मंगलवार, 27 अगस्त 2024

भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी-2020) 21वीं सदी की देश की पहली शिक्षा नीति है जिसका उद्देश्य शिक्षा को अधिक किफायती, लचीला, पहुंच योग्य, जवाबदेह, समग्र और बहु-विषयक बनाना और प्रत्येक छात्र के अद्वितीय और छिपे हुए कौशल, प्रतिभा, क्षमताओं को सामने लाना है: डॉ.कमलेश मीना।


 भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी-2020) 21वीं सदी की देश की पहली शिक्षा नीति है जिसका उद्देश्य शिक्षा को अधिक किफायती, लचीला, पहुंच योग्य, जवाबदेह, समग्र और बहु-विषयक बनाना और प्रत्येक छात्र के अद्वितीय और छिपे हुए कौशल, प्रतिभा, क्षमताओं को सामने लाना है: डॉ.कमलेश मीना।

     हमारे भारतीय संविधान में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (डीपीएसपी) में अनुच्छेद 45 के संबंध में एक निर्देश है, जिसमें कहा गया है कि सभी को शिक्षा, तालीम, पढ़ाई के लिए समान रूप से सुलभ होना चाहिए। चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची में है, इसलिए राज्य को केंद्र के निर्देश का पालन करना होगा, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है। अब अनुच्छेद 21ए के तहत 6 से 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा मौलिक अधिकार बन गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने कई नए शैक्षिक हस्तक्षेप किए हैं जैसे मध्याह्न भोजन योजना, सर्व शिक्षा अभियान, नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय आदि। यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति स्कूल और उच्च शिक्षा में पारंपरिक स्कूली शिक्षा पैटर्न में बदलाव लाने पर केंद्रित है। इसलिए वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा हासिल करने के लिए 34 साल पुरानी पुरानी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को प्रतिस्थापित किया जा रहा है। नीति को पांच प्रमुख क्षेत्रों जैसे पहुंच, समानता, गुणवत्ता, सामर्थ्य और जवाबदेही के साथ अच्छी तरह से तैयार किया गया है। संयुक्त राष्ट्र सतत विकास 2030 एजेंडा ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए एक मानक स्थापित किया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा प्रणाली को आवश्यक लचीलेपन के साथ विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी शिक्षा प्रणाली में बदल रही है। राष्ट्रीय शैक्षिक नीति का बहु-विषयक पहलू छात्रों की क्षमताओं को बढ़ाने में मील का पत्थर बनेगा।

हमें याद रखना चाहिए कि शिक्षा विकास ज्ञान और कौशल (शिक्षा) प्राप्त करने की प्रक्रिया और समाज के सुधार (विकास) के बीच का संबंध है। इसमें कई दृष्टिकोण शामिल हो सकते हैं, जैसे मानव विकास, आर्थिक विकास और सतत विकास। शिक्षा एक मानव अधिकार है और विकास का एक शक्तिशाली चालक है। यह गरीबी को कम करने, स्वास्थ्य में सुधार और लैंगिक समानता, शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है। शिक्षा लोगों को अधिक स्वस्थ और टिकाऊ जीवन जीने में मदद कर सकती है और लोगों के बीच सहिष्णुता को बढ़ावा दे सकती है। विश्व स्तर पर, लोग स्कूली शिक्षा के प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष के लिए प्रति घंटे 9% अधिक कमाते हैं। शिक्षा विकास को समर्थन देने के कुछ तरीकों में शामिल हैं: शैक्षिक सुविधाओं में सुधार: इसमें स्कूलों का निर्माण और सुधार, और शिक्षकों और अन्य शिक्षकों के लिए संसाधन उपलब्ध कराना शामिल हो सकता है। नया पाठ्यक्रम विकसित करना: इससे संस्थागत गुणवत्ता सुनिश्चित करने और संस्थागत परिवर्तन का समर्थन करने में मदद मिल सकती है। शैक्षिक गतिविधियों को बढ़ावा देना: इसमें लोगों को मुफ्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम लेने के लिए प्रोत्साहित करना, या स्कूलों को प्रयुक्त किताबें दान करना शामिल हो सकता है। शिक्षकों की संख्या में वृद्धि: इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच प्राप्त हो। डिजिटल परिवर्तन को अपनाना: इससे शिक्षा को अधिक सुलभ बनाने में मदद मिल सकती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 हमारे बच्चों को उनकी आवश्यकताओं और विकास के अनुसार आसान शिक्षा के लिए सभी आवश्यक और आवश्यकताओं को सुनिश्चित करती है।

हमें याद रखना चाहिए कि बच्चे कम उम्र से ही बहुत सारी क्षमताएं प्रदर्शित करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से एनईपी-2020 लागू होने से पहले हमारी शिक्षा प्रणाली में ऐसी कोई शिक्षा नीति नहीं थी जो इस दिशा में संवर्धन करती हो। माता-पिता को अपने बच्चों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना चाहिए और उनकी क्षमताओं पर ध्यान देना चाहिए। लेकिन अब हमारे स्कूल भी एनईपी 2020 के कार्यान्वयन के कारण हमारे बच्चों के लिए यह अवलोकन कार्य करेंगे। जैसा कि हम जानते हैं कि कुछ बच्चे बोलने में प्रतिभाशाली होते हैं। उदाहरण के लिए, वे अपने द्वारा किए गए या सोचे गए किसी कार्य का बहुत ही रोचक तरीके से वर्णन कर सकते हैं।

नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) भारत की शिक्षा प्रणाली में कई महत्वपूर्ण बदलाव लाने के उद्देश्य से बनाई गई है। एनईपी भारत की शिक्षा प्रणाली को अधिक समावेशी, प्रभावी, और समकालीन बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। NEP- 2020 का लक्ष्य "भारत को एक वैश्विक ज्ञान महाशक्ति- (Global Knowledge Superpower)" बनाना है। स्वतंत्रता के बाद से यह भारत के शिक्षा ढाँचे में तीसरा बड़ा सुधार है। पहले की दो शिक्षा नीतियाँ वर्ष 1968 और 1986 में लाई गई थीं। नई शिक्षा नीति की मुख्य विशेषताएं - Highlights of New Education Policy: राष्ट्रीय शिक्षा नीति में युवाओं से एक ऐसी शिक्षा प्रणाली (Education System) प्रदान करने की दृष्टि है जो भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति (Knowledge Superpower) बनाने के उद्देश्य से सभी को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करके देश को एक जीवंत ज्ञान समाज में बदल सके। सार्वभौमिक उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के अलावा, नीति का उद्देश्य मौलिक जिम्मेदारियों, संवैधानिक मूल्यो (Constitutional Values) और अपने देश के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करना है, यानी भारतीयता और भारतीय होने का गर्व होना है। यह एक पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र ढांचे (Pedagogy Framework) के साथ प्राप्त किया जाएगा जो नीति द्वारा हमारे शैक्षणिक संस्थानों (Educational Institutions) को निर्देशित करेगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा को सुलभ, किफायती, न्यायसंगत और जवाबदेह बनाने की पहल और यह नीति 2047 तक 'विकसित भारत' का निर्माण करेगी। हर सरकार एक नीति बनाती है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात उस नीति को प्रभावी ढंग से जमीन पर लागू करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को स्वीकार करने के बाद इसे शत-प्रतिशत लागू करना मोदी सरकार की प्राथमिकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य बच्चों की बुनियादी साक्षरता को मजबूत करना है ताकि हम विकसित भारत के लिए ज्ञान की एक मजबूत और समृद्ध पीढ़ी तैयार कर सकें। सांस्कृतिक, भौगोलिक, धार्मिक, भाषाई, सामाजिक, आर्थिक और क्षेत्रीय दृष्टि से भारत प्राचीन काल से ही विविधताओं का देश रहा है। सदियों से अलग-अलग विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय भाषाएँ, बोलियाँ और लिपियाँ प्रचलित रही हैं। बहुभाषी देश होने के नाते हमारे पास भाषाओं और बोलियों का समृद्ध भंडार है। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग होने के बावजूद यह हमें एक साथ बांधती है और एकजुट रखती है। हमें याद रखना चाहिए कि बहुभाषी होने की यह विशेषता देश भर में ज्ञान, कौशल और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 हमारे युवाओं के लिए कई अवसरों, बहु-विषयक पाठ्यक्रमों और बहु-डिज़ाइन किए गए कार्यक्रमों के माध्यम से 21वीं सदी की इन सभी आवश्यकताओं को सुनिश्चित करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में भी इस विचार पर बहुत जोर दिया गया है कि भारत की बहुभाषी प्रकृति हमारी महान नींव है और राष्ट्र के सामाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक और शैक्षिक विकास के लिए इसके उचित उपयोग की आवश्यकता है। यह नीति हर स्तर पर बहुभाषावाद को बढ़ावा देने की सिफारिश करती है, ताकि छात्रों को अपनी भाषा में पढ़ने का अवसर मिल सके। सभी भारतीय भाषाओं में शिक्षण सामग्री की उपलब्धता इस बहुभाषी संस्कृति को बढ़ावा देगी और 2047 तक 'विकसित भारत' के निर्माण में बेहतर योगदान सुनिश्चित करेगी। शिक्षा केवल डिग्री या कुछ प्रमाणपत्र प्राप्त करने की व्यवस्था नहीं है बल्कि यह चरित्र निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण का उद्देश्य भी है। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 बनाई गई है। आज भी देश में लगभग 17 करोड़ बच्चों को सामाजिक, आर्थिक और भाषा संबंधी कारणों से पारंपरिक तरीके से स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इन समस्याओं का ठोस समाधान खोजने का प्रयास किया गया है। यह बच्चों के ज्ञान को बढ़ाने के साथ-साथ उनके सर्वांगीण विकास में गेम चेंजर साबित होगा। यह वर्ष 2047 तक एक विकसित भारत बनाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाने और हमारे देश के उज्ज्वल भविष्य को आकार देने के लिए एक मजबूत नींव रखने की मोदी सरकार की गारंटी को पूरा करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम भी है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020) को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 29 जुलाई 2020 को मंजूरी दी थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति पहुंच, इक्विटी, गुणवत्ता, वहनीयता और जवाबदेही के मूलभूत स्तंभों पर बनी है, यह नीति सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा से जुड़ी है। नई शिक्षा नीति का दृष्टिकोण समाज के सभी वर्गों के छात्रों को उच्च गुणवत्ता वाली सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान करना है, इस नीति का लक्ष्य 2040 तक भारतीय शिक्षा प्रणाली को बदलना है। छात्रों में लचीलेपन और विषयों की पसंद में वृद्धि होगी। छात्र विभिन्न समूहों से विषयों का चयन कर सकते हैं, जिसका अर्थ है कि कला के छात्र विज्ञान स्ट्रीम से भी विषय चुन सकते हैं और इसके विपरीत। कला और विज्ञान के बीच, पाठ्यचर्या और पाठ्येतर गतिविधियों के बीच, और व्यावसायिक और शैक्षणिक धाराओं के बीच कोई कठिन अलगाव नहीं होगा। व्यावसायिक शिक्षा स्कूल में छठी कक्षा से शुरू होगी और इसमें इंटर्नशिप शामिल होगी। नई शिक्षा नीति (एनईपी) में व्यावसायिक शिक्षा स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षार्थियों को नौकरियों के लिए तैयार करेगी। व्यावसायिक प्रशिक्षण और शिक्षा में व्यावहारिक सत्र, उद्योग प्रदर्शन और इंटर्नशिप शामिल होंगे, यह शिक्षार्थियों को एक विशिष्ट व्यापार के लिए तैयार करेगा और उनके तकनीकी कौशल को उन्नत करेगा जो रोजगार के लिए अनिवार्य हैं।

यह बच्चों के ज्ञान को बढ़ाने के साथ-साथ उनके सर्वांगीण विकास में गेम चेंजर साबित होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 का लक्ष्य स्कूली शिक्षा प्रणाली को 10+2 से नई 5+3+3+4 प्रणाली में पुनर्गठित करके भारत की शिक्षा प्रणाली में सुधार करना है। नई प्रणाली 3-18 वर्ष की आयु को कवर करती है और बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के चरणों के आधार पर इसे चार चरणों में विभाजित किया गया है: बुनियादी चरण: आयु 3-8, 5 साल को कवर करते हुए और इसमें 3 साल की प्री-स्कूल या आंगनवाड़ी शिक्षा और 2 साल ग्रेड 1-2 में प्राथमिक विद्यालय शामिल है। यह चरण खेल और गतिविधि-आधारित शिक्षा के साथ-साथ भाषा कौशल पर केंद्रित है। प्रारंभिक चरण: उम्र 8-11, 3 साल और ग्रेड 3-5। यह चरण खेल और गतिविधि-आधारित शिक्षा के साथ-साथ भाषा और संख्यात्मक कौशल पर केंद्रित है। मध्य चरण: आयु 11-14, 3 वर्ष और ग्रेड 6-8। यह चरण विज्ञान, गणित, कला, सामाजिक विज्ञान और मानविकी में महत्वपूर्ण शिक्षण उद्देश्यों और अनुभवात्मक शिक्षा पर केंद्रित है। माध्यमिक चरण: ग्रेड 9-12, 4 साल को कवर करता है। यह चरण पिछले चरणों की विषय-उन्मुख शैली पर आधारित है, लेकिन अधिक गहराई, आलोचनात्मक सोच और लचीलेपन के साथ। छात्रों को उन विषयों का चयन करने की छूट दी जाती है जो उनकी रुचि रखते हैं और उनके करियर लक्ष्यों से संबंधित हैं। इससे छात्रों को अपनी ताकत और रुचियों की बेहतर समझ विकसित करने में मदद मिलती है, जिससे तृतीयक या व्यावसायिक अध्ययन में बदलाव आसान हो सकता है।

नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 का उद्देश्य व्यावसायिक शिक्षा सहित उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात को 28.4% (2022-23) से बढ़ाकर 2035 तक 50% करना है। उच्च शिक्षा संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ी जाएंगी। नई शिक्षा नीति के अनुसार यूजी शिक्षा 3 या 4 साल की हो सकती है, जिसमें कई निकास विकल्प (Multiple Exit Options) और इस अवधि के भीतर उपयुक्त प्रमाणन (Appropriate Certification) होंगे। उदाहरण के लिए, 1 साल के बाद सर्टिफिकेट, 2 साल के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 साल बाद बैचलर डिग्री और 4 साल बाद रिसर्च के साथ बैचलर डिग्री। इसके अलावा, शिक्षा के अधिकार (RTE) के लिए आयु समूह अब 3 से 18 वर्ष (पहले 14 वर्ष) है। नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल शिक्षा (ECCE) की पहुँच, सामर्थ्य, समानता, गुणवत्ता, जवाबदेही और सार्वभौमिकरण पर भी जोर देती है। एनईपी 2020 में रटने की बजाय वास्तविक ज्ञान के मूल्यांकन पर जोर दिया जाएगा और बोर्ड परीक्षाएं कम महत्वपूर्ण होंगी। छात्र कक्षा 6 से कोडिंग सीखेंगे। कला और विज्ञान के बीच, पाठ्यक्रम और पाठ्येतर गतिविधियों के बीच, व्यावसायिक और शैक्षणिक धाराओं के बीच कोई कठोर विभाजन नहीं होगा।

नई शिक्षा नीति (NEP-2020) के प्रमुख लक्ष्यों में से एक 2025 तक सभी प्राथमिक विद्यालयों में ग्रेड 3 तक सभी शिक्षार्थियों के लिए आधारभूत साक्षरता (Foundational Literacy) और संख्यात्मकता (Numeracy) प्राप्त करना है। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य वर्ष 2030 तक प्री-स्कूल से माध्यमिक स्तर तक 100% जीईआर (GER) प्राप्त करना है।भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy) 21वीं सदी की पहली शिक्षा नीति है। यह नीति भारत की परंपराओं और मूल्यों को ध्यान में रखते हुए बनायी गयी है।भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति के तहत स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा में कई अहम बदलाव किए गए हैं जिसका लक्ष्य देश को विश्व स्तरीय (World Class) और कौशल आधारित (Skill Based) शिक्षा प्रदान करना है।

नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020) को केंद्रीय कैबिनेट ने 29 जुलाई 2020 को मंजूरी दी थी। यह 34 वर्षों के बाद भारत का सबसे बड़ा शैक्षिक सुधार है। नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के. कस्तूरीरंगन (K Kasturirangan) की अध्यक्षता में बनी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 1986 में ड्राफ्ट हुई थी और 1992 में इसमें संशोधन (Update) हुआ था। अब करीब 34 साल बाद, 2020 में इसमें कई अहम व महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। जिसे इसके 108 पेजों के ड्राफ्ट में 21वीं शताब्दी की पहली शिक्षा नीति बताया गया है। नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति देश विकास के लिए अनिवार्य शिक्षा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बनायी गयी है। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य भारत के युवाओं को समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करना है। वर्ष 2015 में, भारत ने संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक शिक्षा विकास (United Nations global education development for Sustainable Development (SDG4) goal 4 एजेंडा को अपनाया है। जिसके तहत भारत समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा को 2030 तक पूर्ण रूप से लागू करना चाह रहा है।

भारत के SDG4 ग्लोबल एजेंडा में विश्व स्तरीय ओर उच्च गुणवत्ता शिक्षा सभी को देने का लक्ष्य है। एसके साथ-साथ सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देना है। इन सभी महत्वपूर्ण लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भारतीय शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित (re-structure) और पुन: कॉन्फ़िगर (re-configure) करना अनिवार्य है। नई शिक्षा नीति 2020 का विजन – Vision of New Education Policy: नयी शिक्षा नीति भारत के सभी छात्रों को विश्व स्तरीय, उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा, देने के लक्ष्य से बनायी गयी है। इस नीति से छात्रों की संज्ञानात्मक क्षमताओं (Cognitive Capacities), समस्या-समाधान दृष्टिकोण (Problem Solving Attitude), को उजागर करने का प्रयास है।

नयी शिक्षा नीति भारत के सभी युवाओं में सामाजिक, नैतिक और भावनात्मक क्षमता को भी विकसित करने के उद्देश्य से भी तैयार की गयी है। यह शिक्षा नीति न केवल छात्रों के लिए है बल्कि पूरे Indian Wducation System को उन्नत करने के लिए बनायी गयी है, जिसमें छात्र, शिक्षक और पूरी शिक्षा प्रणाली शामिल है। यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति Technology, Artificial Intelligence (AI), Data Science को शिक्षा के छेत्र में अपनाकर इसमें और गुणवत्ता लाने का प्रयास करेगी ।साथ ही साथ शिक्षण व्यवसायों में प्रवेश करने के लिए सर्वश्रेष्ठ और प्रतिभाशाली शिक्षकों (Brightest Teachers) की भर्ती के लिए पर्याप्त Teaining ओर Assessment मॉडल भी बनाने का काम करेगी।नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (New Education Policy -2020) स्कूली शिक्षा में 10+2 के पुराने शैक्षणिक ढांचे को संशोधित और उन्नत करेगी। 5+3+3+4 का एक नया शैक्षणिक structure तैयार किया जाएगा जो 3-18 वर्ष की आयु के छात्रों को कवर करेगा। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पाठ्यक्रम का पुनर्गठन होगा और पुराने शैक्षणिक ढांचे को बदलकर नवीनतम शैक्षणिक ढांचे (New Academic Structure) में विकसित किया जाएगा।

वर्तमान 10+2 शैक्षणिक संरचना में 3-6 आयु वर्ग के बच्चों को कवर नहीं किया जाता है क्योंकि कक्षा एक 6 वर्ष की आयु से शुरू होती है। नई 5+3+3+4 संरचना (Academic Structure) में, प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा का एक मजबूत आधार Early Childhood Care and Education ( ECCE) 3 साल की उम्र से भी शामिल है। इस नए शैक्षणिक ढांचे का उद्देश्य कम उम्र से ही बेहतर समग्र शिक्षा, विकास और कल्याण को बढ़ावा देना है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत 2 साल की प्री-प्राइमरी शिक्षा (Pre-primary Education) 3 से 6 साल के बच्चों के लिए होगी। इस 2 वर्षीय प्री-प्राइमरी स्कूलिंग का उद्देश्य बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के लिए तैयार करना है। प्री-प्राइमरी शिक्षा के 2 वर्षों के दौरान बच्चों को आंगनबाडी या समुदाय आधारित नर्सरी स्कूलों में निःशुल्क पढ़ाया जाएगा। इसे शुरू करने का उद्देश्य शिक्षा के प्रारंभिक वर्षों पर अधिक जोर दिया जाएगा और बच्चों की शिक्षा की शुरूवात से ही एक मजबूत सीखने की नींव रखी जाएगी। तीन से छह वर्ष की आयु के बच्चों को ऐसी गतिविधियों में लगाया जाएगा जो उन्हें खेल, मनोरंजक आदि के माध्यम से सीखने और समझने में मदद करेगा। इससे 3-6 वर्ष की आयु के बच्चे स्कूली पाठ्यक्रम के अंतर्गत आएंगे। प्रारंभिक चरण की शिक्षा को आनंदमय, चंचल और मस्ती भरे माहौल में बनाने के लिए और अधिक प्रयास किए जाएंगे।प्रारंभिक शिक्षा पर जोर देने के साथ, एनसीईआरटी (NCERT) बचपन की देखभाल और शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या और शैक्षणिक ढांचा (National Curricular and Pedagogical Framework for Early Childhood Care and Education) विकसित करेगा जिसे NCPFECCE के रूप में जाना जाएगा।

इस पाठ्यचर्या और शैक्षणिक ढाँचे में 8 वर्ष तक के बच्चों को शामिल किया जाएगा। प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा आंगनवाड़ी और प्री-स्कूल जैसे संस्थानों के व्यापक नेटवर्क के माध्यम से वितरित की जाएगी। शिक्षकों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को ECCE शिक्षाशास्त्र और पाठ्यक्रम के अनुसार प्रशिक्षित किया जाएगा। NEP-2020 में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मकता (Foundational Literacy and Numeracy) सीखने पर अधिक ज़ोर देना का प्रयास होगा।इसके लिए सभी राज्य 2025 तक ग्रेड 3 तक के छात्रों के लिए सभी प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक आधारभूत साक्षरता और संख्यात्मकता प्राप्त करने के लिए एक कार्यान्वयन योजना तैयार करेंगे। प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या और शैक्षणिक ढांचा (NCPFECCE) एनसीईआरटी द्वारा विकसित किया जाएगा और इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय, महिला और बाल विकास (WCD), स्वास्थ्य और परिवार कल्याण (HFW), और जनजातीय मंत्रालयों द्वारा संयुक्त रूप से लागू किया जाएगा।स्कूलों को बच्चों के सर्वांगीण विकास और सीखने की संस्था के रूप में परिसरों या समूहों में व्यवस्थित किया जाएगा। स्कूल एक ऐसा स्थान होगा जहां छात्र जीवन कौशल सीख सकें, बुनियादी शिष्टाचार विकसित कर सकें और जिम्मेदार इंसान के रूप में विकसित हो सकें। स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं और संसाधन जैसे बुनियादी ढांचा (Infrastructure), पुस्तकालय (Libraries) और एक पेशेवर शिक्षण समुदाय (Professional Teaching Community) का होना आवश्यक किया जाएगा। नई शिक्षा नीति सिद्धांतों के एक निश्चित सेट पर आधारित है जो भारत के युवाओं को विश्व स्तरीय (World Class), उच्च गुणवत्ता (High Quality) वाली शिक्षा प्राप्त करने में मदद करेगी।

इस नई शिक्षा नीति-2020 का उद्देश्य सिर्फ़ जनता को शिक्षित करने तक सीमित नहीं है बल्कि युवाओं को एक जिम्मेदार इंसान बनाना भी है। नई शिक्षा प्रणाली का मुख्य उद्देश्य युवाओं के बीच अच्छे चरित्र (Good Character) का विकास करना है और उनको एक अच्छा इंसान (Good Human Being) बनना है जो समाज में योगदान दे सके। शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में से एक तर्कसंगत विचार (Rational Thought) और क्रिया को विकसित करना है, जिसमें करुणा (Compassion), सहानुभूति (Empathy), रचनात्मक कल्पना (Creative imagination) और नैतिक मूल्य (Ethical Values) हैं।

नई शिक्षा प्रत्येक छात्र की अनूठी क्षमताओं (Unique Capabilities) पर केंद्रित है। यह जीवन के शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास के लिए माता-पिता और शिक्षकों की मदद से प्रत्येक छात्र के गुणों को पहचानने और पोषित करने में मदद करेगी। नई शिक्षा नीति से छात्रों को मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता (Foundational literacy and Numeracy) को प्राथमिकता दी जाएगी। नई शिक्षा का उद्देश्य ग्रेड 3 तक के सभी छात्रों में इसे हासिल कराना है। नई शिक्षा नीति में विज्ञान, कला और वाणिज्य स्ट्रीम में कोई ख़ास Difference नहीं किया जाएगा। नई शिक्षा नीति उनके कार्यक्रमों और विषयों को चुनने में लचीलापन प्रदान करेगी। इससे छात्रों को उनकी प्रतिभा और रुचि के अनुसार अपना रास्ता चुनने में मदद मिलेगी। कला और विज्ञान के बीच कोई नहीं होने के साथ सीखने के विभिन्न क्षेत्रों को समान प्राथमिकता दी जाएगी। पाठ्यचर्या और पाठ्येतर गतिविधियों (Curricular and extracurricular activities) और व्यावसायिक और शैक्षणिक धाराओं (Vocational and Academic) को कमोबेश एक जैसा माना जाएगा। इस बहु-विषयक दुनिया के लिए, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, कला, मानविकी और खेल के क्षेत्रों में एक बहु-विषयक और समग्र शिक्षा (Multidisciplinary and Holistic Education) लागू की जाएगी। परीक्षा के लिए सीखने के बजाय विषय की अवधारणात्मक समझ (Conceptual Understanding) पर अधिक जोर दिया जाएगा। छात्रों को रचनात्मक सोचने के लिए प्रेरित किया जाएगा और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित किया जाएगा। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मानवीय नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों जैसे सहानुभूति, जिम्मेदारी, स्वच्छता, दूसरों के लिए सम्मान, सार्वजनिक संपत्ति के लिए सम्मान, वैज्ञानिक स्वभाव, समानता आदि सिखाएगी। नई शिक्षा नीति बहुभाषावाद (Multilingualism), स्थानीय भारतीय भाषा (Local Languages of India) और शिक्षण और सीखने में भाषा की शक्ति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

संचार कौशल (Communication Skills), सहयोग (Co-operation) और टीम वर्क जीवन के हर चरण में आवश्यक सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी जीवन कौशल हैं, इन कौशलों को बहुत कम उम्र से शामिल करने के लिए नया शिक्षा पाठ्यक्रम तैयार किया जाएगा। यह नीति आज की ‘कोचिंग संस्कृति’ (coaching culture) को प्रोत्साहित करने वाले योगात्मक मूल्यांकन के बजाय सीखने के लिए नियमित रचनात्मक मूल्यांकन पर केंद्रित है। प्रौद्योगिकी (Technology) शिक्षा का भविष्य है, इसलिए शिक्षण, सीखने और मूल्यांकन में प्रौद्योगिकी के व्यापक उपयोग से छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों को मदद मिलेगी। शिक्षा प्रणाली को पूर्ण समानता सुनिश्चित करने और सभी शैक्षिक निर्णयों को शामिल करने के लिए डिज़ाइन किया गया है ताकि सभी छात्र बचपन की देखभाल से लेकर स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा तक सही तरीके से विकसित हो सकें। शिक्षक और संकाय सदस्य शिक्षा प्रणाली की रीढ़ हैं। उनकी भर्ती, निरंतर व्यावसायिक विकास, सकारात्मक कार्य वातावरण और सेवा शर्तों में कठोर प्रयास किए जाएंगे। नई शिक्षा नीति भारत के गौरव, जड़ता और इसकी समृद्ध, विविध, प्राचीन और आधुनिक संस्कृति, ज्ञान प्रणालियों और परंपराओं के प्रति संरेखित है। महत्वपूर्ण सोच और अधिक समग्र, पूछताछ-आधारित, खोज-आधारित, चर्चा-आधारित और विश्लेषण-आधारित सीखने के लिए जगह बनाने के लिए, प्रत्येक विषय में पाठ्यचर्या सामग्री को उसके मूल अनिवार्य रूप से कम कर दिया जाएगा। अध्यापन और अधिगम (Teaching and Learning) को अधिक संवादात्मक तरीके से संचालित किया जाएगा; प्रश्नों को प्रोत्साहित किया जाएगा, और कक्षा सत्रों में नियमित रूप से छात्रों के लिए गहन और अधिक अनुभवात्मक सीखने के लिए अधिक मजेदार, रचनात्मक, सहयोगी और खोजपूर्ण गतिविधियां शामिल होंगी।

यह दुनिया भर में समझा जाता है कि छोटे बच्चे अपनी शिक्षा, तालीम, पढ़ाई मातृभाषा (Mother Tongue) या घरेलू भाषा में अवधारणाओं को अधिक तेज़ी से सीखते और समझते हैं। नई शिक्षा नीति ग्रेड 5 तक, लेकिन अधिमानतः ग्रेड 8 और उससे आगे तक, घरेलू भाषा, मातृभाषा या स्थानीय भाषा में शिक्षा के माध्यम को बढ़ावा देगी। बहुभाषावाद के समर्थन को प्रोत्साहित किया जाएगा क्योंकि कई भारतीय परिवारों में कई भाषाएँ बोली जाती हैं, परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बोली जाने वाली एक घरेलू भाषा हो सकती है जो कभी-कभी मातृभाषा या स्थानीय भाषा से भिन्न हो होती है। ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से किसी व्यक्ति की मातृभाषा महत्वपूर्ण है और लोकतंत्र उन्हें अपनी विरासत, विरासत और स्थानीय बोलियों की रक्षा और संरक्षण करने का अवसर देता है। ज्ञान संबंधी विकास जो बच्चे अपनी मातृभाषा में सीखते हैं, उनमें आलोचनात्मक सोच, समस्या-समाधान और रचनात्मकता जैसे मजबूत संज्ञानात्मक कौशल विकसित होते हैं। यह फाउंडेशन उन्हें बाद में जीवन में अन्य भाषाओं और विषयों में उत्कृष्टता हासिल करने में मदद कर सकता है।  शैक्षिक उपलब्धि: जो बच्चे अपनी मातृभाषा में पारंगत होते हैं, वे समग्र रूप से शैक्षणिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। पढ़ने-लिखने में उनकी नींव मजबूत होती है, जो उन्हें अन्य विषयों में मदद कर सकती है। सांस्कृतिक पहचान:किसी व्यक्ति की मातृभाषा अक्सर उनकी सांस्कृतिक पहचान और विरासत से निकटता से जुड़ी होती है। यह संस्कृति को जीवित रखने का एक प्राथमिक तरीका भी है।

संचार: अपनी मातृभाषा में पारंगत होने से परिवारों, समुदायों और स्थानीय संदर्भों में संचार में सुधार हो सकता है। बच्चों के लिए अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ अपनी मूल भाषा में संवाद करने में सक्षम होना भी महत्वपूर्ण है। अन्य भाषाएँ सीखना:अपनी मातृभाषा को अच्छी तरह जानने से अन्य भाषाएँ सीखना आसान हो जाता है। स्वाभिमान: अपनी मातृभाषा को अच्छी तरह जानना आत्म-सम्मान का विषय हो सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 अपनी भाषा और बोलियों में सीखने, सिखाने और समझने का अवसर देती है जिसे हमारे बच्चे सबसे पहले सीखते हैं।संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास लक्ष्य 4 (एसडीजी 4) यह सुनिश्चित करना है कि सभी लोगों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और आजीवन सीखने के अवसर उपलब्ध हों। यह लक्ष्य सितंबर 2015 में स्थापित किया गया था और इसका उद्देश्य शिक्षा में असमानताओं को कम करना है, खासकर कमजोर आबादी के लिए। एसडीजी 4 के कुछ लक्ष्यों में शामिल हैं: यह सुनिश्चित करना कि सभी बच्चे प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पूरी करें, जो मुफ़्त, न्यायसंगत और उच्च गुणवत्ता वाली होनी चाहिए।

यह सुनिश्चित करना कि सभी युवा और वयस्कों का एक बड़ा हिस्सा साक्षर हो और उनके पास बुनियादी संख्यात्मक कौशल हो, उन युवाओं और वयस्कों की संख्या में वृद्धि हो जिनके पास रोजगार, उद्यमिता और सभ्य कार्य तक पहुंचने के लिए आवश्यक कौशल हैं, यह सुनिश्चित करना कि सभी लोगों को समान पहुंच प्राप्त हो सभी स्तरों पर शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण, जिसमें वे लोग भी शामिल हैं जो कमज़ोर हैं, जैसे कि विकलांग लोग, स्वदेशी लोग और कमज़ोर परिस्थितियों में रहने वाले बच्चे, 2030 तक यह सुनिश्चित करना कि सभी महिलाओं और पुरुषों को विश्वविद्यालय सहित सस्ती और गुणवत्तापूर्ण तकनीकी, व्यावसायिक और तृतीयक शिक्षा तक समान पहुंच मिले। 2030 तक शिक्षा में लैंगिक असमानता को खत्म करना संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, एसडीजी 4 की दिशा में प्रगति धीमी और असमान रही है, जिसमें उम्र, लिंग और भूगोल में महत्वपूर्ण असमानताएं हैं। 2024 में, संयुक्त राष्ट्र ने बताया कि अतिरिक्त उपायों के बिना, छह में से केवल एक देश 2030 तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुंच हासिल कर पाएगा। भले ही देश अपने एसडीजी 4 बेंचमार्क में बताई गई लक्ष्य प्रगति को पूरा कर लें, फिर भी 84 मिलियन बच्चों को बाहर होने का खतरा है। 2030 तक स्कूल। भारत शिक्षा में नहीं बल्कि सभी 17 सतत विकास लक्ष्यों के लिए एसडीजी के समझौते की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। हमारी शिक्षा नीति 2020 हमारे नागरिकों के लिए सभी 17 सतत विकास लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के लिए एक ठोस रोड मैप है।         

शिक्षा में समावेशन विकलांग छात्रों को सामान्य शिक्षा कक्षाओं में एकीकृत करने और उन्हें सफल होने के लिए आवश्यक सहायता प्रदान करने की प्रथा है। इसमें शारीरिक, व्यवहारिक या सीखने की अक्षमता वाले छात्र शामिल हैं। समावेशी स्कूलों में विकलांग छात्रों को भी पाठ्येतर गतिविधियों में शामिल किया जाता है। शिक्षा में समावेशन निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है: शिक्षा के अधिकार को स्वीकार करना, यह स्वीकार करना कि सभी बच्चे सीख सकते हैं, विविधता का जश्न मनाना, बाल विकास के सभी पहलुओं को संबोधित करना, और व्यक्तिगत मतभेदों और विशेष आवश्यकताओं को स्वीकार करना। समावेशी स्कूल निम्नलिखित के माध्यम से विकलांग छात्रों का समर्थन करते हैं: व्यक्तिगत सीखने के लक्ष्य, समायोजन और संशोधन। विकलांग व्यक्ति शिक्षा अधिनियम (आईडीईए) के तहत सभी पब्लिक स्कूलों को नि:शुल्क उपयुक्त सार्वजनिक शिक्षा (एफएपीई) प्रदान करने की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि विकलांगता की परवाह किए बिना छात्रों को समान सामान्य शिक्षा तक पहुंच होनी चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 भी बुनियादी ढांचे के समर्थन और पाठ्यक्रम में बदलाव के माध्यम से स्कूल प्रणाली में समावेशी शिक्षा के महत्व पर जोर देती है। भारत की 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 21वीं सदी की देश की पहली शिक्षा नीति है, जो 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई) की जगह लेती है। एनईपी 2020 का लक्ष्य शिक्षा को अधिक लचीला, समग्र और बहु-विषयक बनाना और प्रत्येक छात्र की अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। यह नीति पहुंच, समानता, गुणवत्ता, सामर्थ्य और जवाबदेही के स्तंभों पर आधारित है और सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा के अनुरूप है। एनईपी 2020 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने का रोड मैप है। मैं वास्तव में दूरदर्शन केंद्र जयपुर राजस्थान का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इतनी महत्वपूर्ण चर्चा के लिए आमंत्रित किया जो वर्तमान में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से राष्ट्र के विकास का प्रमुख लक्ष्य है। मैं प्रस्तुति के लिए कार्यक्रम के कार्यकारी अधिकारी आदरणीय रघुवीर सिंह जी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूं। यह कार्यक्रम, यह चर्चा दूरदर्शन केंद्र जयपुर राजस्थान के चौपाल कार्यक्रम के महत्वपूर्ण खंड के माध्यम से की गई। शिक्षा नीति 2020 इस समय बहुत ही महत्वपूर्ण है और राष्ट्रीय उच्च शिक्षा संस्थान का हिस्सा होने के नाते आसान और सरल तरीके से इसका अधिक से अधिक व्यापक प्रचार-प्रसार करना हमारी संवैधानिक और नैतिक जिम्मेदारी है। पिछले तीन चार वर्षों से मैं लगातार यह काम खूबसूरती से, ईमानदारी से और देश भर में मेरे लिए उपलब्ध कई प्लेटफार्मों के माध्यम से कर रहा हूं।

 

सादर।

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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शनिवार, 24 अगस्त 2024

श्रीमद्भगवद्गीता से जो मैंने सीखा- प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र कुमार (पद्म श्री से सम्मानित)


 श्रीमद्भगवद्गीता से जो मैंने सीखा 

अठारह अध्यायों में विभक्त और कुल सात सौ श्लोकों से सुसज्जित श्रीमद्भगवद्गीता मानव व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास और जीवन-सार्थकता के लिए कटिबद्ध वह अनुपम, अद्वितीय और एकमात्र कृति है, जिसका प्रत्येक श्लोक और हर एक शब्द, केवल और केवल, सत्य के बल पर स्वाभाविक, सरल और सर्वसुलभ मार्ग के माध्यम से विशुद्धतः मावनोत्थान के लिए ही है। सत्यता अथवा शाश्वतता और सरलता, ये दो, श्रीमद्भगवद्गीता की ऐसी विशिष्टताएँ हैं, जो इसे सर्वकालिक और अद्वितीय बनाती हैं। प्रथम शाश्वतता अथवा सत्यता लक्ष्य को, जबकि सरलता, सुलभता को समर्पित है।    

श्रीमद्भगवद्गीता में दर्शन की पराकाष्ठा है एवं धर्म की सर्वोत्कृष्ट व्याख्या है। मानव-जीवन में संस्कृति की भूमिका, योगदान और महत्त्व का ज्ञान है। इसमें उच्चतम नैतिकता और मानवता की भी व्याख्या है। अति संक्षेप में कहें, तो श्रीमद्भगवद्गीता में सर्वत्र सत्य ज्ञान है। सत्य अनुभूति, सत्य पथानुगमन और अन्ततः सत्य के प्रति निष्ठा, भक्ति अथवा समर्पण का, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, सबके लिए सुलभ मार्ग है।

साथ ही, जीवन से सम्बद्ध समस्त क्षेत्रों एवं सभी क्षेत्रों में भी समस्त स्तरों से जुड़ी समस्याओं के मूल कारण और निदान का मार्ग भी है। निराशा के आशा में रूपान्तरण और मानव में भरपूर उत्साह संचार द्वारा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया के सदुपयोग की ओर अग्रसर होने के ग्राह्य सन्देश के साथ उसका आह्वान भी है।  स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया के सदुपयोग के अपने अभूतपूर्व आह्वान और दिखाए गए मार्ग के कारण ही श्रीमद्भगवद्गीता शताब्दियों से वृहद् जनकल्याण के उद्देश्य से विश्वजन की पथप्रदर्शिका के रूप में स्थापित हो सकी। यह आधुनिककाल में अरविन्द घोष (जीवनकाल: 1872-1950 ईसवीं), बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों के जनकल्याण को समर्पित जीवन, कार्यों तथा विचारों का आधार बन सकी। हेनरी डेविड थोरो (जीवनकाल: 1817-1862 ईसवीं), ऐल्डस (लॅनर्ड) हक्स्ले (जीवनकाल: 1894-1963 ईसवीं) व अल्बर्ट श्वित्जर (जीवनकाल: 1875-1965 ईसवीं) जैसे चिन्तकों-विद्वानों, और अल्बर्ट आइन्स्टीन (जीवनकाल: 1879-1955 ईसवीं) जैसे महान पाश्चात्य वैज्ञानिक को गहराई तक प्रभावित कर सकी।      

श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वकालिकता के सम्बन्ध में अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर श्री अरविन्द ने यह कहा है कि प्रत्यक्ष अनुभव से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान युग में भी उतनी ही नव्यतापूर्ण और स्फूर्तिदायक है, जितनी कि (वह) महाभारत में समाविष्ट होते समय (थी)। लोकमान्य तिलक ने गीता को शास्त्रों में हीरा स्वीकार किया है, और महात्मा गाँधी ने गीता को वह माता माना है, जो किसी भी परिस्थिति में, और सदैव ही, अपनी सन्तान को सम्बल देने में साथ रहती है।

सामान्यतः यदि यह कहें कि माता मुक्ति द्वार तक साथ रहती है, तो बात कुछ अटपटी लग सकती है।  लेकिन, माता के रूप में गीता तो मुक्ति द्वार तक साथ निभाती है, यह अपने आप में अतिविशिष्ट स्थिति है।

अन्याय के विरुद्ध राज्य की अवज्ञा विचार के समर्थक हेनरी डेविड थोरो ने श्रीमद्भगवद्गीता के समक्ष अन्य सभी विचारों की तुच्छता की बात की। हक्स्ले ने गीता को सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वीकार किया, और धर्मशास्त्री अल्बर्ट श्वित्जर ने इसे मानव की आत्मा व कर्मों की श्रेष्ठता प्रकट करने वाली अनुपम कृति कहा।

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने स्वीकारा कि उन्हें ब्रह्माण्ड को रचने वाले, व (स्वयं) ब्रह्माण्ड-रचना का विचार भी श्रीमद्भगवद्गीता से प्राप्त हुआ। इसी के माध्यम से उनके भीतर निरासक्ति भावना उत्पन्न हुई।      

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव और प्रेरणा से जुड़े ये तो कुछेक ही उदाहरण हैं। ये मात्र संयोगवश ही हैंI सम्पूर्ण वृतान्त को किसी एक लेख या व्याख्यान के माध्यम से प्रस्तुत किया जाना सम्भव नहीं है। लेकिन, यह वास्तविकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता ने भारत के साथ ही विश्वभर में असंख्य जन, आम और खास, के जीवन को गत हजारों वर्षों की समयावधि में प्रभावित किया है। उनका सुयोग्य मार्गदर्शन कर, उन्हें सशक्त मार्ग प्रदान किया है। अनेक का मार्गदर्शन कर उन्हें युगपुरुषों के रूप में स्थापित भी किया है।    

श्रीमद्भगवद्गीता में, जैसा कि मैंने प्रारम्भ में ही कहा है, दर्शन की पराकाष्ठा है। इसमें धर्म-संस्कृति की श्रेष्ठतम व्याख्या है। यह योग –सत्य से एकाकार करने के कई मार्ग मानव के समक्ष रखती है। तीन प्रमुख योगों, ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के सम्बन्ध में तो गीता सामान्यतः लोकप्रिय है ही।

गीता की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह है कि जिसने, जिस रूप में, या मार्ग से भी इसके माध्यम से सत्य की खोज की; योगेश्वर द्वारा गीता के माध्यम से निर्देशित मार्ग का अनुसरण किया, वह उसी मार्ग से सत्य तक पहुँचा। वासुदेव कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उन (सत्य की पराकाष्ठा) के पास श्रद्धा-समर्पण के साथ किसी भी रूप में, किसी भी मार्ग अथवा माध्यम से (पत्र, पुष्प, फल या जल के साथ भी) आने वाले, निश्चिततः उन्हें ही प्राप्त होते हैं:

 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति/

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन://"

              शताब्दियों से धर्मवेत्ताओं, विद्वानों और चिन्तकों ने श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वकालिक महत्ता और श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है। इस सन्दर्भ में, आधुनिककाल के ही तीन भारतीयों, श्री अरविन्द, लोकमान्य तिलक और महात्मा गाँधी का हमने उल्लेख भी किया है, जिन्होंने गीता-मार्ग से समर्पित होकर अपने जीवन को सार्थक करने की दिशा में निरन्तर पुरुषार्थ भी किए।

श्रीमद्भगवद्गीता के अपने गहन अनुशीलन से जो मैंने अतिश्रेष्ठता के रूप में पाया है, वह है इसमें हर ओर व्याप्त एवं प्रवहमान सत्यता अथवा शाश्वतता और इसकी सरलता। इस आलेख के प्रारम्भ में ही मैंने यह बात कही है।   

अविभाज्य समग्रता ही एकमात्र सत्यता है। वे ही परमेश्वर अथवा परमात्मा हैं। परमात्मा और उनका (अथवा उनके रूप में) दृश्य-अदृश्य व चल-अचल ब्रह्माण्ड का सञ्चालनकर्ता निरन्तर प्रवहमान सार्वभौमिक नियम एक की है। सार्वभौमिक नियम की शाश्वतता से कोई भी मना नहीं कर सकता। जो ईश्वरीय सत्ता को नकारते हैं अथवा किसी ब्रह्म-सत्ता को स्वीकार नहीं करते, वे, वास्तव में, दोनों, शाश्वत सार्वभौमिक नियम और ब्रह्म, परमेश्वर, परमात्मा अथवा ईश्वर को (जो अविभाज्य समग्रता के ही नाम हैं), भिन्न-भिन्न मानते हैं। लेकिन, ऐसा नहीं है। दोनों एक ही हैं।              

सब कुछ, चल-अचल और दृश्य-अदृश्य, उसी अविभाज्य समग्रता की परिधि में है। उसी का अनन्य भाग है। उसी एक मूल से उत्पन्न अथवा प्रकट या निर्मित है। सत्य के प्रतीक योगेश्वर श्रीकृष्ण का श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से दिया गया और सार्वभौमिक एकता का निर्माण करता हुआ यह मूल एवं शाश्वत सन्देश है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन से पग-पग पर यही वास्तविकता प्रकट होती है। विशेष रूप से गीता के नवम और दशम अध्याय में स्वयं योगेश्वर द्वारा इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। नवम अध्याय के अठारहवें श्लोक में प्रकट है:

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्/ प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्// –परम लक्ष्य, पालक, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली और सर्वप्रिय मित्र मैं (सत्यस्वरूप सर्वेकता निर्माता) ही हूँ; सृष्टि और प्रलय, सर्वाधार, सर्वाश्रय और अविनाशी बीजस्रोत भी मैं ही हूँ।       

गीता के दशम अध्याय के बीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं:

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:/अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च// –मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ; सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।

इसी प्रकार, श्लोकों के बढ़ते क्रम में, सरल व ग्राह्य भाव से इसी अध्याय के उनतालीसवें श्लोक के माध्यम से वे पूर्णतः स्पष्टता से कहते हैं, यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन/ न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्// –सर्वभूत मूल बीज, उत्पत्ति का कारण (अविभाज्य समग्रता रूप में) मैं ही हूँ। चराचर अथवा भूत प्राणी में ऐसा कोई नहीं है, जो मेरे बिना हो। मेरे से रहित होना सत्ता (सत्य) रहित होना होगा। इसलिए, सर्वत्र मेरा ही स्वरूप है, मुझ पर ही आधारित है। 

यही क्रम, जैसा कि उल्लेख किया है, श्रीमद्भगवद्गीता में लगातार, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बना रहता है। संक्षेप में, गीताध्ययन से यह सत्यता, सरलता के साथ, मानव के लिए एक ऐसी सीख के रूप में, जैसा कि मैंने स्वयं जाना और समझा है, निरन्तर प्रकट होती है, जो उसके जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करने –जीवन-सार्थकता का मार्ग प्रशस्त करने का अचूक और अद्वितीय माध्यम बनती है।  

कर्म स्वाभाविक हैं; कर्म-प्रक्रिया ही जीवन है। विपरीत इसके, कर्म-अन्त का अर्थ जीवन का अन्त है। कर्म-स्थिति अविकल्पनीय है। अविभाज्य समग्रता की सत्यता के प्रतीक और सार्वभौमिक एकता के निर्माता प्रभु ने श्रीमद्भगवद्गीता में यह वास्तविकता बहुत ही सरल, सहज एवं ग्राह्य वार्ता के माध्यम से मानव के समक्ष रखी है। प्रभु ने कर्म के रूप में उसे प्रदत्त अद्वितीय अधिकार का स्मरण कराते हुए, कर्म को सुकर्म बनाने का उसका आह्वान किया है।

सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता को शिरोधार्य कर, प्रत्येक कर्म को अविभाज्य समग्रता के ही केन्द्र में रखकर, तथा उसी को समर्पित कर निष्पादित करना चाहिए। निज से बाहर आकर इच्छा, कामना, तृष्णा, मोह, लालसा, वासना, आदि जैसी एकांगी एवं अनाधिकारिक प्रवृत्तियों को त्यागकर और फल की इच्छा को, जो उसका अधिकार ही नहीं है, पूर्णतः छोड़कर सर्वकल्याण को समर्पित कर्मों में संलग्नता होनी चाहिए। यही सुकर्म हैI साधारण शब्दों में निष्काम कर्मयोग है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन/ मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि// (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47)

सर्वकल्याण में ही अपने कल्याण को स्वीकार करना; भय-शंका, राग-द्वेष, सुख-दुख की स्थिति में सम रहते हुए, सर्व कल्याणार्थ जीवन-पथ पर अग्रसर रहना ही कर्म निस्स्वार्थता है। यही श्रीमद्भगवद्गीता की वह सीख है, जिसे मैंने जाना और समझा है। कर्म करना ही मानव का अधिकार है और फल की इच्छा करना योग्य नहीं, गीता के इस सन्देश के मूल में रहने वाली सत्यता कि सम्पन्नता और प्रतिष्ठा तो निस्स्वार्थ भावना और समर्पित होकर किए कार्य के स्वाभाविक पारितोषिक हैं, श्रीमद्भगवद्गीता से मैंने यह भी जाना है। यही सत्य और सरल मार्ग है, जो जीवन को सार्थक कर सकता है। मनुष्य को उसके सत्य-प्राप्ति के लक्ष्य तक ले जा सकता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

 

बुधवार, 14 अगस्त 2024

सनातन: व्युत्पत्ति, शब्द का मूल और उद्देश्य


 

सनातन: व्युत्पत्ति, शब्द का मूल और उद्देश्य

 

सनातन शब्द ‘सना’ (‘सन्’+’आ’) और ‘तन’ की सन्धि से बना है। 'सन्' सदैव का द्योतक है। अर्थात्, आदि और अन्त की सीमा से परे जो शाश्वत है; जो वास्तविक है, सदा ही स्थापित एवं सत्य है। '', कंठ-उच्चारित प्रथम अक्षर '' का दीर्घ रूप है तथा कर्ता का सूचक है। ‘सना’ (‘सन्’+’आ’ के जोड़) का जो अच्छा अभिप्राय सामने आता है, वह सदा विद्यमान स्थिति का प्रकटकर्ता है। अटलता को प्रदर्शित करता है। 'तन', ढाँचे या नियम अथवा व्यवस्था के अर्थ में है। पूरे सनातन शब्द का श्रेष्ठ और सर्वमान्य अर्थ सदा विद्यमान या सदैव स्थापित सत्य को समर्पित नियम, ढाँचा अथवा व्यवस्था है।

अब प्रश्न यह है कि सनातन शब्द का उद्गम स्थान कौन-सा है? दूसरे शब्दों में, सनातन शब्द सबसे पहले कहाँ प्रकट हुआ है? यह जानना अति आवश्यक है, क्योंकि आजकल इस सम्बन्ध में भाँति-भाँति की चर्चाएँ हो रही हैं। सनातन शब्द को लेकर तर्क-वितर्क हो रहे हैं। ऐसे तर्क-वितर्कों से कई बार सनातन शब्द की वास्तविकता की अनदेखी के साथ ही इसकी अति उच्च गरिमा को निम्न करने के प्रयास भी सामने आते हैं, यद्यपि सत्यता –शाश्वतता को समर्पित सनातन शब्द की गरिमा एवं गौरव कभी भी कम नहीं हो सकते।

सनातन शब्द का सर्वप्रथम प्राकट्य विश्व के सबसे प्राचीन वैदिक ग्रन्थ ऋग्वेद में ही हुआ है। ऋग्वेद की लिपिबद्धता का काल अति प्राचीन है। मत-मतान्तरों के बाद भी भारत के साथ ही विदेशी विद्वानों द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि इसकी लिपिबद्धता तथागत गौतम बुद्ध के जन्म से अनेक शताब्दियों पूर्व हुई। 'धर्म' के बहुवचन 'धर्माणि' के साथ ही 'सनातन' (सनता) शब्द ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के तृतीय सूक्त के प्रथम मंत्र में प्रकट है। अति सरल शब्दों में कहें, तो इस मंत्र द्वारा अग्नि के अपरिवर्तनीय (शाश्वत) गुणों की सनातनता को उद्धृत करते हुए विद्वान जन से सदैव ही श्रेष्ठ आचरणों की अपेक्षा की गई है। ऐसा करने से वे दोषमय नहीं होते; वे, वास्तव में, वृहद् कल्याणार्थ सत्यज्ञान प्रदान कर अपने स्वभावों को गौरवान्वित करते हैं; सनातन धर्माचरण करते हैं।

ऋग्वेद के इस पूरे मंत्र (3: 3: 1) के अनुसार:

"वैश्वानराय पृथुपाजसे विपो रत्ना विधन्त धरुणेषु गातवे/

अग्निर्हि देवाँ अमृतो दुवस्यत्यथा धर्माणि सनता न दूदुषत्//"

अर्थात्, "जैसे अग्नि अपने सनातन गुण, कर्म, स्वभावों को अक्षुण्ण रखते हुए दोषमुक्त है, उसी प्रकार विद्वान लोग जन-हितार्थ विद्या (सत्यज्ञान) प्रदान करते हुए अपने स्वभावों को भूषित करते हैं। वे धर्माचरण करते हैं।"         

निस्सन्देह, अग्नि को केन्द्र में रखकर, उसके गुण, कर्म, स्वभावों –तेज, ऊर्जा, प्रकाश आदि को उद्धृत करते हुए सनातन की मूल भावना यहाँ स्पष्टतः प्रकट है। यह स्पष्टता अपरिवर्तनीय –सदा स्थापित रहने वाली स्थिति को सामने लाती है। आदि एवं अन्त की स्थिति से परे सनातन की सत्यता को दर्शाती है।

मूलतः ऋग्वेद में प्रकट सनातन शब्द पुराणों, मनुस्मृति और श्रीमद्भगवद्गीता में भी उल्लिखित है। विशेषकर शिवपुराण (2: 2: 16) में सनातन शब्द अविनाशी और मनुस्मृति (4: 138 ) में सत्य का प्रतिरूप है। श्रीमद्भगवद्गीता (14: 27) में जो शाश्वत शब्द आता है, वह भी सनातन के पर्याय के रूप में ही है।

पुराणों, स्मृतियों, रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता सहित महाभारत के रचनाकाल-निर्धारण के सम्बन्ध में विषय-विशेषज्ञों, विद्वानों और अनुसंधानकर्ताओं के मध्य, जाने-अनजाने, मतभेद हैं। मैं ऐसे मतभेदों की चर्चा यहाँ नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन, साथ ही, मैं अपनी इस बात पर तो दृढ़ हूँ कि सनातन शब्द अपनी मूल भावना के साथ सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्रकट हुआ है।

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि शाक्यमुनि गौतम के जीवनकाल से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में वैदिककाल था। वैदिक काल में वेदों का अस्तित्व था। बौद्ध सूत्रों –गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में वेदों का उल्लेख है। तथागत द्वारा मज्झिमनिकाय में सावित्री (गायत्री) मन्त्र को वैदिक ऋचाओं की गरिमा एवं गौरव घोषित करने का प्रसंग आता है।

यही नहीं, इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रामाणिक बात भी सामने आती है। गौतम बुद्ध आनन्द के साथ वैशाली-मार्ग पर थे। दोनों के मध्य वार्तालाप चल रहा था। उस वार्तालाप में शाक्यमुनि ने 'तब तक वज्जियों के कल्याण की बात की, जब तक कि वे पूर्व स्थापित को स्वीकार करते हुए कार्य करें'। पूर्व स्थापित क्या? वह, जो वैदिककाल में व्यवस्था का आधार था; ‘सभा’, ‘समिति’ और ‘विदथ’ जैसी लोकतान्त्रिक संस्थाएँ जिसमें शासन की रीढ़ थीं।

तथागत गौतम बुद्ध की, जैसा कि हम सभी जानते है, करुणा और वृहद् स्तरीय मानव-समानता केन्द्रित मानवतावादी शिक्षाओं में सनातन शब्द सामने आता है। उदाहरणार्थ, धम्मपद (यमक वग्गो-5) में उल्लेख है, "एस धम्मो सनन्तनो –यही सनातन धर्म है", अर्थात्, सदा से चला आ रहा नियम है।

ऋग्वेद के उद्धृत मन्त्र (3: 3: 1) में वर्णित शब्द सनातन और इसी शब्द के तथागत गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में हुए उल्लेख, दोनों की मूल भावना एक समान है। इसके माध्यम से सदाचार (उदारता, बन्धुत्वता और शुद्ध हृदयता के साथ सजातीयों के कल्याण) का मानवाह्वान है। सदाचार ही जीवन-सार्थकता का मार्ग है; यही सनातन व्यवस्था अथवा नियम है। इस शब्द का उद्देश्य स्वाभाविक प्रतिफल को स्पष्ट करते हुए सदैव स्थापित शाश्वत नियम की वास्तविकता को दर्शाना है। अन्ततः अपरिवर्तनीय सत्य को प्रकट करना है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I****

 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

विश्व के मूलनिवासी समुदाय ही संवैधानिक अधिकार और न्याय के असली, नायक, मानवता के योद्धा, जंगल, जल, जमीन तक के सच्चे ट्रस्टी हैं: डॉ. कमलेश मीना।

 

विश्व के मूलनिवासी समुदाय ही संवैधानिक अधिकार और न्याय के असली, नायक, मानवता के योद्धा, जंगल, जल, जमीन तक के सच्चे ट्रस्टी हैं: डॉ. कमलेश मीना।

 

हम सभी को मूलनिवासी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ, बधाइयाँ एवं अभिनंदन!

 

स्वदेशी जन दिवस मनाने का उद्देश्य स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करना है। स्वदेशी लोगों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। आइए इस खूबसूरत उत्सव और अंतर्राष्ट्रीय दिवस के माध्यम से विश्व के मूल निवासियों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के बारे में और जानें। हम सभी को याद रखना चाहिए कि यह केवल एक दिवस मनाने का कार्यक्रम नहीं है, यह विश्व मूलनिवासी दिवस का उद्देश्य उन सबसे पिछड़े, उत्पीड़ित, वंचित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सम्मान और आदर देना है, जिन्होंने प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समुदायों के लिए जबरदस्त अपनी कला, संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों और स्वदेशी प्रथाओं के ज्ञान और विशेषज्ञता के माध्यम से हमेशा बलिदान और योगदान दिया। विश्व के स्वदेशी लोगों का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस विश्व स्वदेशी दिवस के इतिहास और महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाता है। यह मातृ प्रकृति को बढ़ावा देने जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने में समुदाय द्वारा किए गए योगदान और प्रभावों को भी मान्यता देता है।

 

विश्व के स्वदेशी लोगों का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2024 'स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा' पर केंद्रित है। स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में रहने वाले स्वदेशी लोग जंगल के सबसे अच्छे संरक्षक हैं। यह दिन हमें एक मजबूत समुदाय से जोड़ता है जो प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों, जंगल, जल, जमीन को बचाने और संरक्षित करने के लिए हमेशा अपने जीवन का बलिदान देता है। विश्व आदिवासी दिवस का महत्व: एक बची हुई दुनिया, समुदाय और पर्यावरण के सच्चे संरक्षक को बचाने का प्रयास: आदिवासियों के मौलिक अधिकारों की सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है। पहली बार, जनजातीय या स्वदेशी लोग दिवस 9 अगस्त 1994 को जिनेवा में मनाया गया था। अब अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी लोग दिवस उत्सव मानवता और मानवतावाद का अभिन्न अंग बन गया है। इस अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी लोग दिवस के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं: भाषा संरक्षण: यूनेस्को लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से परियोजनाओं का समर्थन करता है। शिक्षा: यूनेस्को यह सुनिश्चित करने के लिए काम करता है कि स्वदेशी बच्चों और युवाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले जो उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती हो और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करती हो। सांस्कृतिक विरासत: यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है। नीति वकालत: यूनेस्को उन नीतियों की वकालत करता है जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों का सम्मान करते हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके समावेश को बढ़ावा देते हैं। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2024 स्वदेशी युवाओं के लचीलेपन और योगदान का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है। उनके सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करते हुए। परिवर्तन के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, विषय स्वदेशी नेताओं की अगली पीढ़ी को समर्थन और सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो यह हमारी दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है।बेहतर विश्व के लिए हमें स्वदेशी समुदायों की आवश्यकता है।

विश्व में अनुमानित 476 मिलियन मूलनिवासी लोग 90 देशों में रहते हैं। वे दुनिया की आबादी का 6 प्रतिशत से भी कम हिस्सा बनाते हैं, लेकिन सबसे गरीब लोगों में से कम से कम 15 प्रतिशत हैं। वे विश्व की अनुमानित 7,000 भाषाओं में से अधिकांश भाषाएँ बोलते हैं और 5,000 विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वदेशी लोग अद्वितीय संस्कृतियों और लोगों और पर्यावरण से संबंधित तरीकों के उत्तराधिकारी और अभ्यासकर्ता हैं। उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विशेषताओं को बरकरार रखा है जो उन प्रमुख समाजों से अलग हैं जिनमें वे रहते हैं। अपने सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद, दुनिया भर के स्वदेशी लोग अलग-अलग लोगों के रूप में अपने अधिकारों की सुरक्षा से संबंधित सामान्य समस्याएं साझा करते हैं। स्वदेशी लोग वर्षों से अपनी पहचान, अपने जीवन के तरीके और पारंपरिक भूमि, क्षेत्रों और प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकार को मान्यता देने की मांग कर रहे हैं। फिर भी, पूरे इतिहास में, उनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। आज मूलनिवासी लोग यकीनन दुनिया के सबसे वंचित और कमजोर समूहों में से एक हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब मानता है कि उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी विशिष्ट संस्कृतियों और जीवन शैली को बनाए रखने के लिए विशेष उपायों की आवश्यकता है। इन जनसंख्या समूहों की जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, हर 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है, जिसे 1982 में जिनेवा में स्वदेशी आबादी पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक की मान्यता में चुना गया था। यह कार्यक्रम उन उपलब्धियों और योगदानों को भी मान्यता देता है जो स्वदेशी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने के लिए करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय दिवस का उद्देश्य स्वदेशी लोगों द्वारा सामना किए गए दर्दनाक इतिहास को पहचानना और अपने समुदायों का जश्न मनाना है। स्वदेशी लोगों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर में स्वदेशी लोगों की अनूठी संस्कृतियों, योगदानों और चुनौतियों को पहचानने और उनका जश्न मनाने के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह दिन स्वदेशी आबादी के अधिकारों की रक्षा करने और उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समावेशन को बढ़ावा देने की आवश्यकता की याद दिलाता है। यूपीएससी की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों को विश्व के स्वदेशी लोगों के बारे में अवश्य जानना चाहिए। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाना स्वदेशी समुदायों के बुनियादी अधिकारों की वकालत का एक मंच है। स्वदेशी समुदायों की गिरावट सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरा है और यह दिन स्वदेशी लोगों की सुरक्षा, संरक्षण और पहुंच का अवसर प्रदान करता है। वैश्विक स्तर पर लगभग 476 मिलियन स्वदेशी लोग हैं, जो 90 देशों में फैले हुए हैं। वे दुनिया की आबादी का लगभग 6% हिस्सा बनाते हैं और 5,000 से अधिक विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया भर में स्वदेशी लोग अक्सर अद्वितीय सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखते हैं और अपनी पैतृक भूमि और प्राकृतिक संसाधनों से गहरा संबंध रखते हैं, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से स्थायी रूप से प्रबंधित किया है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) स्वदेशी लोगों के अधिकारों के समर्थन और वकालत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यूनेस्को स्वदेशी भाषाओं को संरक्षित करने, शिक्षा और साक्षरता को बढ़ावा देने और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए काम करता है। कुछ प्रमुख पहलों में शामिल हैं: भाषा संरक्षण: यूनेस्को लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से परियोजनाओं का समर्थन करता है।

शिक्षा: यूनेस्को यह सुनिश्चित करने के लिए काम करता है कि स्वदेशी बच्चों और युवाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले जो उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती हो और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करती हो। सांस्कृतिक विरासत: यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है। नीति वकालत: यूनेस्को उन नीतियों की वकालत करता है जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों का सम्मान करती हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके समावेश को बढ़ावा देती हैं।

विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2024 स्वदेशी युवाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करते हुए उनके लचीलेपन और योगदान का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है। परिवर्तन के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, विषय स्वदेशी नेताओं की अगली पीढ़ी को समर्थन और सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।

 

2024 की थीम 'स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करना।' हर साल 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय विश्व स्वदेशी दिवस दुनिया भर में स्वदेशी आबादी के बारे में जागरूकता फैलाने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए मनाया जाता है। दुनिया भर में स्वदेशी आबादी प्रकृति के साथ घनिष्ठ संपर्क में रहती है। वे जिन स्थानों पर रहते हैं, वे दुनिया की लगभग 80% जैव विविधता का घर हैं। यह दिन दुनिया के पर्यावरण की रक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए योगदान को भी मान्यता देता है। भारत में मूलनिवासी आबादी को अनुसूचित जनजाति के नाम से भी जाना जाता है।

संयुक्त राष्ट्र ने 23 दिसंबर, 1994 को 9 अगस्त को इस दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया। इस दिन 1982 में स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक हुई थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1995-2004 को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया। इसने 2005-2015 के दशक को दूसरा अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया। स्वदेशी लोग: यूनेस्को के अनुसार, स्वदेशी आबादी वैश्विक भूमि क्षेत्र के 28% हिस्से पर कब्जा करती है। उनकी कुल आबादी लगभग 500 मिलियन है। स्वदेशी आबादी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। उनमें से कई लोग हाशिए पर रहने, अत्यधिक गरीबी और अन्य मानवाधिकार उल्लंघनों से जूझ रहे हैं। उन्हें अभी भी स्वास्थ्य सेवा तक उचित पहुंच नहीं है। अपनी ज़मीन खोने और पर्यावरणीय कारणों से उन्हें खाद्य असुरक्षा का भी सामना करना पड़ता है। भारत में मूलनिवासी लोग: भारत में मूल निवासियों को अनुसूचित जनजाति भी कहा जाता है। अनुसूचित जनजातियों को भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पहला निवासी माना जाता है। उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे कम उन्नत माना जाता है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे मध्य भारतीय राज्यों में पाए जाने वाले 4 मिलियन की आबादी वाले गोंड भारत की सबसे प्रमुख जनजातियों में से एक हैं। पश्चिमी भारत के भील, पूर्वी भारत के संथाल और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के अंडमानी भारत की कुछ प्रमुख जनजातियाँ हैं। आदिवासियों ने अपने ज्ञान का उपयोग न केवल अपने लिए बल्कि पूरे देश के लिए किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को याद करते हुए 'आज़ादी के अमृत महोत्सव' का समापन किया गया। यह आदिवासियों के राष्ट्र प्रेम का अमृत ही था जिसने सिद्दू और कान्हू, तिलका और मांझी, बिरसा मुंडा आदि जैसे वीर योद्धाओं को जन्म दिया।

 

जनजातीय जगत और ज्ञान परंपरा स्वयं विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, आयुर्वेद, होम्योपैथ, भौतिक चिकित्सा, योग और ध्यान की विकिपीडिया है। आदिवासियों को आपदा, प्राकृतिक आपदा, रक्षा एवं विकास का अद्भुत ज्ञान है। ऐतिहासिक किताबों और ग्रंथों में इस बात का जिक्र मिलता है कि किस तरह मुगलों या अंग्रेजों ने पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया लेकिन जब उन्होंने आदिवासी इलाकों में घुसने की सोची तो उन्हें हार का सामना करना पड़ा। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि हम वास्तव में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, तो देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के अवसरों को न केवल आसान बनाने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामीणों या आम लोगों के लिए आविष्कार उपलब्ध कराना। इन्हें वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग में लाने की जरूरत है। आदिवासियों या वनवासियों की अपनी मिट्टी के प्रति प्रतिबद्धता, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण और सम्मान है। आदिवासी लोग अपने जनसंचार माध्यमों के माध्यम से देश को न केवल आजाद कराने बल्कि उसे जगाने का काम भी करते रहे हैं। इस बात से कोई इनकार और उपेक्षा नहीं कर सकता कि बंगाली लोकनाट्य 'जात्रा' का आजादी की लड़ाई में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ था। लोकगीत के पारंपरिक रूप 'पाला' का प्रयोग भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जनजागरण में भी किया गया था। यूं तो इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां आदिवासियों ने जनसंचार माध्यमों के जरिए आजादी की लौ जलाए रखी।

 

ऐसे में अगर हम आदिवासियों के इस ज्ञान, अनुभव, विशेषज्ञता और, शिक्षा को अपनाएं तो आदिवासियों की यह देशी ज्ञान परंपरा देश और दुनिया के लिए सशक्त समाधान का माध्यम बन सकती है, अब इस स्वदेशी को पहचानने की जरूरत है ज्ञान दें और इसे वैज्ञानिक मान्यता दें। हमेशा याद रखें कि यह दिन स्वदेशी लोगों के अपने निर्णय लेने और उन्हें उन तरीकों से लागू करने के अधिकारों पर प्रकाश डालता है, सशक्त बनाता है जो उनके लिए सार्थक और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त हों। संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने अपने प्रस्ताव 49/214 में, हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह विश्व स्तर पर स्वदेशी आबादी के अधिकारों और जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। मूलनिवासियों के महत्व और उनके अर्थ को विस्तार से समझाने के उद्देश्य से यह दिन मनाया जाता है। इसे हमेशा दिल और दिमाग में रखें कि स्वदेशी लोग एक विशिष्ट क्षेत्र या देश के मूल निवासी जातीय समूह हैं, जिनकी अपनी पहचान के साथ विशिष्ट संस्कृतियां, परंपराएं, भाषाएं और मान्यताएं हैं।

 

हमें इस बात की सराहना करनी चाहिए कि विश्व आदिवासी दिवस, विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस, आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह आयोजन उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करता है जो आदिवासी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने में करते हैं। दुर्भाग्य से आज यह सबसे कमजोर समुदाय है और हम सभी को उन्हें बचाने, उनकी कला, स्वदेशी प्रथाओं के ज्ञान और प्रकृति की गहरी समझ को संरक्षित करने के लिए आगे आने की जरूरत है। न केवल आज बल्कि हर दिन, पूरी दुनिया को अपने भविष्य की योजना बनाने के लिए स्वदेशी लोगों के अधिकारों के पीछे खड़ा होना चाहिए। आइए हम सब मिलकर शांति, सम्मानजनक, सुरक्षित और सम्मान से जीने के उनके अधिकारों की रक्षा करें। दोस्तों, आज नहीं बल्कि हर दिन, विश्व समुदाय को अपने भविष्य की योजना बनाने के लिए मूल निवासियों के अधिकारों के पीछे खड़ा होना चाहिए। इस ग्रह पर, यही एकमात्र समुदाय है जो हमें सुरक्षित, स्वस्थ और सतत विकास, ऊर्जा, सुरक्षात्मक जीवन और हर संघर्ष का शांतिपूर्ण समाधान दे सकता है। इन विशेषताओं को हमारे दिलो-दिमाग में हमेशा बनाए रखने की जरूरत है ताकि हम सभी अपने व्यक्तिगत जीवन में एक समझदार, संवेदनशील और सार्वजनिक सरोकार वाला व्यवहार विकसित कर सकें।

 

 

 

सादर।

 

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...