शनिवार, 24 अगस्त 2024

श्रीमद्भगवद्गीता से जो मैंने सीखा- प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र कुमार (पद्म श्री से सम्मानित)


 श्रीमद्भगवद्गीता से जो मैंने सीखा 

अठारह अध्यायों में विभक्त और कुल सात सौ श्लोकों से सुसज्जित श्रीमद्भगवद्गीता मानव व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास और जीवन-सार्थकता के लिए कटिबद्ध वह अनुपम, अद्वितीय और एकमात्र कृति है, जिसका प्रत्येक श्लोक और हर एक शब्द, केवल और केवल, सत्य के बल पर स्वाभाविक, सरल और सर्वसुलभ मार्ग के माध्यम से विशुद्धतः मावनोत्थान के लिए ही है। सत्यता अथवा शाश्वतता और सरलता, ये दो, श्रीमद्भगवद्गीता की ऐसी विशिष्टताएँ हैं, जो इसे सर्वकालिक और अद्वितीय बनाती हैं। प्रथम शाश्वतता अथवा सत्यता लक्ष्य को, जबकि सरलता, सुलभता को समर्पित है।    

श्रीमद्भगवद्गीता में दर्शन की पराकाष्ठा है एवं धर्म की सर्वोत्कृष्ट व्याख्या है। मानव-जीवन में संस्कृति की भूमिका, योगदान और महत्त्व का ज्ञान है। इसमें उच्चतम नैतिकता और मानवता की भी व्याख्या है। अति संक्षेप में कहें, तो श्रीमद्भगवद्गीता में सर्वत्र सत्य ज्ञान है। सत्य अनुभूति, सत्य पथानुगमन और अन्ततः सत्य के प्रति निष्ठा, भक्ति अथवा समर्पण का, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, सबके लिए सुलभ मार्ग है।

साथ ही, जीवन से सम्बद्ध समस्त क्षेत्रों एवं सभी क्षेत्रों में भी समस्त स्तरों से जुड़ी समस्याओं के मूल कारण और निदान का मार्ग भी है। निराशा के आशा में रूपान्तरण और मानव में भरपूर उत्साह संचार द्वारा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया के सदुपयोग की ओर अग्रसर होने के ग्राह्य सन्देश के साथ उसका आह्वान भी है।  स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया के सदुपयोग के अपने अभूतपूर्व आह्वान और दिखाए गए मार्ग के कारण ही श्रीमद्भगवद्गीता शताब्दियों से वृहद् जनकल्याण के उद्देश्य से विश्वजन की पथप्रदर्शिका के रूप में स्थापित हो सकी। यह आधुनिककाल में अरविन्द घोष (जीवनकाल: 1872-1950 ईसवीं), बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों के जनकल्याण को समर्पित जीवन, कार्यों तथा विचारों का आधार बन सकी। हेनरी डेविड थोरो (जीवनकाल: 1817-1862 ईसवीं), ऐल्डस (लॅनर्ड) हक्स्ले (जीवनकाल: 1894-1963 ईसवीं) व अल्बर्ट श्वित्जर (जीवनकाल: 1875-1965 ईसवीं) जैसे चिन्तकों-विद्वानों, और अल्बर्ट आइन्स्टीन (जीवनकाल: 1879-1955 ईसवीं) जैसे महान पाश्चात्य वैज्ञानिक को गहराई तक प्रभावित कर सकी।      

श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वकालिकता के सम्बन्ध में अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर श्री अरविन्द ने यह कहा है कि प्रत्यक्ष अनुभव से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान युग में भी उतनी ही नव्यतापूर्ण और स्फूर्तिदायक है, जितनी कि (वह) महाभारत में समाविष्ट होते समय (थी)। लोकमान्य तिलक ने गीता को शास्त्रों में हीरा स्वीकार किया है, और महात्मा गाँधी ने गीता को वह माता माना है, जो किसी भी परिस्थिति में, और सदैव ही, अपनी सन्तान को सम्बल देने में साथ रहती है।

सामान्यतः यदि यह कहें कि माता मुक्ति द्वार तक साथ रहती है, तो बात कुछ अटपटी लग सकती है।  लेकिन, माता के रूप में गीता तो मुक्ति द्वार तक साथ निभाती है, यह अपने आप में अतिविशिष्ट स्थिति है।

अन्याय के विरुद्ध राज्य की अवज्ञा विचार के समर्थक हेनरी डेविड थोरो ने श्रीमद्भगवद्गीता के समक्ष अन्य सभी विचारों की तुच्छता की बात की। हक्स्ले ने गीता को सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वीकार किया, और धर्मशास्त्री अल्बर्ट श्वित्जर ने इसे मानव की आत्मा व कर्मों की श्रेष्ठता प्रकट करने वाली अनुपम कृति कहा।

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने स्वीकारा कि उन्हें ब्रह्माण्ड को रचने वाले, व (स्वयं) ब्रह्माण्ड-रचना का विचार भी श्रीमद्भगवद्गीता से प्राप्त हुआ। इसी के माध्यम से उनके भीतर निरासक्ति भावना उत्पन्न हुई।      

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव और प्रेरणा से जुड़े ये तो कुछेक ही उदाहरण हैं। ये मात्र संयोगवश ही हैंI सम्पूर्ण वृतान्त को किसी एक लेख या व्याख्यान के माध्यम से प्रस्तुत किया जाना सम्भव नहीं है। लेकिन, यह वास्तविकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता ने भारत के साथ ही विश्वभर में असंख्य जन, आम और खास, के जीवन को गत हजारों वर्षों की समयावधि में प्रभावित किया है। उनका सुयोग्य मार्गदर्शन कर, उन्हें सशक्त मार्ग प्रदान किया है। अनेक का मार्गदर्शन कर उन्हें युगपुरुषों के रूप में स्थापित भी किया है।    

श्रीमद्भगवद्गीता में, जैसा कि मैंने प्रारम्भ में ही कहा है, दर्शन की पराकाष्ठा है। इसमें धर्म-संस्कृति की श्रेष्ठतम व्याख्या है। यह योग –सत्य से एकाकार करने के कई मार्ग मानव के समक्ष रखती है। तीन प्रमुख योगों, ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के सम्बन्ध में तो गीता सामान्यतः लोकप्रिय है ही।

गीता की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह है कि जिसने, जिस रूप में, या मार्ग से भी इसके माध्यम से सत्य की खोज की; योगेश्वर द्वारा गीता के माध्यम से निर्देशित मार्ग का अनुसरण किया, वह उसी मार्ग से सत्य तक पहुँचा। वासुदेव कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उन (सत्य की पराकाष्ठा) के पास श्रद्धा-समर्पण के साथ किसी भी रूप में, किसी भी मार्ग अथवा माध्यम से (पत्र, पुष्प, फल या जल के साथ भी) आने वाले, निश्चिततः उन्हें ही प्राप्त होते हैं:

 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति/

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन://"

              शताब्दियों से धर्मवेत्ताओं, विद्वानों और चिन्तकों ने श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वकालिक महत्ता और श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है। इस सन्दर्भ में, आधुनिककाल के ही तीन भारतीयों, श्री अरविन्द, लोकमान्य तिलक और महात्मा गाँधी का हमने उल्लेख भी किया है, जिन्होंने गीता-मार्ग से समर्पित होकर अपने जीवन को सार्थक करने की दिशा में निरन्तर पुरुषार्थ भी किए।

श्रीमद्भगवद्गीता के अपने गहन अनुशीलन से जो मैंने अतिश्रेष्ठता के रूप में पाया है, वह है इसमें हर ओर व्याप्त एवं प्रवहमान सत्यता अथवा शाश्वतता और इसकी सरलता। इस आलेख के प्रारम्भ में ही मैंने यह बात कही है।   

अविभाज्य समग्रता ही एकमात्र सत्यता है। वे ही परमेश्वर अथवा परमात्मा हैं। परमात्मा और उनका (अथवा उनके रूप में) दृश्य-अदृश्य व चल-अचल ब्रह्माण्ड का सञ्चालनकर्ता निरन्तर प्रवहमान सार्वभौमिक नियम एक की है। सार्वभौमिक नियम की शाश्वतता से कोई भी मना नहीं कर सकता। जो ईश्वरीय सत्ता को नकारते हैं अथवा किसी ब्रह्म-सत्ता को स्वीकार नहीं करते, वे, वास्तव में, दोनों, शाश्वत सार्वभौमिक नियम और ब्रह्म, परमेश्वर, परमात्मा अथवा ईश्वर को (जो अविभाज्य समग्रता के ही नाम हैं), भिन्न-भिन्न मानते हैं। लेकिन, ऐसा नहीं है। दोनों एक ही हैं।              

सब कुछ, चल-अचल और दृश्य-अदृश्य, उसी अविभाज्य समग्रता की परिधि में है। उसी का अनन्य भाग है। उसी एक मूल से उत्पन्न अथवा प्रकट या निर्मित है। सत्य के प्रतीक योगेश्वर श्रीकृष्ण का श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से दिया गया और सार्वभौमिक एकता का निर्माण करता हुआ यह मूल एवं शाश्वत सन्देश है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन से पग-पग पर यही वास्तविकता प्रकट होती है। विशेष रूप से गीता के नवम और दशम अध्याय में स्वयं योगेश्वर द्वारा इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। नवम अध्याय के अठारहवें श्लोक में प्रकट है:

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्/ प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्// –परम लक्ष्य, पालक, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली और सर्वप्रिय मित्र मैं (सत्यस्वरूप सर्वेकता निर्माता) ही हूँ; सृष्टि और प्रलय, सर्वाधार, सर्वाश्रय और अविनाशी बीजस्रोत भी मैं ही हूँ।       

गीता के दशम अध्याय के बीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं:

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:/अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च// –मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ; सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।

इसी प्रकार, श्लोकों के बढ़ते क्रम में, सरल व ग्राह्य भाव से इसी अध्याय के उनतालीसवें श्लोक के माध्यम से वे पूर्णतः स्पष्टता से कहते हैं, यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन/ न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्// –सर्वभूत मूल बीज, उत्पत्ति का कारण (अविभाज्य समग्रता रूप में) मैं ही हूँ। चराचर अथवा भूत प्राणी में ऐसा कोई नहीं है, जो मेरे बिना हो। मेरे से रहित होना सत्ता (सत्य) रहित होना होगा। इसलिए, सर्वत्र मेरा ही स्वरूप है, मुझ पर ही आधारित है। 

यही क्रम, जैसा कि उल्लेख किया है, श्रीमद्भगवद्गीता में लगातार, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बना रहता है। संक्षेप में, गीताध्ययन से यह सत्यता, सरलता के साथ, मानव के लिए एक ऐसी सीख के रूप में, जैसा कि मैंने स्वयं जाना और समझा है, निरन्तर प्रकट होती है, जो उसके जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करने –जीवन-सार्थकता का मार्ग प्रशस्त करने का अचूक और अद्वितीय माध्यम बनती है।  

कर्म स्वाभाविक हैं; कर्म-प्रक्रिया ही जीवन है। विपरीत इसके, कर्म-अन्त का अर्थ जीवन का अन्त है। कर्म-स्थिति अविकल्पनीय है। अविभाज्य समग्रता की सत्यता के प्रतीक और सार्वभौमिक एकता के निर्माता प्रभु ने श्रीमद्भगवद्गीता में यह वास्तविकता बहुत ही सरल, सहज एवं ग्राह्य वार्ता के माध्यम से मानव के समक्ष रखी है। प्रभु ने कर्म के रूप में उसे प्रदत्त अद्वितीय अधिकार का स्मरण कराते हुए, कर्म को सुकर्म बनाने का उसका आह्वान किया है।

सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता को शिरोधार्य कर, प्रत्येक कर्म को अविभाज्य समग्रता के ही केन्द्र में रखकर, तथा उसी को समर्पित कर निष्पादित करना चाहिए। निज से बाहर आकर इच्छा, कामना, तृष्णा, मोह, लालसा, वासना, आदि जैसी एकांगी एवं अनाधिकारिक प्रवृत्तियों को त्यागकर और फल की इच्छा को, जो उसका अधिकार ही नहीं है, पूर्णतः छोड़कर सर्वकल्याण को समर्पित कर्मों में संलग्नता होनी चाहिए। यही सुकर्म हैI साधारण शब्दों में निष्काम कर्मयोग है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन/ मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि// (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47)

सर्वकल्याण में ही अपने कल्याण को स्वीकार करना; भय-शंका, राग-द्वेष, सुख-दुख की स्थिति में सम रहते हुए, सर्व कल्याणार्थ जीवन-पथ पर अग्रसर रहना ही कर्म निस्स्वार्थता है। यही श्रीमद्भगवद्गीता की वह सीख है, जिसे मैंने जाना और समझा है। कर्म करना ही मानव का अधिकार है और फल की इच्छा करना योग्य नहीं, गीता के इस सन्देश के मूल में रहने वाली सत्यता कि सम्पन्नता और प्रतिष्ठा तो निस्स्वार्थ भावना और समर्पित होकर किए कार्य के स्वाभाविक पारितोषिक हैं, श्रीमद्भगवद्गीता से मैंने यह भी जाना है। यही सत्य और सरल मार्ग है, जो जीवन को सार्थक कर सकता है। मनुष्य को उसके सत्य-प्राप्ति के लक्ष्य तक ले जा सकता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

 

बुधवार, 14 अगस्त 2024

सनातन: व्युत्पत्ति, शब्द का मूल और उद्देश्य


 

सनातन: व्युत्पत्ति, शब्द का मूल और उद्देश्य

 

सनातन शब्द ‘सना’ (‘सन्’+’आ’) और ‘तन’ की सन्धि से बना है। 'सन्' सदैव का द्योतक है। अर्थात्, आदि और अन्त की सीमा से परे जो शाश्वत है; जो वास्तविक है, सदा ही स्थापित एवं सत्य है। '', कंठ-उच्चारित प्रथम अक्षर '' का दीर्घ रूप है तथा कर्ता का सूचक है। ‘सना’ (‘सन्’+’आ’ के जोड़) का जो अच्छा अभिप्राय सामने आता है, वह सदा विद्यमान स्थिति का प्रकटकर्ता है। अटलता को प्रदर्शित करता है। 'तन', ढाँचे या नियम अथवा व्यवस्था के अर्थ में है। पूरे सनातन शब्द का श्रेष्ठ और सर्वमान्य अर्थ सदा विद्यमान या सदैव स्थापित सत्य को समर्पित नियम, ढाँचा अथवा व्यवस्था है।

अब प्रश्न यह है कि सनातन शब्द का उद्गम स्थान कौन-सा है? दूसरे शब्दों में, सनातन शब्द सबसे पहले कहाँ प्रकट हुआ है? यह जानना अति आवश्यक है, क्योंकि आजकल इस सम्बन्ध में भाँति-भाँति की चर्चाएँ हो रही हैं। सनातन शब्द को लेकर तर्क-वितर्क हो रहे हैं। ऐसे तर्क-वितर्कों से कई बार सनातन शब्द की वास्तविकता की अनदेखी के साथ ही इसकी अति उच्च गरिमा को निम्न करने के प्रयास भी सामने आते हैं, यद्यपि सत्यता –शाश्वतता को समर्पित सनातन शब्द की गरिमा एवं गौरव कभी भी कम नहीं हो सकते।

सनातन शब्द का सर्वप्रथम प्राकट्य विश्व के सबसे प्राचीन वैदिक ग्रन्थ ऋग्वेद में ही हुआ है। ऋग्वेद की लिपिबद्धता का काल अति प्राचीन है। मत-मतान्तरों के बाद भी भारत के साथ ही विदेशी विद्वानों द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि इसकी लिपिबद्धता तथागत गौतम बुद्ध के जन्म से अनेक शताब्दियों पूर्व हुई। 'धर्म' के बहुवचन 'धर्माणि' के साथ ही 'सनातन' (सनता) शब्द ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के तृतीय सूक्त के प्रथम मंत्र में प्रकट है। अति सरल शब्दों में कहें, तो इस मंत्र द्वारा अग्नि के अपरिवर्तनीय (शाश्वत) गुणों की सनातनता को उद्धृत करते हुए विद्वान जन से सदैव ही श्रेष्ठ आचरणों की अपेक्षा की गई है। ऐसा करने से वे दोषमय नहीं होते; वे, वास्तव में, वृहद् कल्याणार्थ सत्यज्ञान प्रदान कर अपने स्वभावों को गौरवान्वित करते हैं; सनातन धर्माचरण करते हैं।

ऋग्वेद के इस पूरे मंत्र (3: 3: 1) के अनुसार:

"वैश्वानराय पृथुपाजसे विपो रत्ना विधन्त धरुणेषु गातवे/

अग्निर्हि देवाँ अमृतो दुवस्यत्यथा धर्माणि सनता न दूदुषत्//"

अर्थात्, "जैसे अग्नि अपने सनातन गुण, कर्म, स्वभावों को अक्षुण्ण रखते हुए दोषमुक्त है, उसी प्रकार विद्वान लोग जन-हितार्थ विद्या (सत्यज्ञान) प्रदान करते हुए अपने स्वभावों को भूषित करते हैं। वे धर्माचरण करते हैं।"         

निस्सन्देह, अग्नि को केन्द्र में रखकर, उसके गुण, कर्म, स्वभावों –तेज, ऊर्जा, प्रकाश आदि को उद्धृत करते हुए सनातन की मूल भावना यहाँ स्पष्टतः प्रकट है। यह स्पष्टता अपरिवर्तनीय –सदा स्थापित रहने वाली स्थिति को सामने लाती है। आदि एवं अन्त की स्थिति से परे सनातन की सत्यता को दर्शाती है।

मूलतः ऋग्वेद में प्रकट सनातन शब्द पुराणों, मनुस्मृति और श्रीमद्भगवद्गीता में भी उल्लिखित है। विशेषकर शिवपुराण (2: 2: 16) में सनातन शब्द अविनाशी और मनुस्मृति (4: 138 ) में सत्य का प्रतिरूप है। श्रीमद्भगवद्गीता (14: 27) में जो शाश्वत शब्द आता है, वह भी सनातन के पर्याय के रूप में ही है।

पुराणों, स्मृतियों, रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता सहित महाभारत के रचनाकाल-निर्धारण के सम्बन्ध में विषय-विशेषज्ञों, विद्वानों और अनुसंधानकर्ताओं के मध्य, जाने-अनजाने, मतभेद हैं। मैं ऐसे मतभेदों की चर्चा यहाँ नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन, साथ ही, मैं अपनी इस बात पर तो दृढ़ हूँ कि सनातन शब्द अपनी मूल भावना के साथ सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्रकट हुआ है।

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि शाक्यमुनि गौतम के जीवनकाल से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में वैदिककाल था। वैदिक काल में वेदों का अस्तित्व था। बौद्ध सूत्रों –गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में वेदों का उल्लेख है। तथागत द्वारा मज्झिमनिकाय में सावित्री (गायत्री) मन्त्र को वैदिक ऋचाओं की गरिमा एवं गौरव घोषित करने का प्रसंग आता है।

यही नहीं, इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रामाणिक बात भी सामने आती है। गौतम बुद्ध आनन्द के साथ वैशाली-मार्ग पर थे। दोनों के मध्य वार्तालाप चल रहा था। उस वार्तालाप में शाक्यमुनि ने 'तब तक वज्जियों के कल्याण की बात की, जब तक कि वे पूर्व स्थापित को स्वीकार करते हुए कार्य करें'। पूर्व स्थापित क्या? वह, जो वैदिककाल में व्यवस्था का आधार था; ‘सभा’, ‘समिति’ और ‘विदथ’ जैसी लोकतान्त्रिक संस्थाएँ जिसमें शासन की रीढ़ थीं।

तथागत गौतम बुद्ध की, जैसा कि हम सभी जानते है, करुणा और वृहद् स्तरीय मानव-समानता केन्द्रित मानवतावादी शिक्षाओं में सनातन शब्द सामने आता है। उदाहरणार्थ, धम्मपद (यमक वग्गो-5) में उल्लेख है, "एस धम्मो सनन्तनो –यही सनातन धर्म है", अर्थात्, सदा से चला आ रहा नियम है।

ऋग्वेद के उद्धृत मन्त्र (3: 3: 1) में वर्णित शब्द सनातन और इसी शब्द के तथागत गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में हुए उल्लेख, दोनों की मूल भावना एक समान है। इसके माध्यम से सदाचार (उदारता, बन्धुत्वता और शुद्ध हृदयता के साथ सजातीयों के कल्याण) का मानवाह्वान है। सदाचार ही जीवन-सार्थकता का मार्ग है; यही सनातन व्यवस्था अथवा नियम है। इस शब्द का उद्देश्य स्वाभाविक प्रतिफल को स्पष्ट करते हुए सदैव स्थापित शाश्वत नियम की वास्तविकता को दर्शाना है। अन्ततः अपरिवर्तनीय सत्य को प्रकट करना है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I****

 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

विश्व के मूलनिवासी समुदाय ही संवैधानिक अधिकार और न्याय के असली, नायक, मानवता के योद्धा, जंगल, जल, जमीन तक के सच्चे ट्रस्टी हैं: डॉ. कमलेश मीना।

 

विश्व के मूलनिवासी समुदाय ही संवैधानिक अधिकार और न्याय के असली, नायक, मानवता के योद्धा, जंगल, जल, जमीन तक के सच्चे ट्रस्टी हैं: डॉ. कमलेश मीना।

 

हम सभी को मूलनिवासी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ, बधाइयाँ एवं अभिनंदन!

 

स्वदेशी जन दिवस मनाने का उद्देश्य स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करना है। स्वदेशी लोगों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। आइए इस खूबसूरत उत्सव और अंतर्राष्ट्रीय दिवस के माध्यम से विश्व के मूल निवासियों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के बारे में और जानें। हम सभी को याद रखना चाहिए कि यह केवल एक दिवस मनाने का कार्यक्रम नहीं है, यह विश्व मूलनिवासी दिवस का उद्देश्य उन सबसे पिछड़े, उत्पीड़ित, वंचित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सम्मान और आदर देना है, जिन्होंने प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समुदायों के लिए जबरदस्त अपनी कला, संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों और स्वदेशी प्रथाओं के ज्ञान और विशेषज्ञता के माध्यम से हमेशा बलिदान और योगदान दिया। विश्व के स्वदेशी लोगों का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस विश्व स्वदेशी दिवस के इतिहास और महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाता है। यह मातृ प्रकृति को बढ़ावा देने जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने में समुदाय द्वारा किए गए योगदान और प्रभावों को भी मान्यता देता है।

 

विश्व के स्वदेशी लोगों का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2024 'स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा' पर केंद्रित है। स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में रहने वाले स्वदेशी लोग जंगल के सबसे अच्छे संरक्षक हैं। यह दिन हमें एक मजबूत समुदाय से जोड़ता है जो प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों, जंगल, जल, जमीन को बचाने और संरक्षित करने के लिए हमेशा अपने जीवन का बलिदान देता है। विश्व आदिवासी दिवस का महत्व: एक बची हुई दुनिया, समुदाय और पर्यावरण के सच्चे संरक्षक को बचाने का प्रयास: आदिवासियों के मौलिक अधिकारों की सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है। पहली बार, जनजातीय या स्वदेशी लोग दिवस 9 अगस्त 1994 को जिनेवा में मनाया गया था। अब अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी लोग दिवस उत्सव मानवता और मानवतावाद का अभिन्न अंग बन गया है। इस अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी लोग दिवस के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं: भाषा संरक्षण: यूनेस्को लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से परियोजनाओं का समर्थन करता है। शिक्षा: यूनेस्को यह सुनिश्चित करने के लिए काम करता है कि स्वदेशी बच्चों और युवाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले जो उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती हो और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करती हो। सांस्कृतिक विरासत: यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है। नीति वकालत: यूनेस्को उन नीतियों की वकालत करता है जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों का सम्मान करते हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके समावेश को बढ़ावा देते हैं। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2024 स्वदेशी युवाओं के लचीलेपन और योगदान का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है। उनके सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करते हुए। परिवर्तन के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, विषय स्वदेशी नेताओं की अगली पीढ़ी को समर्थन और सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो यह हमारी दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है।बेहतर विश्व के लिए हमें स्वदेशी समुदायों की आवश्यकता है।

विश्व में अनुमानित 476 मिलियन मूलनिवासी लोग 90 देशों में रहते हैं। वे दुनिया की आबादी का 6 प्रतिशत से भी कम हिस्सा बनाते हैं, लेकिन सबसे गरीब लोगों में से कम से कम 15 प्रतिशत हैं। वे विश्व की अनुमानित 7,000 भाषाओं में से अधिकांश भाषाएँ बोलते हैं और 5,000 विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वदेशी लोग अद्वितीय संस्कृतियों और लोगों और पर्यावरण से संबंधित तरीकों के उत्तराधिकारी और अभ्यासकर्ता हैं। उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विशेषताओं को बरकरार रखा है जो उन प्रमुख समाजों से अलग हैं जिनमें वे रहते हैं। अपने सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद, दुनिया भर के स्वदेशी लोग अलग-अलग लोगों के रूप में अपने अधिकारों की सुरक्षा से संबंधित सामान्य समस्याएं साझा करते हैं। स्वदेशी लोग वर्षों से अपनी पहचान, अपने जीवन के तरीके और पारंपरिक भूमि, क्षेत्रों और प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकार को मान्यता देने की मांग कर रहे हैं। फिर भी, पूरे इतिहास में, उनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। आज मूलनिवासी लोग यकीनन दुनिया के सबसे वंचित और कमजोर समूहों में से एक हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब मानता है कि उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी विशिष्ट संस्कृतियों और जीवन शैली को बनाए रखने के लिए विशेष उपायों की आवश्यकता है। इन जनसंख्या समूहों की जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, हर 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है, जिसे 1982 में जिनेवा में स्वदेशी आबादी पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक की मान्यता में चुना गया था। यह कार्यक्रम उन उपलब्धियों और योगदानों को भी मान्यता देता है जो स्वदेशी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने के लिए करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय दिवस का उद्देश्य स्वदेशी लोगों द्वारा सामना किए गए दर्दनाक इतिहास को पहचानना और अपने समुदायों का जश्न मनाना है। स्वदेशी लोगों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर में स्वदेशी लोगों की अनूठी संस्कृतियों, योगदानों और चुनौतियों को पहचानने और उनका जश्न मनाने के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह दिन स्वदेशी आबादी के अधिकारों की रक्षा करने और उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समावेशन को बढ़ावा देने की आवश्यकता की याद दिलाता है। यूपीएससी की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों को विश्व के स्वदेशी लोगों के बारे में अवश्य जानना चाहिए। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाना स्वदेशी समुदायों के बुनियादी अधिकारों की वकालत का एक मंच है। स्वदेशी समुदायों की गिरावट सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरा है और यह दिन स्वदेशी लोगों की सुरक्षा, संरक्षण और पहुंच का अवसर प्रदान करता है। वैश्विक स्तर पर लगभग 476 मिलियन स्वदेशी लोग हैं, जो 90 देशों में फैले हुए हैं। वे दुनिया की आबादी का लगभग 6% हिस्सा बनाते हैं और 5,000 से अधिक विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया भर में स्वदेशी लोग अक्सर अद्वितीय सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखते हैं और अपनी पैतृक भूमि और प्राकृतिक संसाधनों से गहरा संबंध रखते हैं, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से स्थायी रूप से प्रबंधित किया है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) स्वदेशी लोगों के अधिकारों के समर्थन और वकालत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यूनेस्को स्वदेशी भाषाओं को संरक्षित करने, शिक्षा और साक्षरता को बढ़ावा देने और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए काम करता है। कुछ प्रमुख पहलों में शामिल हैं: भाषा संरक्षण: यूनेस्को लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से परियोजनाओं का समर्थन करता है।

शिक्षा: यूनेस्को यह सुनिश्चित करने के लिए काम करता है कि स्वदेशी बच्चों और युवाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले जो उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती हो और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करती हो। सांस्कृतिक विरासत: यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है। नीति वकालत: यूनेस्को उन नीतियों की वकालत करता है जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों का सम्मान करती हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके समावेश को बढ़ावा देती हैं।

विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2024 स्वदेशी युवाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करते हुए उनके लचीलेपन और योगदान का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है। परिवर्तन के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, विषय स्वदेशी नेताओं की अगली पीढ़ी को समर्थन और सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।

 

2024 की थीम 'स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करना।' हर साल 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय विश्व स्वदेशी दिवस दुनिया भर में स्वदेशी आबादी के बारे में जागरूकता फैलाने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए मनाया जाता है। दुनिया भर में स्वदेशी आबादी प्रकृति के साथ घनिष्ठ संपर्क में रहती है। वे जिन स्थानों पर रहते हैं, वे दुनिया की लगभग 80% जैव विविधता का घर हैं। यह दिन दुनिया के पर्यावरण की रक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए योगदान को भी मान्यता देता है। भारत में मूलनिवासी आबादी को अनुसूचित जनजाति के नाम से भी जाना जाता है।

संयुक्त राष्ट्र ने 23 दिसंबर, 1994 को 9 अगस्त को इस दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया। इस दिन 1982 में स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक हुई थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1995-2004 को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया। इसने 2005-2015 के दशक को दूसरा अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया। स्वदेशी लोग: यूनेस्को के अनुसार, स्वदेशी आबादी वैश्विक भूमि क्षेत्र के 28% हिस्से पर कब्जा करती है। उनकी कुल आबादी लगभग 500 मिलियन है। स्वदेशी आबादी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। उनमें से कई लोग हाशिए पर रहने, अत्यधिक गरीबी और अन्य मानवाधिकार उल्लंघनों से जूझ रहे हैं। उन्हें अभी भी स्वास्थ्य सेवा तक उचित पहुंच नहीं है। अपनी ज़मीन खोने और पर्यावरणीय कारणों से उन्हें खाद्य असुरक्षा का भी सामना करना पड़ता है। भारत में मूलनिवासी लोग: भारत में मूल निवासियों को अनुसूचित जनजाति भी कहा जाता है। अनुसूचित जनजातियों को भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पहला निवासी माना जाता है। उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे कम उन्नत माना जाता है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे मध्य भारतीय राज्यों में पाए जाने वाले 4 मिलियन की आबादी वाले गोंड भारत की सबसे प्रमुख जनजातियों में से एक हैं। पश्चिमी भारत के भील, पूर्वी भारत के संथाल और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के अंडमानी भारत की कुछ प्रमुख जनजातियाँ हैं। आदिवासियों ने अपने ज्ञान का उपयोग न केवल अपने लिए बल्कि पूरे देश के लिए किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को याद करते हुए 'आज़ादी के अमृत महोत्सव' का समापन किया गया। यह आदिवासियों के राष्ट्र प्रेम का अमृत ही था जिसने सिद्दू और कान्हू, तिलका और मांझी, बिरसा मुंडा आदि जैसे वीर योद्धाओं को जन्म दिया।

 

जनजातीय जगत और ज्ञान परंपरा स्वयं विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, आयुर्वेद, होम्योपैथ, भौतिक चिकित्सा, योग और ध्यान की विकिपीडिया है। आदिवासियों को आपदा, प्राकृतिक आपदा, रक्षा एवं विकास का अद्भुत ज्ञान है। ऐतिहासिक किताबों और ग्रंथों में इस बात का जिक्र मिलता है कि किस तरह मुगलों या अंग्रेजों ने पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया लेकिन जब उन्होंने आदिवासी इलाकों में घुसने की सोची तो उन्हें हार का सामना करना पड़ा। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि हम वास्तव में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, तो देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के अवसरों को न केवल आसान बनाने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामीणों या आम लोगों के लिए आविष्कार उपलब्ध कराना। इन्हें वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग में लाने की जरूरत है। आदिवासियों या वनवासियों की अपनी मिट्टी के प्रति प्रतिबद्धता, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण और सम्मान है। आदिवासी लोग अपने जनसंचार माध्यमों के माध्यम से देश को न केवल आजाद कराने बल्कि उसे जगाने का काम भी करते रहे हैं। इस बात से कोई इनकार और उपेक्षा नहीं कर सकता कि बंगाली लोकनाट्य 'जात्रा' का आजादी की लड़ाई में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ था। लोकगीत के पारंपरिक रूप 'पाला' का प्रयोग भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जनजागरण में भी किया गया था। यूं तो इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां आदिवासियों ने जनसंचार माध्यमों के जरिए आजादी की लौ जलाए रखी।

 

ऐसे में अगर हम आदिवासियों के इस ज्ञान, अनुभव, विशेषज्ञता और, शिक्षा को अपनाएं तो आदिवासियों की यह देशी ज्ञान परंपरा देश और दुनिया के लिए सशक्त समाधान का माध्यम बन सकती है, अब इस स्वदेशी को पहचानने की जरूरत है ज्ञान दें और इसे वैज्ञानिक मान्यता दें। हमेशा याद रखें कि यह दिन स्वदेशी लोगों के अपने निर्णय लेने और उन्हें उन तरीकों से लागू करने के अधिकारों पर प्रकाश डालता है, सशक्त बनाता है जो उनके लिए सार्थक और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त हों। संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने अपने प्रस्ताव 49/214 में, हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह विश्व स्तर पर स्वदेशी आबादी के अधिकारों और जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। मूलनिवासियों के महत्व और उनके अर्थ को विस्तार से समझाने के उद्देश्य से यह दिन मनाया जाता है। इसे हमेशा दिल और दिमाग में रखें कि स्वदेशी लोग एक विशिष्ट क्षेत्र या देश के मूल निवासी जातीय समूह हैं, जिनकी अपनी पहचान के साथ विशिष्ट संस्कृतियां, परंपराएं, भाषाएं और मान्यताएं हैं।

 

हमें इस बात की सराहना करनी चाहिए कि विश्व आदिवासी दिवस, विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस, आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह आयोजन उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करता है जो आदिवासी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने में करते हैं। दुर्भाग्य से आज यह सबसे कमजोर समुदाय है और हम सभी को उन्हें बचाने, उनकी कला, स्वदेशी प्रथाओं के ज्ञान और प्रकृति की गहरी समझ को संरक्षित करने के लिए आगे आने की जरूरत है। न केवल आज बल्कि हर दिन, पूरी दुनिया को अपने भविष्य की योजना बनाने के लिए स्वदेशी लोगों के अधिकारों के पीछे खड़ा होना चाहिए। आइए हम सब मिलकर शांति, सम्मानजनक, सुरक्षित और सम्मान से जीने के उनके अधिकारों की रक्षा करें। दोस्तों, आज नहीं बल्कि हर दिन, विश्व समुदाय को अपने भविष्य की योजना बनाने के लिए मूल निवासियों के अधिकारों के पीछे खड़ा होना चाहिए। इस ग्रह पर, यही एकमात्र समुदाय है जो हमें सुरक्षित, स्वस्थ और सतत विकास, ऊर्जा, सुरक्षात्मक जीवन और हर संघर्ष का शांतिपूर्ण समाधान दे सकता है। इन विशेषताओं को हमारे दिलो-दिमाग में हमेशा बनाए रखने की जरूरत है ताकि हम सभी अपने व्यक्तिगत जीवन में एक समझदार, संवेदनशील और सार्वजनिक सरोकार वाला व्यवहार विकसित कर सकें।

 

 

 

सादर।

 

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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शनिवार, 29 जून 2024

स्वतंत्रता सेनानी और राजस्थान के प्रमुख हिंदी समाचार पत्र दैनिक नवज्योति के संस्थापक कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी जी की 32वीं पुण्य तिथि के अवसर पर हम भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। दैनिक नवज्योति समाचार पत्र वर्तमान में निष्पक्ष, ईमानदार, तटस्थ और समावेशी पत्रकारिता का प्रतीक है: डॉ कमलेश मीणा।


 स्वतंत्रता सेनानी और राजस्थान के प्रमुख हिंदी समाचार पत्र दैनिक नवज्योति के संस्थापक कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी जी की 32वीं पुण्य तिथि के अवसर पर हम भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। दैनिक नवज्योति समाचार पत्र वर्तमान में निष्पक्ष, ईमानदार, तटस्थ और समावेशी पत्रकारिता का प्रतीक है: डॉ कमलेश मीणा।

दैनिक नवज्योति समाचार पत्र के वर्तमान मुख्य संपादक दीनबंधु चौधरी साहब ने कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी साहब की न्यायसंगत पत्रकारिता के माध्यम से दैनिक नवज्योति समाचार पत्र की नैतिकता, मूल्यों, दृष्टि, मिशन और लोकतांत्रिक मान्यताओं के मुख्य विषय को बनाए रखा है। दैनिक नवज्योति समावेशी विचारधारा और सार्वजनिक सरोकार का समाचार पत्र। कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी साहब की 32वीं पुण्यतिथि पर हम उन्हें पूरे सम्मान के साथ पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। "पत्रकारिता का मुख्य काम है, लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को संदर्भ के साथ इस तरह रखना कि सरकार और हम उसका इस्तेमाल मनुष्य की स्थिति सुधारने में कर सकें।” दैनिक नवज्योति ने अब तक ईमानदारी और लगन से यह काम किया है।

कप्तान साहब की 32वीं पुण्यतिथि पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि: स्वतंत्रता सेनानी व दैनिक नवज्योति के संस्थापक संपादक कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी की 32वीं पुण्यतिथि पर महान मिशनरी पत्रकार को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी जंगे आजादी के सिपाही थे। उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से आजादी के संदेश को आमजन तक पहुंचाने के साथ राष्ट्र के निर्माण में भी विशेष योगदान दिया। कप्तान साहब ने प्रदेश की हिन्दी पत्रकारिता के गौरव को बढ़ाने के लिये जीवनपर्यन्त सेवायें दी, जो सदैव अविस्मरणीय रहेगी। वे इतिहास पुरुष थे जिनकी सेवाओं को सदैव याद किया जाएगा। उनके द्वारा स्थापित परंपराओं का निर्वहन नवज्योति परिवार आज भी कर रहा है। महात्मा गांधी के सानिध्य में भी रहे कप्तान चौधरी: नवज्योति केवल अखबार नहीं है अपितु राजस्थान के इतिहास का ऐसा रोजनामचा है जिसके माध्यम से राजपूताना में हुए आजादी के संघर्ष और राजस्थान के गठन से लेकर अब तक के सारे घटनाक्रमों को पढ़ा देखा व समझा जा सकता है। गांधीवादी विचारों से ओत-प्रोत कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी को महात्मा गांधी के सानिध्य में भी रहने का अवसर मिला। उन्होंने आजादी के लिये अजमेर व आसपास के क्षेत्र में लगातार सत्याग्रह किया। डूंगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर, भीलवाड़ा जैसे क्षेत्रों में माणिक्य लाल वर्मा के साथ रहकर किसानों, समाज के कमजोर वर्ग और आदिवासियों को संगठित किया, उनके कल्याण के साथ उनमें जनचेतना का संचार किया। कप्तान साहब ने कई बार जेल यातनायें भी सही। उन्होंने वर्ष 1936 में अजमेर से नवज्योति को साप्ताहिक रूप में प्रकाशित किया, जो वर्ष 1948 में दैनिक के रूप में प्रकाशित होने लगा। आर्थिक संकटों और सरकारी दबावों के बावजूद वे निर्भीकता से इस समाचार पत्र को प्रकाशित करते रहे। कप्तान साहब आजादी के दौरान कांग्रेस सेवादल की टोली के कप्तान थे इसी वजह से उनके साथी उन्हें कप्तान साहब का संबोधन देते थे। बाद में वे कप्तान साहब के नाम से लोकप्रिय हो गए। वे पत्रकारों की स्वतंत्रता के पक्षधर थे और उन्होंने अपने समाचार पत्र से जुड़े सभी पत्रकारों को पूरी स्वतंत्रता दी हुई थी। उनके समय में नवज्योति पत्रकारों के एक प्रशिक्षण केन्द्र में जाना जाता था। कप्तान साहब सहज, सरल व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने साथ काम करने वाले सभी लोगों को अपना परिवार ही मानते थे। कप्तान साहब पत्रकारिता में सत्य व विश्वसनीयता को सर्वाधिक महत्त्व देते थे चाहे उससे कोई भी प्रभावित हो।

हमारा मीडिया दूरदर्शी विचारों और मिशनरी कार्यों के रास्ते से भटक गया है। अधिकतर हमारा मीडिया दूरदर्शी विचारों और मिशनरी कार्यों के पथ से भटक गया है लेकिन आज तक दैनिक नवज्योति अपने मिशनरी और दूरदर्शी विचारों के साथ मजबूती से खड़ा है। दैनिक नवज्योति समाचार पत्र, राजस्थान के प्रतिष्ठित अखबारों में एक है। 2 अक्टूबर,1936 को स्वतंत्रता सेनानी स्व.कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी ने दैनिक नवज्योति समाचार पत्र की राजस्थान से शुरुआत की थी। कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी ने दैनिक नवज्योति के जरिए देश के आजादी आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई। वर्तमान में से यह समाचार पत्र राजस्थान के जयपुर, अजमेर, जोधपुर, उदयपुर और कोटा संभागों से प्रकाशित हो रहा है जो प्रदेश के हर जिले में जाता है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में पत्रकारिता और मीडिया बिरादरी के पास बहुत बड़ी शक्ति है लेकिन इस शक्ति का दुरुपयोग लोकतंत्र की शक्ति को नष्ट कर सकता है और समाज के साथ-साथ राष्ट्र के लिए भी घातक साबित हो सकता है इसलिए संवेदनशील मामले की तरह मीडिया पर भी कुछ पाबंदियां होनी चाहिए। एक समय मीडिया ने राजनीति और समाज के भ्रष्टाचार को उजागर किया लेकिन आज हमारा मीडिया आज के भ्रष्टाचार और कॉर्पोरेट संगठनों का हिस्सा बनता जा रहा है। पूंजीवादी और बड़े कारपोरेट घराने सिर्फ पैसा और मुनाफा कमाने के लिए मीडिया चला रहे हैं, उन्हें लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मूल्यों, समाज, राजनीतिक और राजनीति, प्रशासनिक सुधार और पर्यावरण के मुद्दों की कोई चिंता नहीं है और न ही वे भ्रष्टाचार, अपराध, पंथ के बारे में चर्चा कर रहे हैं। आज सौभाग्य से दैनिक नवज्योति अखबार को हमारे लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास और उदारवादी विचारों की वृद्धि के लिए संवैधानिक विचारधारा में विश्वास के लिए जाना जाता है। नवज्योति अखबार के लिए पहले दिन से यह थी कप्तान साहब की महान विरासत और दृष्टि है। यह भारतीय मीडिया के लिए विशेष रूप से पत्रकारिता और कप्तान साहब जैसे देशभक्त पत्रकारों के माध्यम से लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने का नया युग था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता की शुरुआत का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों की आजादी के लिए लड़ना था और सामाजिक बुराइयों और रूढ़िवादी रीति-रिवाजों, कर्मकांडों और कपट को खत्म करना था और इसे राष्ट्र के लिए मिशनरी काम के रूप में लिया गया था लेकिन आज हमारा मीडिया देश लोगों की सेवा और राष्ट्र निर्माण प्रक्रिया के पथ और मिशन से भटक गया है। संस्थापक मूल्यों और मिशनरी विचारों से कोई समझौता नहीं: दैनिक नवज्योति 2 अक्टूबर 1936 (87) वर्ष से राजस्थान में एक दैनिक समाचार पत्र अपने मूलमूल्य और मिशन पर खड़ा है और निष्पक्ष रूप से हमारे लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों को सशक्त और मजबूत करने के लिए हमारे वर्गों के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। दैनिक नवज्योति समाचार पत्र के संस्थापक दिवंगत कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी साहब को ब्रिटिशशासन में कई गंभीर और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने मिशनरी भावना और समाचार पत्र के विचार के साथ कोई समझौता नहीं किया, जो लोगों की जरूरतों को पूरा करनेऔर बेजुबानों को आवाज देने के लिए था। नवज्योति अखबार की समाचार सामग्री के माध्यम से नवज्योति ने हमेशा अंग्रेजों के हर प्रकार के भेदभाव, शोषण, अन्याय और असमानताओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दैनिक नवज्योति अखबार ने सरकारी नीतियों और योजनाओं के प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई और हमेशा दैनिक नवज्योति अखबार ने पाठकों और वास्तविक हितधारकों के सामने दैनिक नवज्योति ने हमेशा विश्वास, सच्चाई और तथ्य का सच्चा पक्ष रखा।

कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी के नेतृत्व में दैनिक नवज्योति अखबार का मार्गदर्शक दर्शन महात्मा गांधी के आदर्शों का प्रचार करना, जनता में देशभक्ति की भावना जगाना और हिंसा और सांप्रदायिक घृणा का विरोध करना था। कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी अपने लेखन में हमेशा निष्पक्ष, सच्चे और एक ईमानदार लोकतांत्रिक परंपरा के लेखक थे। कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी साहब ने 1982 में स्थापित किसान संघ, अजमेर के संरक्षक के रूप में किसानों के उत्थान के लिए भी सराहनीय कार्य किया, सामाजिक कुरीतियों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए अजमेर जिले के 700 गांवों में किसान सभा का आयोजन किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि अगर इस देश में भूख, गरीबी, अस्पृश्यता और अन्य सामाजिक बुराइयाँ बनी रहीं तो एक स्वतंत्र भारत अर्थहीन होगा। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में एक प्रगतिशील और आधुनिक भारत के अपने दृष्टिकोण और आदर्श के लिए अथक प्रयास किया। 29 जून 1992 को कप्तान साहब ने अंतिम सांस ली। आज हम राष्ट्र की इस महान आत्मा को उनकी 32वीं पुण्यतिथि पर पुष्पांजलि अर्पित कर रहे हैं।

कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी साहब देशभक्ति के दीवाने थे: कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी साहब का जन्म 18 दिसंबर 1906 को नीम का थाना जिला सीकर के जाने-माने अग्रवाल परिवार में हुआ था। चौधरी साहब स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और समाजसेवी थे। उनके बड़े भाई प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। कप्तान साहब 1925 से 1947 तक स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रहे और 1930 से 1945 तक वे सेवादल के कप्तान रहे, इसलिए बाद में दुर्गा प्रसाद चौधरी साहब को कप्तान के रूप में जाना गया। दैनिक नवज्योति भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए शुरू की गई थी और बाद में इस अखबार ने "स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल" के रूप में काम किया। दैनिक नवज्योति देशी रियासतों के खिलाफ विद्रोह करने वाला प्रमुख समाचार पत्र था। दैनिक नवज्योति ने देशी रियासतों के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह किया और अख़बार के माध्यम से खुला मोर्चा खोल दिया। कप्तान साहब तीन वर्ष तक जेल में भी रहे। कप्तान साहब देशभक्ति दीवाने थे और भारत-चीन युद्ध के दौरान वे समाचार रिपोर्टिंग को कवर करने के लिए असम में मैकमोहन रेखा पर गए थे। कप्तान साहब देशहित के लिए जुनूनी व्यक्ति थे। लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में लड़ने के लिए जन जागरूकता बढ़ाने और जगाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। पत्रकारों, समाज सुधारकों और स्वतंत्रता सेनानियों ने मीडिया और लिखित शब्द की ताकत को पहचाना और उन्होंने इसे स्वतंत्रता, राष्ट्रवाद और देशभक्ति के सार के बारे में प्रचार करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया। उन अखबारों में नवज्योति प्रमुख समाचार पत्रों में से एक था जिन्होंने मिशनरी पत्रकारिता के माध्यम से कप्तान साहब के नेतृत्व में राजस्थान में स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कप्तान साहब अपने जीवन के अंतिम दिनों में आज के मीडिया की दुर्दशा के बारे में चिंतित थे: “पत्रकारों के रूप में, हमें एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज में एक अत्यंत महत्वपूर्ण मिशन के लिए, लोगों को सूचित करने और राष्ट्रीय विकास और रचनात्मक संवाद के लिए आपसी समझ का मार्गदर्शन करने की शक्ति सौंपी गई है। हमारे पाठक, दर्शक और श्रोता, पत्रकारों के रूप में मीडिया बिरादरी के प्रतिनिधियों से बिना किसी डर या पक्षपात के पूर्ण, प्रासंगिक सत्य बताने की उम्मीद करते हैं। आज की अधिकांश मीडिया बिरादरी, इस संदर्भ में क्या कर रही है? भारतीय मीडिया को राष्ट्र और समाज के लिए खुद के प्रदर्शन के बारे में सोचने की जरूरत है। वे आज हमारे लोकतंत्र में संवैधानिक विचारधारा और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने में सक्षम क्यों नहीं हैं? कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी साहब को अपने जीवन के अंतिम समय में हमारे भारतीय मीडिया के बारे में ये प्रमुख चिंताएँ थीं। कप्तान साहब ने हमें लोकतंत्र के संवर्धन और लोकतांत्रिक मूल्यों की बेहतरी के लिए मूल्य आधारित पत्रकारिता की शिक्षा दी और मीडिया सभी के लिए समानता, न्याय, विश्वास, भाईचारे, स्वतंत्रता और शांति के लिए लोगों की वकालत करें लेकिन आज की दुर्दशा और विफलताओं के लिए हमारा मीडिया ही जिम्मेदार है।

दुर्गाप्रसाद चौधरी साहब जीवंत लोकतंत्र के सच्चे, समर्पित और ईमानदार पत्रकार थे: यह सच में कहा गया है कि पत्रकारिता कभी खामोश नहीं हो सकती: यही इसका सबसे बड़ा गुण और सबसे बड़ा दोष है। कप्तान साहब पत्रकारिता की इस कहावत के सही मायने में सच्चे प्रतिनिधि थे। इस मुखरता के कारण वह कभी चुप नहीं बैठे। इस कारण कप्तान साहब न तो सरकारों से कभी कोई लाभ कोई लिया और न ही कोई अपेक्षा की। कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी साहब भारत के पहले प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत के निर्माता स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे सिद्धांतों में विश्वास रखते थे कि पत्रकारिता ही लोकतंत्र को कायम रखती है और सच्चे मीडिया के माध्यम से जनतंत्र को मजबूती से जीवंत रूप में बनाए रखा जा सकता है।

कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी का जन्म 1906 में सीकर के नीम का थाना में अग्रवाल परिवार में हुआ था और वह महात्मा गांधी के असहयोग के आह्वान से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और कई बार कारावास का सामना किया। 1930 से 1947 तक कांग्रेस सेवा दल द्वारा आयोजित आंदोलनों का नेतृत्व करने के कारण उन्हें "कप्तान" के रूप में प्रसिद्धि मिली। दिसंबर 1932 में, उन्होंने हिंदुस्तानी सेवा दल के तहत हटुंडी में एक स्वयंसेवक शिविर की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जहां उन्होंने युवाओं को विदेशी कपड़ों को जलाने का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया और गांधीवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया। अक्टूबर 1936 में राजस्थान सेवा मण्डल ने अजमेर में नवज्योति साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया, जिसके संपादक रामनारायण चौधरी थे। 1941 में जब रामनारायण चौधरी वर्धा गये तो उनके छोटे भाई दुर्गाप्रसाद ने नवज्योति के संपादक का पद संभाला। ब्रिटिश राज के प्रति अपने कट्टर विरोध के कारण अखबार को कई बार ब्रिटिश सरकार का गुस्सा झेलना पड़ा। स्वतंत्रता के प्रति उनके अटूट समर्पण के कारण, संपादक के रूप में उन्हें तीन महीने से लेकर एक वर्ष तक की अलग-अलग अवधि के लिए कारावास का सामना करना पड़ा। राजस्थान की रियासतों में, जहां अंग्रेजों का सीधा शासन था, सरकार के खिलाफ समाचार पत्र प्रकाशित करना और राष्ट्रवादी विचारधाराओं का प्रसार करना देशद्रोह माना जाता था। इन चुनौतियों के बावजूद उन्होंने निडरता और लगन से जटिल कार्य किए, जैसे जनता को उनके अधिकारों के लिए जागृत करना, विदेशी शासन की शोषणकारी प्रकृति को उजागर करना और राजस्थान की रियासतों में स्वतंत्रता के बारे में संदेह पैदा करना। अगस्त 1942 में आजादी के लिए "करो या मरो" अभियान के दौरान, उन्हें अजमेर जेल में नजरबंद कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप नवज्योति का प्रकाशन अस्थायी रूप से निलंबित हो गया। हालाँकि, जून 1945 में अपनी रिहाई के बाद, उन्होंने अखबार का प्रकाशन फिर से शुरू कर दिया। विजय सिंह पथिक से प्रेरित होकर कप्तान दुर्गाप्रसाद ने नवज्योति के माध्यम से बिजोलिया आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। अपने समाचार पत्र के माध्यम से, उन्होंने किसानों को सफलतापूर्वक संगठित किया, उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया और आंदोलन में उनके मुख्य सलाहकार के रूप में कार्य किया। नवज्योति साप्ताहिक के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में उनका अद्वितीय योगदान उल्लेखनीय एवं सराहनीय है।

हम दैनिक नवज्योति की मिशनरी पत्रकारिता के प्रति आभार व्यक्त करते हैं और दिवंगत कप्तान साहब को उनकी 32वीं पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि एवं पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। ऐसे वीर को मेरा शत् शत् नमन।।

डॉ कमलेश मीना, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र श्रीनगर कश्मीर में क्षेत्रीय निदेशक (प्रभारी) के रूप में कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में डॉ कमलेश मीना, सहायक क्षेत्रीय निदेशक,इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

 

सादर।

 

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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