रविवार, 25 मई 2025

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार- प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार (पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित)

 

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार

A person in a suit and tie

Description automatically generated

             प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

'श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार', वास्तव में, एक ऐसा परिप्रेक्ष्य है, जिसकी प्रासंगिकता स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गीता के उपदेश (लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) के समय से आज भी कम नहीं है। कैसे या क्यों? यह प्रश्न हर किसी के मस्तिष्क में आना स्वाभाविक है। इसलिए, परिप्रेक्ष्य की स्पष्टता के लिए, सबसे पहले हमें मूल विषय या विषय में सम्मिलित शब्दों, लोकाचार और नेतृत्व को उनकी मूल भावना के साथ समझना होगा। तदुपरान्त, सैन्य नेतृत्व और लोकाचार का संक्षेप में श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में विश्लेषण करना होगा।

लोकाचार शब्द वस्तुतः मानव आचरण या व्यवहार का व्यापक रूप है। सामान्यतः जब किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरण या व्यवहार, विशेषकर सामान्य हित और कल्याण की दृष्टि से लगभग समान होते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे लोकाचार में बदल जाते हैं। इस प्रकार, लोकाचार एक विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरणों या व्यवहारों का समूह है; निर्धारित नियम और कर्त्तव्यपरायण नैतिकता, दोनों, उनसे जुड़े हुए हैं। एक प्रकार से वे उचित या न्यायसंगत कृत्य –सदाचार को प्रकट करने वाले बन जाते हैं।

इस स्थिति के बाद भी, अर्थात्, किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र की परिधि के लोगों के लिए उपयोगी होने के उपरान्त, यह आवश्यक नहीं है कि कोई लोकाचार किसी अन्य वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के निवासियों के लिए भी समान रूप से कल्याणकारी बना रहे। यही नहीं, किसी लोकाचार के अस्तित्व में आने के बाद उसका सदैव समान रूप से उपयोगी या लाभकारी बने रहना भी सम्भव नहीं है। समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार एक-के-बाद दूसरा लोकाचार स्थापित और स्वीकार किया जा सकता है। नया लोकाचार पहले से अधिक अच्छा और कल्याणकारी हो भी सकता है अथवा नहीं भी हो सकता। दूसरा लोकाचार पहले के एकदम विपरीत हो सकता है। इस सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व (259: 17: 18) में स्पष्ट उल्लेख है:

न हि सर्वहित: कश्चिदाचार: सम्प्रवर्त्तते/

तेनैवान्य: प्रभवति सोऽपरं बाधते पुन://

अर्थात्,ऐसा कोई आचरण-लोकाचार नहीं है, जो सदैव सभी लोगों के लिए समान रूप से कल्याणकारी (या सार्वजनिक हित में) हो। यदि (एक समय पर) एक आचरण स्वीकार कर लिया जाता है, तो दूसरे समय का आचरण उससे श्रेष्ठ नहीं भी हो सकता; तीसरा इसके एकदम विपरीत हो सकता है…I

इसके बाद भी कई लोकाचार दीर्घकाल तक के लिए प्रासंगिक और कल्याणकारी हो जाते हैं, यदि उन्हें उनकी मूल भावना में संरक्षित रखते हुए, समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार परिष्कृत या संशोधित रूप में व्यवहारों में लाया जाता है। उनमें से कुछ तो सदैव के लिए भी, इसी शर्त के साथ, महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी बन जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु इस प्रकार के लोकाचार भविष्य में अपनी स्थापना के समय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। हमें मुख्य रूप से श्रीमद्भगवद्गीता में लोकाचार के सम्बन्ध में प्रकट इस सर्वकालिक पहलू का संक्षिप्त विश्लेषण करना होगा, लेकिन इससे पहले यदि हम इस विषय में जुड़े 'नेतृत्व' शब्द के सम्बन्ध में भी लोकाचार को केन्द्र में रखते हुए तनिक चर्चा कर लें, तो अच्छा होगा।

प्राचीनकाल से ही नेतृत्व के कई प्रकार, श्रेणियाँ, क्षेत्र और स्तर रहे हैं। वर्तमान में भी ऐसा हो सकता है। लेकिन, नेतृत्व सदैव ही अपनी सच्ची और संक्षिप्त परिभाषा में वृहद् कल्याण के उद्देश्य से अन्यों के लिए अनुसरण किया जाने वाला एक आदर्श रूप होता है। दूसरे शब्दों में, यह व्यापक लोक कल्याण के लिए होता है। लोग नेतृत्वकर्ता के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं। नेतृत्वकारी मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं उसकी अग्निपरीक्षा उत्तरदायित्व स्वीकारने तथा उसके समुचित निर्वहन करने में है।

एक नेतृत्वकारी –श्रेष्ठ पुरुष के सम्बन्ध में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता (3: 21) में सत्य ही कहा है:

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः/

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते//

अर्थात्, नेतृत्वकारी –महापुरुष जो भी कार्य करता है, अन्य लोग उसके पदचिह्नों का अनुगमन करते हैं; वह अपने अनुकरणीय कार्यों से जो भी मानक स्थापित करता है, अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं, उसके अनुसार व्यवहार करते हैं।''

किसी लोकाचार की स्थापना, लोगों द्वारा उसे स्वीकार करने और उसकी मूल भावना के अनुरूप व्यवहार करने में नेतृत्व की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है, नेतृत्वकर्ता स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सुनिश्चित करने हेतु मार्ग प्रशस्त करता है कि लोगों द्वारा लोकाचार का समुचित रूप से पालन किया जाए।

परस्पर जन सहयोग द्वारा विशाल स्तर पर लोगों का कल्याण उससे आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है। अनुशासन और आज्ञाकारिता के साथ-साथ कर्त्तव्यनिष्ठ नैतिकता, जो मनुष्य को प्रलोभन, वासना, लालच और बुरी इच्छा जैसी बुराइयों पर नियंत्रण पाने और मानव को जीवन के सत्यमय लक्ष्य की प्राप्ति की ओर ले जाने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन करती है, लोकाचार के अनुपालन हेतु विशेष रूप से केन्द्र में रहती है।

 योगेश्वर कहते हैं, जो मनुष्य सभी इच्छाओं, लोभ-वासनाओं और लालसाओं को त्यागकर, आसक्ति, स्नेह और अहंकार के बिना आचरण करता है (केवल कर्त्तव्यपरायण रहकर नैतिकता की मूल भावना का पालन करता है, जो स्वयं लोकाचार के मूल में निहित है), वह जीवन के लक्ष्य शान्ति को प्राप्त करता है।"

यथा:

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः/

निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति// (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 71)

श्रीमद्भगवद्गीता में न केवल मानव-जीवन में लोकाचार के महत्त्व पर बारम्बार बल दिया गया है, अपितु अनन्तकाल तक मानवमात्र का पथप्रदर्शन करने वाले इस दिव्य गीत के माध्यम से नेतृत्व के महत्त्व पर भी जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने, मानव-जीवन को अर्थपूर्ण, सक्षम और सार्थक बनाने के उद्देश्य से, लोकाचार की अग्रणीय भूमिका से सम्बन्धित एक सर्वकालिक सन्देश भी दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार, निस्सन्देह, सभी के द्वारा धर्ममय कर्मों –सदाचार-संलग्नता में तथा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया द्वारा, जो अन्ततः वृहद् जन कल्याण को समर्पित है, न्यायसंगत संलग्नता में है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, स्वार्थरहित एवं निष्काम कर्म ही मनुष्य का प्रथम धर्म है; यह सर्वोच्च नैतिकता को अक्षुण्ण रखता है। आलस्य, लोकाचार के विपरीत स्थिति है एवं धर्म-मार्ग से भटकाव और अनैतिकता है। श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार-सम्बन्धी यह सन्देश इसे हर युग और प्रत्येक देश में महत्त्वपूर्ण और सर्वकालिक बनाता है। नेतृत्वकर्ताओं को, वे जीवन के किसी भी क्षेत्र से हों, लोगों के कल्याण हेतु, विशेष रूप से किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सभी के लिए न्याय और समानता हेतु, इसे अपने प्रमुख कर्त्तव्य तथा धर्म के रूप में स्वीकार करते हुए जीवन-पथ पर निस्स्वार्थ भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए। यह श्रीमद्भगवद्गीता का एक प्रमुख आह्वान है। लोकाचार और नेतृत्व के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता का यह एक उत्कृष्ट और अनुकरणीय पहलू है।

भारत के इतिहास से अनेक ऐसे नेतृत्वकारियों को उद्धृत किया जा सकता है, जिन्होनें श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्त को जीवन में अंगीकार किया; तदनुसार, कर्म-संलग्नता से देश को नेतृत्व प्रदान करते हुए इतिहास रचे। हिन्दुस्तान के पुनर्जागरणकाल एवं देश की अँग्रेजी दासता से मुक्ति हेतु संघर्ष की अवधि में, और स्वाधीनता के उपरान्त राष्ट्र के पुनर्निर्माण के समय के अनेक महान और महानतम भारतीयों के सम्बन्ध में विशेष रूप से यहाँ यह कहा जा सकता है। भारत के ऐसे महान और महानतम सुपुत्रों के नामों से हम सभी परिचित हैं। सैन्य नेतृत्व के लिए, जिसकी प्राथमिकता से प्रतिबद्धता सभी लोगों की सुरक्षा को अपना स्वधर्म मानते हुए (वास्तव में जो मानव-कर्त्तव्य निर्धारण हेतु सापेक्ष नियम है), हर स्थिति व हर रूप में राष्ट्र की रक्षा करना है, श्रीमद्भगवद्गीता के लोकाचार और नेतृत्व-सम्बन्धी सन्देश को अपने जीवन का परम कर्त्तव्य स्वीकार करना, तदनुसार कार्य करना अतिमहत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से, नेतृत्वकर्ताओं के मनोबल को उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए यह प्रतिरक्षक की भूमिका में है, क्योंकि उच्च मनोबल सैन्य नेतृत्वकारियों को शक्ति के साथ ही उत्तरदायित्व भावना से ओतप्रोत करता है।

सैन्य नेतृत्व और उन सैनिकों के लिए यह श्रेष्ठ एवं सर्वकालिक मार्गदर्शन है, जो स्वयं जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण के निम्नलिखित आह्वान (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47) के अनुरूप निस्स्वार्थ भावना से समदेशियों, राष्ट्र और मानवता की रक्षा के लिए, सभी सांसारिक सम्बन्धों, सुख-दुख, सिद्धि-असिद्धि अथवा प्राप्ति-अप्राप्ति और इच्छाओं से दूर रहकर व अपने प्राण हथेली पर रखकर, सदैव ही तैयार रहते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन/

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि//

इसका अर्थ है, तुम्हारा केवल कर्म में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं; कर्म के फल को अपना उद्देश्य मत बनने दो, न ही निष्क्रियता के प्रति तुम्हारी आसक्ति हो।'' दूसरे सरल शब्दों में, "किसी को कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल का नहीं है।"

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

****

 

                     

 

 


 

 

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

कविता— माया - सुश्री कमलेश कुमारी*

        
          जीवन-यात्रा मेँ एक पड़ाव पर,

किसी दिन कुछ स्वरों ने कंपाई श्रवणेंद्रियाँ;

कुछ दृश्यों और सूचनाओं ने कर दिया विचलित,

उस मन को भी, जो करता रहा भ्रम कि

“मैं सुखी हूँ ब्रह्माण्ड मेँ, इस कालांश पर!”

जैसे गिर पड़ा औंधे मुँह पृथ्वी की छाती पर वह सुंदर आकाश,

जिसमें टकी थी चाँद-सितारों के आकर्षण की माया...

     आत्ममंथन के चरमोत्कर्ष पर पड़ते ही अंतर्दृष्टि टूट गया

हृदय भीतर काँच का बर्तन, जिसमें भरा था मिठास का जल

किरचें चुभती हैं आत्मा से लेकर आँखों तक;

और मीठा जल हो गया उदास खारा समन्दर,

जिसके तट पर दृश्य है जीवन की साँझ का।

    तटस्थ खड़े रहकर जितना देखा दुनिया को,

बस पाया ... मेला और बाज़ार व्यावहार का, लेन-देन का!

कहीं रुका मन उस मेले मेँ,

जहाँ रंगरेज़ चढ़ाते थे रंग दुपट्टों पर...

तभी समय की बरखा आई और धो गई सब कच्चे रंग

निर्मल पारदर्शी मन का अपना ही रंग रहा शेष!

     जीवात्मा ढूँढती थी भरोसे का व्यापार,

जिससे कमा सके संसार मेँ सच्चा सुख...

किन्तु विश्वास और निर्वाह की अपेक्षा मे उसे दी गईं

पल प्रति पल मूल्य परिवर्तन करने वाली ‘अस्थिर गोटियाँ’ !

    हो गया उचाट  ...

सुगंध और स्पर्श से, फूलों से देह से

रात्रि भी कटती है चेतना के दीये मेँ

‘तेरे-मेरे’ मन की माया, खुली आँखों से करती है प्रतीक्षा

कार्मिक योग हो पूरा और खुल जाएं क्षितिज के द्वार…

_______________________

*सुश्री कमलेश कुमारी वर्तमान में हरियाणा राज्य के शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं।  

  

 

 

   

 

  

    


 

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

सनातन धर्म में जीवात्मा-सम्बन्धी अवधारणा - प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र कुमार

 

 

सनातन धर्म में जीवात्मा-सम्बन्धी अवधारणा

चार मूलाधारों –एक अविभाज्य समग्रता, सार्वभौमिक एकता, शाश्वत परिवर्तन नियम एवं सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में अहिंसा की प्रकटता के बाद सनातन धर्म में जो अति प्रमुखता से उभरता सिद्धान्त है, वह 'आत्मा' आत्मन्’ (जो विशेष रूप से उपनिषदों की सर्वप्रमुख विषय-वस्तु है; उपनिषदों में अन्तर्निहित वह मूलभूत सत् है, जो शाश्वत तत्त्व है और मृत्यु के उपरान्त भी जिसका विनाश नहीं होता), से जुड़ा हुआ है। वास्तव में, यह जीवात्मा के लिए हैं, जिसकी अविभाज्य समग्रता –परमात्मा अथवा ब्रह्म-परब्रह्म के बाद जगत-व्यवस्था में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थिति है। यही चेतना –जीवन का आधार है। वेदों से लेकर उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता तथा सनातन धर्म के लगभग अन्य सभी प्रमुख ग्रन्थों में अविभाज्य समग्रता की परिधि और व्यवस्था में जीवात्मा की सत्ता, स्थिति व लक्ष्य आदि के सम्बन्ध में उल्लेख प्रकट हुए हैं। परमात्मा के साथ ही आत्मा की वास्तविकता, कर्म-संलग्नता, विषेकर देहत्यागोपरान्त मानवात्मा की स्थिति के बारे में वर्णन आए हैं। इन सभी उल्लेखों-वर्णनों पर धर्मवेत्ताओं एवं दार्शनिकों की व्याख्याएँ और विचार भी हैं। हम जानते हैं कि  वेदों से सम्बद्ध उपनिषदों में "अयं आत्मा ब्रह्म –यह आत्मा ब्रह्म है" (अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक-2), "प्रज्ञानं ब्रह्म –यह प्रज्ञान (परम वास्तविकता –चेतना) ही ब्रह्म है", (ऋग्वेदीय ऐतरेय उपनिषद्, श्लोक 3: 1: 3),"अहं ब्रह्मास्मि –मैं ब्रह्म हूँ" (यजुर्वेदीय बृहदारण्यक उपनिषद्, श्लोक 1: 4: 10) और "तत्त्वमसि –वही ब्रह्म तू है" (सामवेदीय छान्दोग्य उपनिषद्, श्लोक 6: 8: 7) जैसे उल्लेख हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (2: 23) में "नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः/ न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुतः// –इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती; जल से इसे भिगोया नहीं जा सकता और वायु से इसे सुखाया नहीं जा सकता", जैसा श्लोक प्रमुखता से हमारे सामने आता है।

इन सभी उपनिषदीय एवं गीता के उल्लेखों –वेदान्तानुसार का सार यह है कि आत्मा अविभाज्य समग्रता –ब्रह्मरूप (सवर्त्र ब्रह्म=सर्व उत्पत्ति स्रोत+सर्व समावेशी, मुण्डक उपनिषद, 1: 1: 7) है; यह नित्य एवं शाश्वत है। मानव-काया के साथ, पूर्ण वास्तविकता की अनुभूति, सत्यता से साक्षात्कार व एकाकार हेतु सक्षम है। वह अविभाज्य समग्रता –ब्रह्म की परिधि में विद्यमान सार्वभौमिक एकता की एकमात्र सत्यता से परिचित होकर, अपनी दिव्य प्रकृति को प्राप्त करने में समर्थ है। "विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह/ अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते// –जो विद्या-अविद्या, दोनों को ही साथ-साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर, विद्या द्वारा अमृतत्त्व को प्राप्त कर लेता है।" (ईशावास्योपनिषद्, श्लोक-11)

ब्रह्म तथा आत्मा उपनिषदों के सर्वप्रमुख विषय हैं। उपनिषद्, वेदों के अन्तिम भाग हैं, इसीलिए उपनिषदीय दर्शन वेदान्त कहलाता है।  

वेदान्त दर्शन की कई शाखाएँ है। उनमें तीन, आदि शंकराचार्या-विचार केन्द्रित अद्वैत, रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित विशिष्ट अद्वैत तथा मध्वाचार्य द्वारा प्रस्तुत द्वैत प्रमुख हैं।

अद्वैत, ब्रह्म की एकमात्र सत्यता को स्वीकार करता है। जगत को मिथ्या मानता है। जीव की ब्रह्म से भिन्नता को स्वीकार नहीं करता है; इसे ही वेदान्त की सत्यमयी घोषणा कहता है। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः/ अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः// –ब्रह्म ही सत्य वास्तविक है; ब्रह्माण्ड मिथ्या है। जीव ही ब्रह्म है और वह उससे भिन्न नहीं है। इसे ही शास्त्र-सम्मत समझना जाना चाहिए। यही वेदान्त द्वारा घोषित किया गया है।

रामानुजाचार्य विशिष्ट अद्वैत विचार ब्रह्म तथा जगत दोनों को सत्य स्वीकारता है; परन्तु जगत को ब्रह्म से पृथक नहीं मानता। ब्रह्म को सर्वव्यापक सर्वोच्च सत्य –वास्तविकता तथा जीव की उस पर निर्भरता को स्वीकार करता है। दूसरे शब्दों में, विशिष्ट अद्वैत दृष्टिकोण के अनुसार, आत्मन अथवा आत्मा भी शाश्वत है और परमात्मा से भिन्न है, लेकिन वह, तब भी, अस्तित्व एवं कल्याण हेतु ब्रह्म पर निर्भर है।

मध्वाचार्य ने शंकराचार्य और रामानुजाचार्य, दोनों से पृथक, अपना द्वैत विचार प्रस्तुत किया। परमात्मा और आत्मा की (अलग स्वतंत्र अस्तित्व के साथ) पृथकता, परमात्मा व पदार्थ की पृथकता, जीवात्मा एवं पदार्थ की पृथकता, एक-से-दूसरी आत्मा की पृथकता –अनेक आत्माओं के अलग-अलग अस्तित्व तथा एक-से-दूसरी भौतिक वस्तु की पृथकता की बात की। साथ ही, ईश्वर की पूर्ण स्वतंत्र स्थिति व जीव-जगतकी उन पर  आश्रितता एवं परमात्मा के नियंत्रण जैसे विचार भी प्रस्तुत किए।

वैदिक-उपनिषदीय ज्ञान को व्यवस्थित व संश्लेषितकर्ता ब्रह्मसूत्र (वेदान्त सूत्र, जो बादरायण रचित है तथा मानव का अपने मूल स्वरूप को जानने का आह्वान करता है; इस हेतु उसका मार्गदर्शन भी करता है) तीनों ही विचारों –अद्वैत, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत का आधार है। ब्रह्मसूत्र, ब्रह्म को, जैसा कि मैं स्वयं अनुभूत कर पाया हूँ –समझ पाया हूँ, जगत में विद्यमान समस्त चल-अचल व दृश्य-अदृश्य का एकमात्र मूल स्वीकारता है। ब्रह्म ही अविभाज्य समग्रता है। सार्वभौमिक एकता-निर्माता है। आदि शंकर, रामानुजाचार्य तथा मध्वाचार्य, तीनों ने ही ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है। अपने-अपने भाष्यों के माध्यम से अद्वैत, विशष्टाद्वैत और द्वैत-सम्बन्धी अपने-अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। तत्त्वमीमांसात्मक मतभेदों के बाद भी, तीनों विचार ब्रह्म सत्ता –अविभाज्य समग्रता की सर्वोच्चता को मानते हैं। ब्रह्म के उपरान्त, जीवात्मा की महत्ता को सर्वाधिक स्वीकारते हैं। जीव-कर्म को, फल का आधार बनाते हैं। मानव-जीवन की कर्मों द्वारा सार्थकता का प्रतिपादन करते हैं।

सनातन धर्म –वैदिक दर्शन आस्तिकता को समर्पित है। इस दर्शन की समस्त शाखाएँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में, अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता में विश्वास करती हैं। आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं। फिर भी, ब्रह्म और आत्मा के सम्बन्ध में वेदान्त-विचार विश्लेषण अतिश्रेष्ठ और सटीक है। आत्मा स्वयं अनुभूति का विषय है। चेतना, आत्मा का परिचय अथवा साक्षत्कार है। नित्य-अनित्य –सत्य-असत्य, अथवा सद्-असद् का बोध निश्चित रूप से आत्मा या आत्मन के माध्यम से होता है, स्वयं मेरी भी यह स्वीकारोक्ति है। वेदान्त विचार भी इस वास्तविकता को उजागर करता है। आत्मा को सत्ता के रूप में स्वीकार करते हुए, इसे सत्य रूप, शुद्ध प्रकाश –स्वयं प्रकाशमान, सत्यमय 'स्व' मानता है। इसलिए, मेरे विचार से आत्मा-सम्बन्धी वेदान्त दृष्टिकोण से साक्षात्कार करने के उपरान्त किसी अन्य विचार-शाखा के सम्बन्धित परिप्रेक्ष्य के विस्तार में जाने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है, तथा वेदान्त दृष्टिकोण, निस्सन्देह, सनातन धर्म विचार अथवा दर्शन का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

 

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सरदार वल्लभभाई पटेल- प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र कुमार


 

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सरदार वल्लभभाई पटेल

          

वल्लभभाई पटेल बाल्यकाल से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। वे पूर्णतः निर्भीक थे। आलस्यहीन थे। मार्ग में आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा से तनिक भी घबराए बिना, उसे दूर करना उनके स्वभाव में था। उनमें नेतृत्व करने का गुण था। वे बचपन से ही आन्दोलकारी-संगठनकर्ता, कठिन परिश्रमी-लगनशील और न्यायप्रिय भी थे। अपनी युवा अवस्था में वे उत्तरदायित्व-निर्वहन, सेवा व समर्पण जैसी विशिष्टताओं के पोषक एवं एक बेजोड़ उदाहरण के रूप में प्रकट हुए। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण के बाद उनमें ढ़ाई दर्जन से भी अधिक ऐसी विशिष्टताओं का संगम था, जो किसी एक मनुष्य में विरले ही मिल सकती हैं। स्वाधीनता के लिए अग्रिम पंक्ति में रहकर संघर्षकर्ता, एक अद्वितीय किसान नेता (उस समय देश की पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक ग्रामीण जनसंख्या की बहुत ही सुदृढ़ आवाज), अतिकुशल प्रशासक और समाजसुधारक के रूप में अपनी विशिष्टताओं के साथ वल्लभभाई पटेल बारडोली से भारत के सरदार बने। अतिविशेष रूप से देश की अभूतपूर्व भौगोलिक-राजनीतिक एकता जैसे भगीरथ कार्य को पूर्ण कर सरदार पटेल एक महानतम भारतीय के रूप में स्थापित हुए। विशेषकर, एक बेजोड़ राष्ट्रनिर्माता के रूप में सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों से कभी भी पृथक नहीं हो सकते। इस सम्बन्ध में डॉ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उस वक्तव्य से मैं पूर्णतः सहमत हूँ, जिसमें उन्होंने ने कहा है, "जब तक भारत जीवित है, उनका (सरदार पटेल का) नाम वर्तमान भारत के ऐसे राष्ट्रनिर्माता के रूप में सदा स्मरण किया जाता रहेगा, जिन्होंने सभी...भारतीय देशी राज्यों का एकमात्र संघ बनायाI उनका यह कार्य हमारे देश के एकीकरण की दिशा में अत्यधिक स्थाई कार्य थाI इस विषय में उनके कार्य को हम कभी नहीं भूल सकते...और जैसा कि मैंने कहा है, जब तक भारत जीवित है, वर्तमान भारत के निर्माता के रूप में उनका नाम सदा स्मरण किया जाता रहेगाI” सरदार साहेब भारत के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का अभिन्न भाग बनने के साथ ही विश्व इतिहास में भी अपना स्थान बना सके। विशुद्धतः राष्ट्र और मानवता को समर्पित सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन, उनके कार्य और दीर्घकाल तक प्रासंगिक रहने वाले वृहद् कल्याणकारी विचार, वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ी गई उनकी विरासत है। सबसे पहले सरदार साहेब के जीवन की श्रेष्ठ गुणों के समान विशिष्टताओं से वर्तमान पीढ़ी का परिचय कराना उनकी 150वीं जन्मजयन्ती पर उनके स्मरण, उन्हें श्रद्धांजलि देने और उनके बेजोड़ पुरुषार्थ को नमन करने का श्रेष्ठ मार्ग अथवा माध्यम है।  

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैंI

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...