सनातन:
व्युत्पत्ति, शब्द का मूल और उद्देश्य
सनातन शब्द ‘सना’
(‘सन्’+’आ’) और ‘तन’ की सन्धि से बना है। 'सन्' सदैव का द्योतक है। अर्थात्, आदि और अन्त की सीमा से
परे जो शाश्वत है; जो वास्तविक है, सदा
ही स्थापित एवं सत्य है। 'आ', कंठ-उच्चारित
प्रथम अक्षर 'अ' का दीर्घ रूप है तथा
कर्ता का सूचक है। ‘सना’ (‘सन्’+’आ’ के जोड़) का जो अच्छा अभिप्राय सामने आता है,
वह सदा विद्यमान स्थिति का प्रकटकर्ता है। अटलता को प्रदर्शित करता
है। 'तन', ढाँचे या नियम अथवा व्यवस्था
के अर्थ में है। पूरे सनातन शब्द का श्रेष्ठ और सर्वमान्य अर्थ सदा विद्यमान या
सदैव स्थापित सत्य को समर्पित नियम, ढाँचा अथवा व्यवस्था है।
अब प्रश्न यह है कि सनातन
शब्द का उद्गम स्थान कौन-सा है? दूसरे शब्दों में, सनातन शब्द सबसे पहले कहाँ प्रकट हुआ है? यह जानना
अति आवश्यक है, क्योंकि आजकल इस सम्बन्ध में भाँति-भाँति की
चर्चाएँ हो रही हैं। सनातन शब्द को लेकर तर्क-वितर्क हो रहे हैं। ऐसे
तर्क-वितर्कों से कई बार सनातन शब्द की वास्तविकता की अनदेखी के साथ ही इसकी अति
उच्च गरिमा को निम्न करने के प्रयास भी सामने आते हैं, यद्यपि
सत्यता –शाश्वतता को समर्पित सनातन शब्द की गरिमा एवं गौरव कभी भी कम नहीं हो
सकते।
सनातन शब्द का सर्वप्रथम
प्राकट्य विश्व के सबसे प्राचीन वैदिक ग्रन्थ ऋग्वेद में ही हुआ है। ऋग्वेद की
लिपिबद्धता का काल अति प्राचीन है। मत-मतान्तरों के बाद भी भारत के साथ ही विदेशी
विद्वानों द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि इसकी लिपिबद्धता तथागत गौतम बुद्ध के
जन्म से अनेक शताब्दियों पूर्व हुई। 'धर्म' के बहुवचन 'धर्माणि' के साथ ही
'सनातन' (सनता) शब्द ऋग्वेद के तृतीय
मण्डल के तृतीय सूक्त के प्रथम मंत्र में प्रकट है। अति सरल शब्दों में कहें,
तो इस मंत्र द्वारा अग्नि के अपरिवर्तनीय (शाश्वत) गुणों की सनातनता
को उद्धृत करते हुए विद्वान जन से सदैव ही श्रेष्ठ आचरणों की अपेक्षा की गई है।
ऐसा करने से वे दोषमय नहीं होते; वे, वास्तव
में, वृहद् कल्याणार्थ सत्यज्ञान प्रदान कर अपने स्वभावों को
गौरवान्वित करते हैं; सनातन धर्माचरण करते हैं।
ऋग्वेद के इस पूरे मंत्र (3: 3: 1) के अनुसार:
"वैश्वानराय
पृथुपाजसे विपो रत्ना विधन्त धरुणेषु गातवे/
अग्निर्हि देवाँ अमृतो
दुवस्यत्यथा धर्माणि सनता न दूदुषत्//"
अर्थात्, "जैसे अग्नि अपने सनातन गुण, कर्म, स्वभावों को अक्षुण्ण रखते हुए दोषमुक्त है, उसी
प्रकार विद्वान लोग जन-हितार्थ विद्या (सत्यज्ञान) प्रदान करते हुए अपने स्वभावों
को भूषित करते हैं। वे धर्माचरण करते हैं।"
निस्सन्देह, अग्नि को केन्द्र में रखकर, उसके गुण, कर्म, स्वभावों –तेज, ऊर्जा,
प्रकाश आदि को उद्धृत करते हुए सनातन की मूल भावना यहाँ स्पष्टतः
प्रकट है। यह स्पष्टता अपरिवर्तनीय –सदा स्थापित रहने वाली स्थिति को सामने लाती
है। आदि एवं अन्त की स्थिति से परे सनातन की सत्यता को दर्शाती है।
मूलतः ऋग्वेद में प्रकट
सनातन शब्द पुराणों, मनुस्मृति और श्रीमद्भगवद्गीता में
भी उल्लिखित है। विशेषकर शिवपुराण (2: 2: 16) में सनातन शब्द
अविनाशी और मनुस्मृति (4: 138 ) में सत्य का प्रतिरूप है।
श्रीमद्भगवद्गीता (14: 27) में जो शाश्वत शब्द आता है,
वह भी सनातन के पर्याय के रूप में ही है।
पुराणों, स्मृतियों, रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता सहित महाभारत
के रचनाकाल-निर्धारण के सम्बन्ध में विषय-विशेषज्ञों, विद्वानों
और अनुसंधानकर्ताओं के मध्य, जाने-अनजाने, मतभेद हैं। मैं ऐसे मतभेदों की चर्चा यहाँ नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन,
साथ ही, मैं अपनी इस बात पर तो दृढ़ हूँ कि
सनातन शब्द अपनी मूल भावना के साथ सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्रकट हुआ है।
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि
शाक्यमुनि गौतम के जीवनकाल से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में वैदिककाल था। वैदिक काल
में वेदों का अस्तित्व था। बौद्ध सूत्रों –गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में वेदों का
उल्लेख है। तथागत द्वारा मज्झिमनिकाय में सावित्री (गायत्री) मन्त्र को वैदिक
ऋचाओं की गरिमा एवं गौरव घोषित करने का प्रसंग आता है।
यही नहीं, इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रामाणिक बात भी सामने आती है। गौतम बुद्ध आनन्द
के साथ वैशाली-मार्ग पर थे। दोनों के मध्य वार्तालाप चल रहा था। उस वार्तालाप में
शाक्यमुनि ने 'तब तक वज्जियों के कल्याण की बात की, जब तक कि वे पूर्व स्थापित को स्वीकार करते हुए कार्य करें'। पूर्व स्थापित क्या? वह, जो
वैदिककाल में व्यवस्था का आधार था; ‘सभा’, ‘समिति’ और ‘विदथ’ जैसी लोकतान्त्रिक संस्थाएँ जिसमें शासन की रीढ़ थीं।
तथागत गौतम बुद्ध की, जैसा कि हम सभी जानते है, करुणा और वृहद् स्तरीय
मानव-समानता केन्द्रित मानवतावादी शिक्षाओं में सनातन शब्द सामने आता है।
उदाहरणार्थ, धम्मपद (यमक वग्गो-5) में
उल्लेख है, "एस धम्मो सनन्तनो –यही सनातन धर्म है",
अर्थात्, सदा से चला आ रहा नियम है।
ऋग्वेद के उद्धृत मन्त्र (3: 3: 1) में वर्णित शब्द सनातन और इसी शब्द के तथागत गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में
हुए उल्लेख, दोनों की मूल भावना एक समान है। इसके माध्यम से
सदाचार (उदारता, बन्धुत्वता और शुद्ध हृदयता के साथ सजातीयों
के कल्याण) का मानवाह्वान है। सदाचार ही जीवन-सार्थकता का मार्ग है; यही सनातन व्यवस्था अथवा नियम है। इस शब्द का उद्देश्य स्वाभाविक प्रतिफल
को स्पष्ट करते हुए सदैव स्थापित शाश्वत नियम की वास्तविकता को दर्शाना है। अन्ततः
अपरिवर्तनीय सत्य को प्रकट करना है।
*पद्मश्री और सरदार
पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार
भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर
प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I****
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