुझे पढकर कुछ करना है। और घर पर शिक्षा ग्रहण करके सीधे 9 वीं कक्षा में प्रवेश लिया तथा एमए कर के एज्यूकेशन डिर्पाटमेंट में प्रिंसिपल तक बनी। मुझे जो दर्द मिला वो किसी नाबिना बच्चें को नहीं मिले, वो शिक्षा से वंचित ना हो। इसके लिए डा. शबनम ने आगरा-मथुरा के समीप एक नाबिना बच्चों के लिए स्कूल खोला। वहां पर वो ऐसे बच्चों को निशुल्क शिक्षा भी दिलाती है। उनको यूपी में गर्वनर एवार्ड व मदर टरेसा के नाम से भी सम्मान मिल चुका है। शिक्षका एवं शायरा डा. शबनम यूपी में इंटरकॉलेज की प्रिंसिपल भी रही। वो अपनी शायरी का जादू देेश ही नहीं अमेरिका, कनाडा, दुबई, पाकिस्तान, जद्दा आदि में भी बिखेर चुकी है। डा. आरेफा शबनम का कहना है कि वो एज्यूकेशन डिपार्टमेंट में 1988 में आ गई थी। कोरोना से पहले 2020 में उन्होंने वीआरएस लेकर नेत्रहीन बच्चों की सेवा करना शुरू कर दिया है। अब वो उनके लिए ही काम भी करती रहती है। मुशयरों के जरिए मिलने वाली राशि भी उनपर ही खर्च करती है। डा. आरेफा शबनम ने ब्रेल लिपि के माध्यम से अपनी पढ़ाई पूरी की। उन्होंने कई जगह से ब्रेल लिपि की किताबें आदि मंगवाई। उनको पढाई में काफी कठिनाई आई। लेकिन उनकी मां ने कभी उनको लक्ष्य की ओर जाने से नहीं रोका तथा उनकी हर क़दम पर मदद की। हालांकि वो एक शिक्षित परिवार से संबंध रखती है। जो उनको कभी आर्थिक परेशानी नहीं आई। लेकिन नाबिना होने के कारण वो कदम-कदम पर संघर्ष ही करती रही। वो अपने अशआर के जरिए भी अपनी उलझनों को इस तरह बयान करती है। कटी उलझनों में थी जिंदगी, मुझे हर क़दम मिली बेकली, मैं किताबे सब्र थी आरेफा, मेरा हरफ-हरफ बिखर गया। बचपन से ही डा. आरेफा शबनम को गीत सुनने का शौक़ रहा है। वो रेडियों पर गीत सुना करती थी तथा उसको गुनगुनाते-गुनगुनाते वो पेरोडी कहने लगी। बस शौक़ बढता गया। 9 कक्षा में स्टेल पर उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति दी। जब से अब तक वो शायरी की दुिनया में अपना कलाम पेश कर रही है। आज देश की मक़बूल शायरा होने के साथ ही अंधेरी जिंदगी में भी उजाले का संचार करती नजर आती है। मौलाना अबुल कलाम आजाद अरबी फारसी शोध संस्थान में 23दिसंबर 2023 को ऑल इंडिया मुशायरा आयोजित हुआ। इसमें आगरा से आई नाबिना (दृष्टि बाधित) डा आरेफा शबनम ने तरन्नमु के साथ अपनी ग़ज़ल पेश कर सबकी आंखें खोल दी। हालांकि वो बचपन से ही देख नहीं सकती है। लेकिन उनकी तालीम व इल्म काफी पुख्ता था। उन्होंने अपना कलाम पेश करते हुए,

 

 मैंने कोई सूरज, कोई तारा नहीं देखा, किस रंग का होता है, उजाला नहीं देखा,

 सुनते हैं कि अपने ही थे घर लुटने वाले, अच्छा हुआ मैंने ये तमाशा नहीं देखा। हालांकि मुझे शौक़ सवरने का बहुत है,

और मैंने कभी अपना चेहरा नहीं देखा..

पेश कर सर्दी के इस माहौल में जोश भरने के साथ ही आंखों को भी नम कर दिया। मुशायरे में मौजूद हर कोई उनको दाद देता नजर आया।

ऑल इंडिया इस मुशायरा में आगरा से आई नाबिना शायर आरिफा शबनम ने जहां मोहब्बत का संदेश दिया, वही टोंक महोत्सव का उजाला ना देखते हुए भी टोंक के उज्जवल भविष्य की कामना भी की।

 

दृष्टि बाधित होने के बावजूद 27 साल से कर रहे हैं वकालत.….

 ब्रेल लिपि से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त 59 वर्षीय दृष्टिबाधित भरत सिंह नरुका उसी प्रारंभिक शिक्षा के हौसले के बल पर आज भी जिला अदालत में वकालत कर रहे हैं। वो नियमित रुप से पिछले 27 साल से वकालत कर रहे हैं। उनका कहना है कि वो फौजदारी केस अधिक लड़ते हैं। अब तक करीब 800 से अधिक केस लड़ चुके होंगे। हालांकि उनको दृष्टिबाधित होने के कारण कई लोग उनको अपना केस देने में झिझकते हैं। लेकिन वो अब तक पूरे आत्मविश्वास एवं हौसले के साथ वकालत कर रहे हैं तथा उनको कोई परेशानी नहीं है। सहायक के रुप में एक दिव्यांग एवं एक अन्य वकील भी कार्यरत है। जो उनसे वकालत का हुनर सीख रहे हैं। टोंक के एक छोटे से ग्राम निबोला में पैदा हुए दृष्टि बाधित भरत सिंह नरुका पुत्र शिव सिंह नरुका का कहना है कि वो जब 4 साल के थे तो उनकी नेत्रज्योति किसी कारणवश चली गई थी। उनके अभिभावकों को पता चला की अजमेर में ऐसे बच्चों को भी पढाया जाता है, देख नहीं सकते, तो उनको भी अजमेर में स्थिति दृष्टिबाधित विद्यालय में प्रवेश दिलाया। वहां पर उन्होंने कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा ब्रेल लिपि से की। उसके बाद वो 9वीं-10वीं सामान्य निजी स्कूल में पढे। उसके बाद कोठी नातमाम में हायर सैकंडरी स्कूल में प्रवेश लिया। साथियों की मदद से वो अागे की पढाई पूरे उत्साह के साथ कर पाए। पिछले 27 साल से वो टोंक में वकालत कर रहे हैं। साथ ही समाज को संदेश दे रहे है कि हौसला बुलंद हो, तो कोई मंजिल आसान नहीं होती है। वो सभी को आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा देते हैं। उनका कहना है कि उन्होंने सरकारी कोई सुविधा तक नहीं ली। अपने ही बल पर वो अपना कार्य करना चाहते हैं। वो अपने दो जूनियर सहायकों को भी उनसे बढकर आगे कार्य करने का संदेश देते हैं। टोंक के मेहंदवास गेट के समीप रहने वाले वकील नरुका खाना बनाना सहित कई कार्य भी जानते हैं। वो पैदल ही अपने घर से अदालत तक आ जाते हैं।

भरत सिंह नरुका कहते हैं कि उनके साथियों एवं कृषि का कार्य करने वाले उनके परिवार ने उनका हर कदम पर सहयोग किया। हालांकि वो अपनी अपेक्षा के अनुरुप कार्य नहीं कर पाए। लेकिन जो भी कर रहे हैं, उससे वो पूरी तरह संतुष्ठ है। पहले उनकी रुचि राजनीति में थी, वो वकीलों आदि के साथ भी रहते थे। ऐसे मे उन्होंने अपना कैरियर वकालत में भी बनाया। भरत सिंह नरुका ने राजस्थान यूनिवर्सटी से 1994 में अपनी वकालत की शिक्षा पूरी की तथा 1996 से वो नियमित रुप से वकालत कर रहे हैं। उनकी माने तो वो राज्य के वर्तमान में ऐसे पहले वकील है, जो नियमित रुप से वकालत करते रहे हैं।

 

ब्रेल के बारे में विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी के अनुसार-

 

अंधेपन के शिकार लोगों के बीच लुई ब्रेल मसीहा के रूप में जाने जाते है। चार जनवरी का दिन उन्हीं की याद में ब्रेल दिवस मनाया जाता है।

1809 में फ्रांस के एक छोटे से कस्बे कुप्रे के एक साधारण परिवार में जन्मे लुई ब्रेल के पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोड़ों के लिए काठी बनाने का काम करते थे। उनके साथ लुई बचपन से ही काम करने लगे। एक दिन पिता के साथ काम करते वक्त वहां रखे औजारों से खेल रहे लुई की आंख में एक औजार लग गया। ये औजार सउआं था। चोट लगने के बाद उनकी आंख से खराब हो गई। परिवार के लोगों ने इसे मामूली चोट समझ कर आंख पर पट्टी बांध दी और इलाज करवाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वक्त बीतने के साथ लुई बड़ा होता गया और घाव गहरा होता चला गया. आठ साल की उम्र में पहुंचते पहुंचते लुई की दुनिया में पूरी तरह से अंधेरा छा गया। परिवार और खुद लुई के लिए यह एक बड़ा आघात था। लेकिन आठ साल के बालक लुई ने इससे हारने के बजाए चुनौती के रूप में लिया. परिवार ने बालक की जिज्ञासा देखते हुए चर्च के एक पादरी की मदद से पेरिस के एक अंधविद्यालय में उनका दाखिला करा दिया।

16 वर्ष की उम्र में लुई ब्रेल ने विद्यालय में गणित, भूगोल एवं इतिहास विषयों में महारथ हासिल कर शिक्षकों और छात्रों के बीच अपना एक स्थान बना लिया. 1825 में लुई ने एक ऐसी लिपि का आविष्कार किया जिसे ब्रेल लिपि कहा जाता है. लुई ने लिपि का आविष्कार कर नेत्रहीन लोगों की शिक्षा में क्रांति ला दी।ब्रेल लिपि का विचार लुई के दिमाग में फ्रांस की सेना के कैप्टन चार्ल्स बार्बियर से मुलाकात के बाद आया. चार्ल्स ने सैनिकों द्वारा अंधेरे में पढ़ी जाने वाली नाइट राइटिंग और सोनोग्राफी के बारे में लुई को बताया था. यह लिपि कागज पर उभरी हुई होती थी और 12 बिंदुओं पर आधारित थी. लुई ब्रेल ने इसी को आधार बनाकर उसमें संशोधन कर उस लिपि को 6 बिंदुओं में तब्दील कर ब्रेल लिपि को इजात कर दिया. लुई ने न केवल अक्षरों और अंकों को, बल्कि सभी चिन्हों को भी लिपि में सहेज कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया। चार्ल्स बार्बियर द्वारा जिस लिपि का उल्लेख किया गया था, उसमें 12 बिंदुओ को 6-6 की पंक्तियों में रखा जाता था. उसमें विराम चिन्ह, संख्या और गणितीय चिन्ह आदि का समावेश नहीं था. लुई ने ब्रेल लिपि में 12 की बजाए 6 बिंदुओ का प्रयोग किया और 64 अक्षर और चिन्ह बनाए। लुई ने लिपि को कारगार बनाने के लिए विराम चिन्ह और संगीत के नोटेशन लिखने के लिए भी जरुरी चिन्हों का लिपि में समावेश किया।

ब्रेल ने अंधेपन के कारण समाज की दिक्कतों के बारे में कहा था, "बातचीत करना मतलब एक-दूसरे के ज्ञान को समझना है, दृष्टिहीन लोगों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है और इस बात को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते." उनके अनुसार विश्व में अंधेपन के शिकार लोगों को भी उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना साधारण लोगों को दिया जाता है। 1851 में उन्हें टीबी की बीमारी हो गई जिससे उनकी तबियत बिगड़ने लगी और 6 जनवरी 1852 को मात्र 43 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. उनके निधन के 16 वर्ष बाद 1868 में रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड यूथ ने इस लिपि को मान्यता दी। लुई ब्रेल ने न केवल फ्रांस में ख्याति अर्जित की, बल्कि भारत में भी उन्हें वहीं सम्मान प्राप्त है जो देश के दूसरे नायकों को है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार ने 2009 में लुई ब्रेल के सम्मान में डाक टिकिट जारी किया था।  ब्रेल दिवस को शुभकामनाएं। अपने भी मन-मस्तिष्क ऐसी भावनाएं विकसित करें, जो जरूरतमंद का सहारा बने। वास्तव में धर्म आस्था ऐसी ही जरूरतमंद का सहारा व हौसला बने। जय हिन्द।

 

तालाब – ग्राम्य जीवन का आधार- आशा पाण्डेय


तालाब – ग्राम्य जीवन का आधार

आशा पाण्डेय      

   ‘ जल ही जीवन है’- ये केवल सूक्ति वाक्य नहीं है, प्रमाण हैं इसके | बड़ी-बड़ी सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित हुईं, संस्कृतियाँ फली-फूलीं | हमारे देश की प्राचीन और समृद्धि सिन्धुघाटी की सभ्यता सिन्धु नदी की देंन है तो वर्तमान भारतीय संस्कृति गंगा नदी की | ऋषि-मुनियों के आश्रम नदियों के तटों पर ही हुआ करते थे | हमारे अधिकांश तीर्थस्थल भी नदियों के किनारे हैं | वेद में जल को ‘विश्वभेषज’कहा गया | एक कथा के अनुसार एक बार एक ऋषि बीमार पड़े तो वैद्य ने उन्हें जल का सेवन करने के लिए कहा क्योंकि जल में सभी औषधियां होती हैं |

   हमारे गाँव वहाँ फैले जहाँ जमीन के नीचे जल था | जल से ही कृषि संभव हुई | जमीन खोदकर कुएं बनाये गए | आकाश से बरसने वाली हर बूंदों को संजोकर रखने की व्यवस्था की गई | इस क्रम में तालाब खुदवाये गए, बावड़ियाँ बनवाई गईं | बड़ी-बड़ी रियासतों के राजे रजवाड़े, सेठ साहूकारों ने इस कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया | ये जल को अर्थात जीवन को बचा लेने का कार्य था | जल देवता है, तो देवता की उपासना में,उसके संरक्षण में न सिर्फ राजे-रजवाड़े, सेठ-साहूकार लगे, अपितु आर्थिक रूप से कमजोर लोग भी लगे | तालाब का निर्माण पवित्र कार्य था,पुण्य का कार्य था | तालाब खोदने वाले हाथ सम्मान के हकदार होते थे | समाज उनके इस हक को चुकाता था |

   देश के लगभग हर इलाके में ऐसे पक्के,विशाल तालाब और बावड़ियों के अवशेष मिलते हैं | इन पक्के तालाबों के पास मन्दिर, घाट, बारादरी आदि भी बनते थे | तालाब में उतरने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं |

   ये हुई पूरी योजना के साथ तालाब निर्माण की बात | मैं बात कर रही हूँ – गांवों में अनायास निर्मित हो जाने वाले तालाबों की, जिन्हें गाँव में गड़हा या गड़ही कहा जाता है | इन अनायास निर्मित हो जाने वाले तालाबों की महत्ता भी कम नहीं थी | पहले जब कच्चे मकान बनाये जाते थे तो जिस स्थान से मकान के लिए मिट्टी खोदी जाती थी वहाँ स्वतः तालाब निर्मित हो जाता था | मेरे गाँव में एक बड़ा तालाब था उससे लगकर ही तीन-चार छोटे गड़हे थे | बरसात के महीनों में जब वरुण देवता अपने दोनों हाथों से जल लुटाते थे तब वह जल इन तालाबों में इकठ्ठा हो जाता था और अगले कई महीनों तक रहता था | गाँव भर के जानवर उसी तालाब में पानी पीते थे | भैंसे घंटो उसमें बैठती थीं,सुस्ताती थीं | खेती-किसानी के अन्य कई कार्य जैसे- बांस भिगाना, सनई सड़ा कर उसे पानी में सटकना, सुखाकर उससे सन अलग करना आदि किये जाते थे | जब तक तालाब में पानी रहता था तब तक महिलाएं भी कुएं से पानी खीचने के अपने श्रम को बचा लेती थीं और घर को लीपने-पोतने,साफ-सफाई आदि करने के लिए तालाब के पानी का ही इस्तेमाल करती थीं | तालाब गाँव की रोजमर्रा की जिन्दगी का अंग था |

   हमारी संस्कृति में प्रकृति के विभन्न रूपों – जिनसे हमें कुछ प्राप्त होता है, हमारा जीवन सहज हो चलता है – के प्रति कृतज्ञ होने की परम्परा है | बरगद, पीपल,तुलसी, सांप,गाय,बैल आदि के प्रति कृतज्ञ होकर उनकी पूजा करने वाला ग्राम्य-जीवन भला तालाब की पूजा को कैसे भूलता ! इसलिए घर के वैवाहिक उत्सवों में तालाब पूजन का विधान रखा गया | वैवाहिक अवसर पर तालाब पूजने की इस  अनिवार्यता ने गाँव में तालाब के होने को भी अनिवार्य बनाया |

  पूर्वी उत्तरप्रदेश के बहुत बड़े हिस्से में विवाह के विविध कार्यक्रमों में मंडपाच्छाद्न के बाद पहला कार्यक्रम होता है माटीमागर (मटिमगरा ) का | शुभ मुहूर्त देखकर माटीमागर का दिन निश्चित किया जाता है | अड़ोस-पड़ोस, गाँव, मुहल्ले में बुलावा भेजा जाता है | अघोषित रूप से इस बुलावे में महिलाएं और लडकियाँ ही आमंत्रित होती हैं | विवाह वाले परिवार की बुजुर्ग सुहागिन महिला, जिसे भोजइतिन कहा जाता है, मंडप ( माडव ) में बैठकर गौरि गणेश की पूजा करती हैं, फिर पांच या सात कन्याओं को बैठाकर उनके माथे पर तेल और सिंदूर का टीका लगाकर उन्हें चने की दाल, गुड़ और तेल देती हैं – यहाँ कन्याओं की पूजा लडकियों की महत्ता को दर्शाती है | विवाह में कई ऐसे कार्यक्रम होते हैं जहाँ कन्याओं की भी अहम भूमिका रहती है |

   कन्या पूजन के उपरांत वहाँ एकत्र अन्य महिलाओं को भी चने की दाल, गुड़ और तेल का वितरण किया जाता है | इस कार्य के सम्पन्न होने के बाद महिलाएं तालाब पूजन के लिए जाती हैं | पांच सुहागिन मिलकर पूजन-सामग्री वाली दौरी उठाती हैं जिसे लेकर नाउन आगे-आगे चलती है | उसके पीछे महिलाएं गीत गाते हुए चलती हैं | इन मृदु शीतल गीतों के बोल गाँव में जहाँ-जहाँ तक गूंजते हैं वहाँ-वहाँ तक लोग मुदित होते हैं | उत्सव की तरंगें उनके पास तक पहुंचती हैं और उन्हें आह्लादित करती हैं,उन्हें उल्लास से भर देती हैं – लोग कान लगाकर गीत के बोल सुनते हैं |

   तो गीत गाती हुई महिलाएं जब तालाब के किनारे पहुंच जाती हैं तो अब तक गाए जा रहे गीत को बंद कर कर दिया जाता हैं और एक दूसरा गीत गाया जाता हैं | इस गीत के माध्यम से वे तालाब में रहने वाले दृश्य-अदृश्य जीवों से प्रार्थना करती हैं कि, कुछ देर के लिए आप बाहर हो जाएँ, हम तालाब पूजने आये हैं |

   ... और फिर वो स्थल महिलाओं का एकांत हो जाता है | पूजन सामग्री की दौरी उतारी जाती है | जिन पांच महिलाओं ने दौरी उठाने में हाथ लगया था वही यहाँ उसे नीचे उतारने में भी हाथ लगाती हैं | भोजइतिन थोड़ी-सी जमीन को पानी से लीपकर गौरि गणेश की पूजा करती हैं, साथ आई महिलाएं गीत गाती हैं पर अब ये गीत मजाक के होते हैं | इन गीतों के द्वारा वे एक-दूसरे की चुहुल में जुट जाती हैं | अपने लिए तलाशे गए इस एकांत में वे जी भरकर हंसती हैं, खिलखिलाती हैं और कुछ देर के लिए घर-गृहस्थी के संघर्ष को भूल जाती हैं | भूल जाती हैं विवाह वाले घर में बढ़े कार्य की थकान को  और फिर से तारो-ताजा होकर उसी प्रकार गाते हुए घर लौटती हैं |

   तालाब का ये पूजन सिर्फ एक दिन ही नहीं होता बल्कि मायन पूजने वाले दिन भी महिलाएं उसीप्रकार मिल-जुलकर गीत गाते हुए तालाब की पूजा करने जाती हैं | विवाह के अंत में एक रस्म होती है चौथी छुड़ाने की |ये रस्म भी तालाब के पूजन से ही सम्पन्न होती है | इसमें जिस लड़की या लड़के का विवाह रहता है उसे भी साथ ले जाया जाता है | भोजइतिन उस लड़के या लड़की की पीठ पर जल से थप्पा मारकर पूछती है कि इस विवाह के संपन्न होने से तुम्हारे दिल में ठंडक पहुँची ? इसीप्रकार वह लड़का या लड़की भोजइतिन की पीठपर  जल का थप्पा देकर उनसे पूछता/ पूछती है कि इस विवाह से वो संतुष्ट हुईं ? संतुष्टि की ये स्वीकारोक्ति तालाब के किनारे होती है ! तालाब को साक्षी मानकर दिल के  उद्गार व्यक्त किये जाते हैं | तालाब के जल की तरह ही हृदय के शीतल हो जाने की बात स्वीकारी जाती है | परमतृप्ति का एहसास आपस में साझा किया जाता है | जल शीतलता के गुणों से युक्त होता है और शीतल मन पुण्य कार्य करने के लिए तत्पर होता है | हम कितने भी थके हों संतप्त हों, शीतल जल से स्नान करते ही तरोताजा हो जाते हैं और परम शांति का अनुभव करते हैं | विवाह एक पुण्य कार्य है जिसके संपन्न हो जाने पर हृदय जल-सा शीतल हो जाता है, इसलिए जल का महत्व है, तालाब का महत्व है |

     इसतरह विवाह में शुरू से लेकर अंत तक तालाब को याद किया जाता है | कहीं-कहीं तालाब से मिट्टी खोदकर लाई जाती है और माडव ( मंडप ) में उसी मिट्टी से चूल्हा बनाया जाता है,जिसमें धान का लावा भूना जाता है जो विवाह के समय परछने के काम आता है | गाँव जहाँ हर तरफ मिट्टी इफरात है वहाँ चूल्हे के लिए तालाब से ही मिट्टी लाना तालाब की महत्ता को दर्शाता है और तालाब पूजन हमारी संस्कृति का अंग बन जाता है| गाँव से विस्थापित होकर शहर में बसने वाले लोग भी वैवाहिक अवसरों पर तालाब,कुआँ,हैण्डपम्प- जो वहाँ उपलब्ध हो जाये, उसकी पूजा करते हैं |

  विवाह के अतिरिक्त दो त्योहार ऐसे और हैं जिसमें तालाब का महत्व है – एक तो है शीतला सप्तमी – इसमें तालाब में ‘दह बैठाया’ ( एक विशेष पूजा ) जाता है | अगर गाँव में तालाब नहीं है, या है भी, किंतु वह स्वच्छ नहीं है तो लोग अपने घर के सामने तालाब के प्रतीक के रूप में एक छोटा गड्ढा खोदते हैं, उसमें जल भरते हैं,फिर माँ शीतला की पूजा करके दह बैठाते हैं | दूसरा त्योहार हैं- भादों के महीने में आने वाला ‘हलछठ’| इसमें भी तालाब के अभाव में प्रतीक के रूप में एक गड्ढा खोदकर,उसमें पानी भरा जाता है गड्ढे के पास ढाख और कुश की डंडियों को गाड़ दिया जाता है,फिर वहीं बैठकर महिलाएं अपनी औलाद की खुशहाली के लिए माँ की पूजा करती हैं |

   तो तालाब हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है | हमारे पुरखों ने समझा था इस बात को, किंतु अब स्थिति बदल रही है | नये तालाबों का निर्माण तो अब बीते कल की बात हो गई है किंतु  अनायास खुद जाने वाले तालाब भी अब गांवों से गायब हो रहे हैं | अब पक्के मकान बन रहे हैं, जिसके लिए मिट्टी की कोई जरूरत नहीं है | कच्चे मकान गिर रहे हैं | उसकी  मिट्टी तालाबों में फेकी जा रही है | तालाब पाटे जा रहे हैं | मेरे गाँव का तालाब जो कभी साफ जल से भरा रहता था अब जलकुम्भी से भरा है | आकार भी बहुत छोटा हो गया है उसका | ग्रामपंचायत या गाँव के लोग चाहें तो तालाब से जलकुम्भी निकलवा दें, गाद साफ करवा दें | फिर से उपयोगी बन जाये तालाब | पर कौन चाहे !! प्रधान  के अपने तर्क हैं, अपने सम्बंध हैं, सरकार इस ओर से सोई है और गाँव के लोग ! अब प्रत्यक्ष रूप से  उन्हें तालाब के फायदे नहीं दिखाई दे रहे हैं | गांवों में गाय - भैंस  अब कोई-कोई ही पालता है | दरवाजे पर जानवरों के खूंटे पहले सम्पन्नता की निशानी थे, अब पिछड़ेपन के सूचक बनते जा रहे हैं | जानवरों की जगह अब स्कूटर,मोटरसाइकिल,कार और ट्रैक्टर दरवाजे की शान बन गए हैं | खेती ट्रैक्टर से होती है इसलिए बैल भी अनुपयोगी सिद्ध हो चुके हैं | जानवर थे तो तालाब बहुत उपयोगी था, अब नहीं रहा |

    लोग इस बात से अनजान हो चुके हैं कि तालाब रहेगा तो प्राकृतिक जल-चक्र सुचारू रूप से चलता रहेगा | बारिश का पानी जब कुओं और तालाबों में भर जायेगा तो भू-जल का स्तर ऊपर उठेगा | नल और कुँए सूखने से बचेंगे | नदियों का प्रवाह बढ़ेगा | पहले भी जिन गांवों में तालाब कम या नहीं थे वहाँ कुएं बहुत गहरे खोदने पड़ते थे, तब पानी का स्रोत मिलता था |

    तालाब तो तालाब अब तो गांवों से कुएं भी गायब हो रहे हैं !! बड़ी बेरहमी से लोग उसे पाट रहे हैं | कुएं खोदने वाले हाथ पूजे जाते थे, इन पाटने वाले हाथों का क्या किया जाय ! बिना तालाब, बिना कुएं के गांवों की कल्पना कितनी त्रासद है | तालाब नहीं रहे,कुएं नहीं रहे | सरकारी नलों ने इनकी जगह ले ली, पर जिस दिन किसी कारण से पानी की सप्लाई नहीं हो पाती है तब शहरों की तरह गाँव के लोग भी बूंद-बूंद पानी के लिए इधर-उधर भटकते हैं |

      पानी जीवन के लिए तो है ही बहुत जरूरी, किंतु कुएं और तालाब सिर्फ पानी ही नहीं देते थे, लोगों के मिलन के स्थल भी थे | महिलाएं वहाँ अपने सुख-दुःख साझा करती थीं | पल दो पल के लिए  अपने गम को भूल जाती थीं | सखियों का साथ उन्हें हिम्मत देता था | पर अब गाँव से पनघट का मिलन, हंसी-ठिठोली सब गायब हो गई है | गायब हो गया है  गाँव से गाँवपन ! वैवाहिक रस्मों में हो सकता है तालाब की जगह घर के नलों की पूजा कर ली जाये, पर इस सत्य को नहीं नकारा जा सकता कि गीत गाते हुए तालाब की ओर जाने वाली महिलाओं के सुर के बिना गाँव बहुत सूना हो गया है |

                                      

         

   

       

       


बाबरी ध्वंस से राममंदिर: भारतीय राजनीति की बदलती दशा और दिशा- प्रोफेसर राम पुनियानी

प्रोफेसर राम पुनियानी

बाबरी ध्वंस से राममंदिर: भारतीय राजनीति की बदलती दशा और दिशा

-राम पुनियानी

स्वाधीन होने के बाद भारत ने जो दिशा और राह चुनी, उसकी रूपरेखा जवाहरलाल नेहरु के ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ भाषण में थी. नेहरु ने कहा, “भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-लाख पीड़ितों की सेवा. भारत की सेवा का अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, रोग और अवसर की असमानता को समाप्त करना...हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति की अभिलाषा तो यही है कि हर आँख से हर आंसू पोछा जाए. यह हमारे बस की बात न भी हो, तब भी, जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, हमारा काम ख़त्म नहीं होगा.”

और इसी सन्दर्भ में उन्होंने भाखडा नंगल बाँध का उद्घाटन करते हुए अपने भाषण में आधुनिक भारत के मंदिरों की बात कही. ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ अख़बार ने लिखा, “अत्यंत भावपूर्ण शब्दों में प्रधानमंत्री ने इन स्थानों को मंदिर और आराधना स्थल बताया जहाँ हजारों लोग, अपने दसियों लाख बंधुओं के कल्याण की खातिर एक बड़ी रचनात्मक गतिविधि में रत हैं.”

“आधुनिक भारत के मंदिर” - यह वाक्यांश उस थीम को अपने में समेटे हुए था जो सार्वजनिक क्षेत्र की परिकल्पना का आधार थी और जिस थीम के भाग के रूप में वैज्ञानिक समझ को बढ़ावा देने के लिए शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की गयी, अस्पताल बनाए गए और संस्कृति के उन्नयन के लिए विभिन्न अकादमियों का गठन किया गया. “आधुनिक मंदिरों” के निर्माण का सिलसिला करीब चार-पांच दशक तक चलता रहा.

सन 1980 के दशक में इस प्रक्रिया को पलट दिया गया. इस दशक में अल्पसंख्यकों की खातिर शाहबानो फैसले को पलटने के सरकार के निर्णय से विघटनकारी राजनीति के एक लम्बे दौर की शुरुआत हुई. सांप्रदायिक ताकतों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रचार युद्ध छेड़ दिया. इसके साथ ही, पिछड़ों और दमितों के कल्याण के लिए सकारात्मक कदम के रूप में मंडल आयोग की रपट लागू करने के निर्णय ने मंदिर राजनीति, जो पहले से ही हिन्दू राष्ट्रवादियों के रणनीतिक एजेंडा का हिस्सा थी, को जबरदस्त बल दिया. 

नेहरु के ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ का निर्माण करने की बजाय, मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजे जाने लगे. बाबरी मस्जिद को लेकर खड़ा किया गया विवाद, इसी अभियान का हिस्सा था. सन 1980 में संघ परिवार में एक नए सदस्य का जन्म हुआ. वह सदस्य थी भाजपा. कुछ दिन तक यह नई पार्टी गांधीवादी समाजवाद में आस्था रखने का नाटक करती रही. इसका नेतृत्व नर्म नेता का मुखौटा पहने अटलबिहारी वाजपेयी की हाथ में था. वाजपेयी संघ की विचारधारा में पूर्ण आस्था रखते थे. “हिन्दू तनमन, हिन्दू जीवन”, उन्होंने अपने बारे में लिखा था. लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से अपने असली हिन्दू राष्ट्रवादी चेहरे को ढँक कर रखा. बाद में उनकी जगह लालकृष्ण अडवाणी ने ले ली. अडवाणी ने “मंदिर वहीं बनाएंगे” का नारा बुलंद किया.

संघ परिवार लोगों को यह समझाने में सफल रहा कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था जहाँ बाबरी मस्जिद थी. मंडल आयोग की रपट के लागू होने से राम रथयात्रा को और ताकत मिली. यात्रा अपने पीछे खून की एक गहरी रेखा छोड़ती गई. सन 1990 के आसपास, देश के विभिन्न हिस्सों में इस यात्रा के गुजरने के बाद हुई हिंसा में करीब 1,800 लोग मारे गए. लालूप्रसाद यादव द्वारा अडवाणी की गिरफ़्तारी के साथ यह यात्रा समाप्त हो गई.

सन 1992 के छह दिसंबर को चुने हुए कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ कर दिया. उन्हें बाकायदा इसका प्रशिक्षण दिया गया था और उन्होंने इसकी रिहर्सल भी की थी. जिस समय मस्जिद तोड़ी जा रही थी, मंच पर अडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी और उमा भारती भी थे. मंच से “एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो” और “ये तो केवल झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है” जैसे नारे लगाए जा रहे थे. बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुंबई, भोपाल, सूरत और कई अन्य शहरों में भयावह सांप्रदायिक हिंसा हुई. और अंततः हमारी न्याय प्रणाली ने हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों के समक्ष समर्पण करते हुए इस मामले का निर्णय ‘आस्था’ के आधार पर सुना दिया. फैसले में उन लोगों के नाम लिए गए जिन्होंने मस्जिद के ध्वंस का नेतृत्व किया था मगर उन्हें उनके अपराध की कोई सज़ा नहीं दी गई. न्यायपालिका ने मस्जिद की पूरी जमीन “हिन्दू पक्ष” को दे दी.

अपनी इस सफलता से आल्हादित संघ परिवार ने देश से और विदेशों से भी भारी धनराशि एकत्र की और उससे बना भव्य राममंदिर अब तैयार है. इसका उद्घाटन पूरे हिन्दू कर्मकांडों के साथ स्वयं प्रधानमंत्री करेंगे. औपचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष सरकार के मुखिया के हाथों यह मंदिर जनता के लिए खुलेगा. जब तक बाबरी मस्जिद थी, तब तक वह भाजपा के चुनाव अभियान का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थी. उसके बाद से ‘भव्य राममंदिर’ का निर्माण पार्टी के चुनाव घोषणापत्रों और वायदों का अहम हिस्सा रहा है. गुज़रे सालों में मुसलमान अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं, देश का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण हुआ है और भाजपा की चुनावी ताकत में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है.

वर्तमान स्थिति का सारगर्भित वर्णन लेखक ए.एम. सिंह ने इन शब्दों में किया है: “सत्ता में आने के बाद से, भाजपा के राजनैतिक आख्यान ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया है. और भाजपा सरकार ने इसी दिशा में कई कदम भी उठाए हैं. संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया गया और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पारित किया किया...भारत की नागरिकता को हिंदुत्व के सिद्धांतों के आधार पर पुनर्परिभाषित कर, भाजपा सरकार ने हमारे संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य के भविष्य और उसकी विरासत को किरच-किरच कर दिया है.” अपने मोहल्लों में सिमटे मुसलमान, समाज के हाशिये पर धकेल दिए गए हैं. उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है.  

मंदिर के उद्घाटन के मौके का इस्तेमाल हिन्दुओं को गोलबंद करने के लिए किया जा रहा है. अमरीका और अन्य देशों में अप्रवासी भारतीय इससे जुड़े कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं. देश के भीतर, आरएसएस और उसके परिवार के सदस्य हिन्दुओं को इस बात के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि या तो वे नए मंदिर के उद्घाटन कार्यक्रम में जाएँ या उस दिन स्थानीय मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करें.  

इस समारोह में किसे आमंत्रित किया गया है और किसे नहीं, इसको लेकर भी कुछ विवाद सामने आये हैं. पहले मंदिर ट्रस्ट ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के मुख्य आर्किटेक्ट अडवाणी और उनके नजदीकी सहयोगी मुरलीमनोहर जोशी से कहा कि इन दोनों नेताओं की उम्र और अयोध्या में उस समय जबरदस्त ठण्ड पड़ने की सम्भावना के चलते उन्हें कार्यक्रम में नहीं आना चाहिए. बाद में शायद इस मसले पर पुनर्विचार हुआ और विहिप ने दोनों को आमंत्रित किया. 

बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने फिरकापरस्त ताकतों को सत्तासीन किया और अब मंदिर के उद्घाटन का उपयोग ध्रुवीकरण को और गहरा करने और उससे चुनावों में लाभ लेने के लिए किया जा रहा है. लोगों को अयोध्या ले जाने के लिए बड़ी संख्या में विशेष रेलगाड़ियों और बसों का इंतजाम हो रहा है.

यह वह समय है जब हमें नेहरु के ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ की संकल्पना और वैज्ञानिक समझ के विस्तार और विकास के प्रयासों को याद करना चाहिए. इस समय धार्मिकता और अंधश्रद्धा को जबरदस्त बढ़ावा दिया जा रहा है. जब हमनें औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों को तोड़ा था, तब हमने यह संकल्प लिया था कि ‘अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति’ हमारा फोकस होगा. परन्तु आज राजनीति अयोध्या के राममंदिर के आसपास घूम रही है. और उसके बाद, काशी और मथुरा तो बाकी हैं ही. ऐसा में ‘अंतिम व्यक्ति’ की किसे चिंता है? नेहरु ने ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ में जो वायदे किये थे, वे सब भुला दिए गए हैं. और देश की हर समस्या, हर असफलता के लिए नेहरु को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं) 

 

 

 


अधूरी कहानी- केदार शर्मा 'निरीह '


 केदार शर्मा 'निरीह '

अधूरी कहानी

 

    पूजा करने हेतु लोटा भरने के लिए दीनानाथ उस मौहल्ले के एकमात्र हेण्‍डपम्प पर रोज की भाँति गए। वहाँ पहले से ही अपना कलश भर रही किरण को देखकर वे चौंक  गए—“ अरे किरण ! तुम यहाँ कैसे ? 

     सर, प्रणाम। मैं भी आपके इसी मौहल्ले में  रहने लगी  हूँ। मेडम जी भी मुझे जानती हैं। मैं एक  बार आपके घर भी जा चुकी हूँ, पर उस दिन आप नहीं मिले थे।“

        सर, आपकी लिखी कहानी,जो पिछले रविवार को अखबार में छपी थी , बहुत अच्छी लगी ,पर यह कहानी जाने क्यों अधूरी सी लगी ।इस कहानी की मुख्‍य पात्र सूर्या अपने शराबी पति को छोड़कर अपने पिता के घर पर रहने लगती है । वह आत्मनिर्भर बनकर पिता की सेवा  भी करने लगती है ।पर सर, फिर आगे सूर्या  का क्या हुआ होगा ? सर, इस कहानी को और आगे लिखिए ना ।“ वह बिना रूके बोले जा रही थी ।

           दीनानाथ ने  कहा — किरण , ‘मुझे यह जानकर खुशी हुई कि इतने ध्‍यान से तुमने कहानी पढ़ी है । तुम तो जानती ही  हो कि कहानियों में कल्पना का समावेश होता है । यह भी एक काल्पनिक कहानी थी और सहज रूप से जो अंत होना था वह हो गया ।“

            ‘’ नहीं सर, आप तो लेखक हैं जहाँ कहानी समाप्त हुई है उसके आगे की भी कल्पना कर सकते हैं कि आखिर सूर्या का आगे क्या हुआ होगा? सर, मेरे लिए प्लीज, वह लगभग गिड़गिड़ाने सी लगी थी । उस दिन तो दीनानाथ उसे बिना कोई आश्‍वासन दिए घर चले आ गए 

            पूजा के समय भी किरण की वही अनुनय भरी आवाज उनके भीतर गूँजती रही । हर पाठक को संतुष्‍ट नहीं किया जा सकता यह सोचकर उन्होंने अपने आप को सहज कर लिया । पर जब भी किरण मिलती वही प्रश्‍न दोहराती—"सर , कहानी पूरी हुई या नहीं ?” हर बार प्रयास करने की बात कहकर वे  हँसकर टालते रहे ,  पर तीव्र तूफान में उद्वेलित हुई सागर की लहरों की भाँति  अब उनके मन में ऊहापोह चलने लगा था ।

        एक दिन अपनी पत्नी  यशोदा के साथ दीनानाथ चाय पीने बैठे तो उन्होंने पूछ लिया-‘’तुम किसी किरण नाम की लड़की को जानती हो ?

   हाँ जानती हूँ, बेचारी मुसीबत की मारी है । ऐसे दिन भगवान किसी को न दिखाए”-नि:श्‍वास निकालते हुए उसने कहा। एक दिन यहाँ आई भी थी । आपके बारे में पूछ  रही थी । सारे समय ‘’ हमारे  सर , हमारे  सर........  ‘’ कहकर पूरे समय  आपकी प्रशंसा  किए जा रही थी।  

       ‘’बताओ क्या हुआ उसके साथ?’’ उनकी जिज्ञासा अब किसी उत्तुगं शिखर पर थी । 

                हुआ यह कि उसके माता-पिता अच्छे भले गाँव से इस मुए शहर में बसकर एक मंदिर की पूजा का काम संभाले हुए थे।कोरोना की पहली लहर में किरण की मां संक्रमित हो गई, जो पहले से ही मधुमेह रोग से पीडि़त थी ,और एक दिन चल बसी । बेचारा पिता अकेला रह गया। एक ही संतान थी यह किरण,   जिसका विवाह पास ही के एक गाँव में हुआ था । पति किसी प्राइवट कंपनी में कलर्क था पर शराबी था ।वह आए दिन किरण के साथ मारपीट करता था। किरण उसे छोड़कर कई-कई दिन तक अपने पिता के पास रहती ।पर पिता हर बार उसे समझा-बुझाकर निभा लेने की सलाह देता और वापस ससुराल भेज देता ।

             पर एक दिन तो हद हो गई । वह अँधेरी काली रात थी । बाहर तूफान और बरसात का कहर था । चारो तरफ पेड़़ों के झूमने बिजली के रह-रहकर कड़कने और मूसलाधार बरसात की आवाज वातावरण को डरावना बनाए हुए थी। उधर भीतर उसका पति नशे में धुत होकर बलात् बार-बार उसे  पीट रहा था और वह बार-बार चंगुल से छूटने के लिए संघर्ष कर रही थी । उसकी गोद में चार साल की बच्ची पूरी शक्ति के साथ चीख रही थी ।

                  आखिरकार किरण कमरे से बाहर निकलने और बाहर की चिटकनी लगाने में कामयाब हो गयी । सवेरा होते ही हमेशा के लिए अपने पिता के पास आ गई और किसी निजी स्कूल में कम्प्यूटर का काम कर गुजारा करने लगी । अभी कोरोना की दूसरी लहर में पिता भी पॉजीटिव आ गए । वह घर पर ही उपचार और सेवा करने लगी। एक दिन श्‍वास लेने में तकलीफ होने के कारण किरण ने उनको अस्पताल में भती कराया । सात दिन तक वेंटीलेटर पर रहने  के बाद भगवान को प्यारे हो गए । अब किरण अपनी बच्ची के साथ अकेली ही रह रही है।

       दीनानाथ अतीत  के  किसी गहरे आयाम में खो गए। जिस  गाँव में किरण का परिवार रहता था उसी गाँव में दीनानाथ सोलह साल तक अध्‍यापक रहे थे ।

       उन्हें याद आ रहा था कि किस तरह किरण पहली कक्षा में भर्ती हुई थी और सीनीयर सैकेण्‍डरी पास करके निकली थी । सांस्कृतिक कार्यक्रम और खेल सहित ऐसी कोई गतिविधि नहीं थी जिसमें वह बढ़-चढ़कर भाग नहीं लेती हो । बहुत ही कुशाग्र बुद्धि,विनम्र और होनहार लड़की थी ।मुस्कराहट सदा उसके चेहरे पर तैरती रहती  थी ।कभी-कभी तो उनको लगता जैसे कोई दैवीय आभा किरण के भीतर बसी हो और उसकी सदाबहार मुस्कराहट के माध्‍यम से झलक पड़ती हो ।

             अब उनके समझ में आया कि आखिर किरण बार-बार  क्यों कह रही थी कि कहानी की सूर्या  का आगे क्या हुआ? किरण के भविष्‍य का प्रश्‍न उनके मन मष्तिष्‍क को  भी व्यथित करने लगा—‘क्या होगा बेचारी का?’

            एक दिन दोपहर के खाली समय में बातों दौर चल रहा था। यशोदा कोरोना काल को सेवा का अवसर बता रही थी। वह बता रही थी कि किस तरह उनका बेटा अखिलेश, जो फिजियोथेरेपिस्ट था, जरूरतमंदो के पास जाकर दस्ताने पहनकर अपने हाथों से मरीजों के शरीर की मसाज कर रहा था ,थेरेपी की प्रक्रिया समझा रहा था और थेरेपी से संबधित वीडि़यो डाल रहा था ।

            समय का अनुकूल रूख भाँपकर उन्हानें प्रस्ताव रखा — “अगर आप सब सहमत हो जाएँ तो एक और पुण्‍य-कार्य किया जा सकता है । “ सभी दीनानाथजी की ओर जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखने लगे । वे थोड़ा रूके मानो कहने का साहस इकट्ठा कर रहे हों। आखिरकार उन्होनें कह ही दिया—“ क्यों नहीं हम किरण को अपने घर की बहू बना लें।“ वह पढ़ी—लिखी,सुंदर और समझदार लड़की है ।

       सुनते ही सब ओेर सन्नाटा छा गया। मानो सभी को साँप सूँघ गया हो । थोड़ी देर बाद यशोदा ने ही चुप्पी तोड़ी—“आपकी मति तो नहीं मारी गयी है? हमारे एक ही बच्चा है और आपने यह सब कैसे सोच लिया? क्या हम उसका विवाह ऐसी तलाकशुदा लड़की से कर दें जिसके साथ  एक बच्ची भी हो? समाज के लोग क्या कहेंगे ?

                      दीनानाथ ने उस समय कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। वे चुपचाप अपने काम में लग गए ।

           शाम  तक सभी  गंभीर और गुमसुम रहे । एक अजीब तरह का मौन चारों तरफ पसर गया था ।

               रात को खाने के समय सब फिर एक साथ बैठे। बात दीनानाथ ने ही शुरू की —“देखो किसी को भी परेशान होने की जरूरत नहीं है। विवाह अखिलेश और तुम्हारी सहमति से ही होगा। मैं तो इसलिए कह रहा था कि बारह साल तक मैने किरण को करीब से देखा है । माता-पिता के बाद एक अध्‍यापक ही होता है जो विद्यार्थी को गहराई से जानता है । किरण एक विनम्र,कुशाग्र बुद्धि और संवेदनशील लड़की है और संघर्षो ने उसे तपाकर औार निखार दिया है ।वह अकेली अपनी किश्‍ती में सवार होकर इस संसार सागर की लहरों से जूझ रही   है । उसके आने से न केवल अखिलेश के जीवन में बल्कि हमारे परिवार की बगिया में भी एक नई बहार आ सकती है । फिर जैसी  आप लोगों की मर्जी । “

         दीनानाथ ने  सुबह उठकर देखा तो पाया कि दोनो मां—बेटे गहन विचार-विमर्श में मग्न थे । आखिरकार दोनों की सहमति मिल गई । एक सादे पारिवारिक स्तर के कार्यक्रम में वरमाला का आदान-प्रदान हुआ  । किरण के एकमात्र रिश्‍तेदार मामा-मामी ने माता-पिता की भूमिका अदा की और किरण दीनानाथ के घर की बहू बनकर आ गई ।

           दीनानाथ ने भी आशीर्वाद समारोह और छोटा सा प्रीतिभोज का कार्यक्रम रखा। वर—वधू सभी बड़ों का चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद ले रहे थे । दोनों ने  दीनानाथ के पैरो में झुककर प्रणाम  किया —“जुग जुग जियो, तुम्हारी जोड़ी चिरजींवी और सुखी रहे।“ फिर किरण की ओर देखकर बोले— “अब तो मेरी अधूरी कहानी पूरी हो गयी होगी,बेटा ।“ 

          किरण भावुक हो गयी । उसकी आँखों से कुछ आँसू टपककर मानो  दीनानाथ के चरणों का अभिसिंचन करने लगे। किरण एक बार फिर दीनानाथ के पैरों में झुकी—“आप महान हो,सर ! “     “सर  ही नहीं...” ।

      ओह सोरी, ’पापा’ भी । अपने आसूँ पौंछते हुए किरण मुड़ गयी ।

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...