अठारह
अध्यायों में विभक्त और कुल सात सौ श्लोकों से सुसज्जित श्रीमद्भगवद्गीता मानव
व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास और जीवन-सार्थकता के लिए कटिबद्ध वह अनुपम, अद्वितीय और
एकमात्र कृति है,
जिसका प्रत्येक श्लोक और हर एक शब्द, केवल और केवल, सत्य के बल पर स्वाभाविक, सरल
और सर्वसुलभ मार्ग के माध्यम से विशुद्धतः मावनोत्थान के लिए ही है। सत्यता अथवा
शाश्वतता और सरलता,
ये दो, श्रीमद्भगवद्गीता
की ऐसी विशिष्टताएँ हैं,
जो इसे सर्वकालिक और अद्वितीय बनाती हैं। प्रथम शाश्वतता अथवा सत्यता लक्ष्य को, जबकि
सरलता,
सुलभता को समर्पित है।
श्रीमद्भगवद्गीता में दर्शन की पराकाष्ठा है एवं धर्म की
सर्वोत्कृष्ट व्याख्या है। मानव-जीवन में संस्कृति की भूमिका, योगदान और
महत्त्व का ज्ञान है। इसमें उच्चतम नैतिकता और मानवता की भी व्याख्या है। अति
संक्षेप में कहें,
तो श्रीमद्भगवद्गीता में सर्वत्र सत्य ज्ञान है। सत्य अनुभूति, सत्य
पथानुगमन और अन्ततः सत्य के प्रति निष्ठा, भक्ति अथवा
समर्पण का, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, सबके
लिए सुलभ मार्ग है।
साथ ही,
जीवन से सम्बद्ध समस्त क्षेत्रों एवं सभी क्षेत्रों में भी समस्त स्तरों से जुड़ी समस्याओं के मूल
कारण और निदान का मार्ग भी है। निराशा के आशा में रूपान्तरण और मानव में भरपूर
उत्साह संचार द्वारा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया के सदुपयोग की ओर अग्रसर होने के
ग्राह्य सन्देश के साथ उसका आह्वान भी है।
स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया के सदुपयोग के अपने अभूतपूर्व आह्वान और दिखाए गए
मार्ग के कारण ही श्रीमद्भगवद्गीता शताब्दियों से वृहद् जनकल्याण के उद्देश्य से
विश्वजन की पथप्रदर्शिका के रूप में स्थापित हो सकी। यह आधुनिककाल में अरविन्द घोष (जीवनकाल:
1872-1950 ईसवीं),
बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों के जनकल्याण को समर्पित
जीवन, कार्यों तथा विचारों का आधार बन सकी। हेनरी डेविड थोरो (जीवनकाल:
1817-1862 ईसवीं),
ऐल्डस (लॅनर्ड) हक्स्ले (जीवनकाल: 1894-1963 ईसवीं) व अल्बर्ट श्वित्जर (जीवनकाल:
1875-1965 ईसवीं) जैसे चिन्तकों-विद्वानों, और अल्बर्ट
आइन्स्टीन (जीवनकाल: 1879-1955 ईसवीं) जैसे महान पाश्चात्य वैज्ञानिक को गहराई तक प्रभावित कर
सकी।
श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वकालिकता के सम्बन्ध में अपने जीवन
के अनुभवों के आधार पर श्री अरविन्द ने यह कहा है कि प्रत्यक्ष अनुभव से यह
स्पष्ट दिखाई देता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान युग में भी उतनी ही नव्यतापूर्ण
और स्फूर्तिदायक है,
जितनी कि (वह) महाभारत में समाविष्ट होते समय (थी)। लोकमान्य
तिलक ने गीता को ‘शास्त्रों में हीरा’
स्वीकार किया है,
और महात्मा गाँधी ने गीता को वह माता माना है, जो किसी भी
परिस्थिति में,
और सदैव ही,
अपनी सन्तान को सम्बल देने में साथ रहती है।
सामान्यतः यदि यह कहें कि माता मुक्ति द्वार तक साथ रहती है, तो बात कुछ
अटपटी लग सकती है। लेकिन,
माता के रूप में गीता तो मुक्ति द्वार तक साथ निभाती है, यह अपने आप में
अतिविशिष्ट स्थिति है।
‘अन्याय के विरुद्ध राज्य की अवज्ञा’ विचार के
समर्थक हेनरी डेविड थोरो ने श्रीमद्भगवद्गीता के समक्ष अन्य सभी विचारों की
तुच्छता की बात की। हक्स्ले ने गीता को सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वीकार किया, और
धर्मशास्त्री अल्बर्ट श्वित्जर ने इसे मानव की आत्मा व कर्मों की श्रेष्ठता प्रकट
करने वाली अनुपम कृति कहा।
अल्बर्ट आइन्स्टीन ने स्वीकारा कि उन्हें ब्रह्माण्ड को
रचने वाले, व (स्वयं) ब्रह्माण्ड-रचना का विचार भी श्रीमद्भगवद्गीता
से प्राप्त हुआ। इसी के माध्यम से उनके भीतर निरासक्ति भावना उत्पन्न हुई।
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव और प्रेरणा से जुड़े ये तो कुछेक
ही उदाहरण हैं। ये मात्र संयोगवश ही हैंI सम्पूर्ण
वृतान्त को किसी एक लेख या व्याख्यान के माध्यम से प्रस्तुत किया जाना सम्भव नहीं
है। लेकिन, यह
वास्तविकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता ने भारत के साथ ही विश्वभर में असंख्य जन, आम और खास, के जीवन को गत
हजारों वर्षों की समयावधि में प्रभावित किया है। उनका सुयोग्य मार्गदर्शन कर,
उन्हें सशक्त मार्ग प्रदान किया है। अनेक का मार्गदर्शन कर उन्हें युगपुरुषों के
रूप में स्थापित भी किया है।
श्रीमद्भगवद्गीता में, जैसा कि मैंने
प्रारम्भ में ही कहा है,
दर्शन की पराकाष्ठा है। इसमें धर्म-संस्कृति की श्रेष्ठतम व्याख्या है। यह योग
–सत्य से एकाकार करने के कई मार्ग मानव के समक्ष रखती है। तीन प्रमुख योगों, ज्ञानयोग, कर्मयोग और
भक्तियोग के सम्बन्ध में तो गीता सामान्यतः लोकप्रिय है ही।
गीता की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह है कि जिसने, जिस रूप में, या मार्ग से भी
इसके माध्यम से सत्य की खोज की;
योगेश्वर द्वारा गीता के माध्यम से निर्देशित मार्ग का अनुसरण किया, वह उसी मार्ग
से सत्य तक पहुँचा। वासुदेव कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उन (सत्य की पराकाष्ठा) के
पास श्रद्धा-समर्पण के साथ किसी भी रूप में, किसी भी मार्ग
अथवा माध्यम से (पत्र, पुष्प, फल या जल के साथ भी) आने
वाले, निश्चिततः
उन्हें ही प्राप्त होते हैं:
“पत्रं पुष्पं
फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति/
तदहं
भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन://"
शताब्दियों से
धर्मवेत्ताओं,
विद्वानों और चिन्तकों ने श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वकालिक महत्ता और श्रेष्ठता
को स्वीकार करते हुए इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है। इस सन्दर्भ
में, आधुनिककाल
के ही तीन भारतीयों,
श्री अरविन्द,
लोकमान्य तिलक और महात्मा गाँधी का हमने उल्लेख भी किया है, जिन्होंने
गीता-मार्ग से समर्पित होकर अपने जीवन को सार्थक करने की दिशा में निरन्तर
पुरुषार्थ भी किए।
श्रीमद्भगवद्गीता के अपने गहन अनुशीलन से जो मैंने
अतिश्रेष्ठता के रूप
में पाया है,
वह है इसमें हर ओर व्याप्त एवं प्रवहमान सत्यता अथवा शाश्वतता और इसकी सरलता।
इस आलेख के प्रारम्भ में ही मैंने यह बात कही है।
अविभाज्य समग्रता ही एकमात्र सत्यता है। वे ही परमेश्वर
अथवा परमात्मा हैं। परमात्मा और उनका (अथवा उनके रूप में) दृश्य-अदृश्य व चल-अचल
ब्रह्माण्ड का सञ्चालनकर्ता निरन्तर प्रवहमान सार्वभौमिक नियम एक की है। सार्वभौमिक
नियम की शाश्वतता से कोई भी मना नहीं कर सकता। जो ईश्वरीय सत्ता को नकारते हैं
अथवा किसी ब्रह्म-सत्ता को स्वीकार नहीं करते, वे, वास्तव में, दोनों, शाश्वत
सार्वभौमिक नियम और ब्रह्म,
परमेश्वर,
परमात्मा अथवा ईश्वर को (जो अविभाज्य समग्रता के ही नाम हैं), भिन्न-भिन्न
मानते हैं। लेकिन,
ऐसा नहीं है। दोनों एक ही हैं।
सब कुछ, चल-अचल और दृश्य-अदृश्य, उसी
अविभाज्य समग्रता की परिधि में है। उसी का अनन्य भाग है। उसी एक मूल से उत्पन्न
अथवा प्रकट या निर्मित है। सत्य के प्रतीक योगेश्वर श्रीकृष्ण का श्रीमद्भगवद्गीता
के माध्यम से दिया गया और सार्वभौमिक एकता का निर्माण करता हुआ यह मूल एवं शाश्वत
सन्देश है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन से पग-पग पर यही वास्तविकता प्रकट होती है।
विशेष रूप से गीता के नवम और दशम अध्याय में स्वयं योगेश्वर द्वारा इस पर विस्तार
से प्रकाश डाला गया है। नवम अध्याय के अठारहवें श्लोक में प्रकट है:
“गतिर्भर्ता
प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्/ प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्// –परम
लक्ष्य,
पालक, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली
और सर्वप्रिय मित्र मैं (सत्यस्वरूप सर्वेकता निर्माता) ही हूँ; सृष्टि
और प्रलय,
सर्वाधार, सर्वाश्रय
और अविनाशी बीजस्रोत भी मैं ही हूँ।”
गीता के दशम अध्याय के बीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं:
“अहमात्मा
गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:/अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च// –मैं सब भूतों के
हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ; सम्पूर्ण
भूतों का आदि,
मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।”
इसी प्रकार, श्लोकों के बढ़ते क्रम में, सरल व ग्राह्य
भाव से इसी अध्याय के उनतालीसवें श्लोक के माध्यम से वे पूर्णतः स्पष्टता से कहते
हैं, “यच्चापि
सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन/ न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्// –सर्वभूत
मूल बीज,
उत्पत्ति का कारण (अविभाज्य
समग्रता रूप में) मैं ही हूँ। चराचर अथवा भूत प्राणी में ऐसा कोई नहीं है, जो
मेरे बिना हो। मेरे से रहित होना सत्ता (सत्य) रहित
होना होगा। इसलिए,
सर्वत्र मेरा ही स्वरूप है, मुझ पर
ही आधारित है।”
यही क्रम,
जैसा कि उल्लेख किया है,
श्रीमद्भगवद्गीता में लगातार,
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बना रहता है। संक्षेप में, गीताध्ययन से
यह सत्यता, सरलता
के साथ, मानव
के लिए एक ऐसी सीख के रूप में, जैसा कि मैंने स्वयं जाना और समझा है, निरन्तर प्रकट
होती है, जो
उसके जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करने –जीवन-सार्थकता
का मार्ग प्रशस्त करने का अचूक और अद्वितीय माध्यम बनती है।
कर्म स्वाभाविक हैं; कर्म-प्रक्रिया
ही जीवन है। विपरीत इसके,
कर्म-अन्त का अर्थ जीवन का अन्त है। कर्म-स्थिति अविकल्पनीय है। अविभाज्य
समग्रता की सत्यता के प्रतीक और सार्वभौमिक एकता के निर्माता प्रभु ने
श्रीमद्भगवद्गीता में यह वास्तविकता बहुत ही सरल, सहज एवं
ग्राह्य वार्ता के माध्यम से मानव के समक्ष रखी है। प्रभु ने कर्म के रूप में उसे
प्रदत्त अद्वितीय अधिकार का स्मरण कराते हुए, कर्म को सुकर्म
बनाने का उसका आह्वान किया है।
सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता को शिरोधार्य कर, प्रत्येक कर्म
को अविभाज्य समग्रता के ही केन्द्र में रखकर, तथा उसी को
समर्पित कर निष्पादित करना चाहिए। ‘निज’ से बाहर आकर इच्छा, कामना, तृष्णा, मोह, लालसा, वासना, आदि जैसी
एकांगी एवं अनाधिकारिक प्रवृत्तियों को त्यागकर और फल की इच्छा को, जो उसका अधिकार
ही नहीं है, पूर्णतः छोड़कर सर्वकल्याण को समर्पित कर्मों में संलग्नता
होनी चाहिए। यही सुकर्म हैI साधारण शब्दों में निष्काम कर्मयोग है।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन/ मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि//” (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47)
सर्वकल्याण
में ही अपने कल्याण को स्वीकार करना; भय-शंका,
राग-द्वेष,
सुख-दुख की स्थिति में सम रहते हुए, सर्व कल्याणार्थ जीवन-पथ पर
अग्रसर रहना ही कर्म निस्स्वार्थता है। यही श्रीमद्भगवद्गीता की वह सीख है, जिसे मैंने
जाना और समझा है। ‘कर्म करना ही मानव का अधिकार है और फल की इच्छा करना योग्य नहीं’, गीता के इस
सन्देश के मूल में रहने वाली सत्यता कि ‘सम्पन्नता
और प्रतिष्ठा तो निस्स्वार्थ भावना और समर्पित होकर किए कार्य के स्वाभाविक
पारितोषिक हैं’, श्रीमद्भगवद्गीता से मैंने यह भी जाना है। यही सत्य और सरल
मार्ग है, जो
जीवन को सार्थक कर सकता है। मनुष्य को उसके सत्य-प्राप्ति
के लक्ष्य तक ले जा सकता है।
*पद्मश्री
और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री
एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I