मंगलवार, 12 मार्च 2024

मन के भावों का संग्रह: अंतर्मन के मोती लेखिका: ममता जाट 'मंजुला' समीक्षक—मेवाराम जी गुर्जर

 

मन के भावों का संग्रह: अंतर्मन के मोती

लेखिका: ममता जाट 'मंजुला'

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ममता जाट 'मंजुला' की पुस्तक 'अंतर्मन के मोती' बुक्स क्लिनिक छतीसगढ़ से प्रकाशित हुआ है। पुस्तक की सबसे खास बात यह है कि यह अलग-अलग विधाओं की रचनाओं का संग्रह है। इसमें कविताएं,गीत,गजल,भजन आदि विधाओं की रचनाएँ सम्मिलित की गई है। इस बात में कोई संशय नहीं है कि लेखिका को अलग-अलग विधाओं की रचनाओ का अच्छा अनुभव है।

 

अंतर्मन के मोती' एक ऐसी पुस्तक है जिसमें लेखिका में अपने जीवन के अनुभव को कविता,गजल,गीतों के माध्यम से कागज पर उतारा है। अधिकतर कविताएँ या रचनाएँ लयबद्ध रूप से गाई जा सकती हैं। प्रस्तुत पुस्तक में स्त्री मन की पीड़ा, बेटी का दर्द,समाज में हो रहे अत्याचार और स्त्री की दुर्दशा का बखूबी चित्रण किया गया है।पुस्तक में स्त्री मन की भावनाओं को बहुत सुंदर तरीके से समाहित किया गया है। स्त्री विमर्श की इन रचनाओं से पुस्तक और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

पुस्तक मे कुछ प्रार्थनाएँ भी है जो पाठक को अध्यात्म से जोड़ती है। 'चक्र सुदर्शन लाना' कविता में लेखिका ने भगवान श्री कृष्ण को इतनी शिद्दत के साथ पुकारा है की श्री कृष्ण को पृथ्वीलोक के दु:ख दर्द मिटाने के लिए पुनः अवतार लेना ही होगा।

पुस्तक मे वीर रस की कुछ रचनाएँ भी सम्मिलित की गई है। 'ललकार' शीर्षक रचना में पाकिस्तान को खूब खरी-खोटी सुनाने की हिम्मत लेखिका ने की है। भारत की मिट्टी पवित्र है यह हर भारतीय के लिए गर्व की बात है। लेखिका ने 'पावन तेरी माटी' मे भारत की मिट्टी,यहाँ की संस्कृति,धर्म आदि का खूब गुणगान किया है।

इस पुस्तक में 'पुरुष के पर्याय' शीर्षक से एक बेजोड़ रचना है। स्त्री विमर्श की अनेक रचनाएँ काव्य संग्रह,गद्य-पद्य अनेक विधाओं में खूब सारी सामग्री उपलब्ध है। पर यह सत्य है कि पुरुष पर अभी बहुत कम लिखा गया है। लेखिका ममता जाट 'मंजुला' ने पुरुष के पर्याय शीर्षक में पुरुष की अहमियत को अपने शब्दों में उतारा है। वे लिखती है

 

पुरुष पर भी लिखी जा सकती है कविताएँ,

और गीत भी।

पुरुष संभाले रहता है बहुत कुछ

अपने भीतर।

खुद टूट जाता है,टूटने नहीं देता अपने अस्तित्व को।।

एहसास नहीं होने देता भीतर के शून्य का।

 

लेखिका ने अपनी एक कविता में कवियों को स्पष्ट संदेश दिया है कि आप ऐसी रचनाएँ लिखे जिससे समाज में बदलाव हो,देश की उन्नति हो। क्योंकि कवि यह कर सकता है।

वे लिखती हैं।

 

कागज,कलम की रणभेरी में

शंखनाद जो भर देता है

वह कविता का साधक जग में

समर आवाह्न कर देता है।

 

लेखिका ने मानवता को सबसे बड़ा धर्म माना है। स्त्री मन की भावनाओं को उकेरते हुए 'पहचानो मुझे तुम' शीर्षक से एक लंबी कविता पुस्तक में सम्मिलित है। इस कविता में आज के समाज से आवाहन किया है कि स्त्री को पहचानना होगा। जग का अस्तित्व नारी से ही है। इसे समझना पड़ेगा। स्त्री मां,बहन,बेटी,पत्नी,मित्र सब हो सकती है। उसे प्रेम और सम्मान की जरूरत होती है। जो समाज उसे प्रेम और सम्मान दे पाता है वह  समाज निश्चित रूप से उन्नति के शिखर पर होता है। कवयित्री ने स्त्री को अबला नहीं बल्कि सबला मनाने के लिए भी संदेश दिया है।

 

यह एक आम धारणा है कि कविता दु:ख या उदासी के समय लिखी जाती है। किंतु लेखिका ने 'इस बार खुशी में आना' शीर्षक कविता में यह बात स्वीकार किया है कि कविता को खुशी में भी लिखा जा सकता है l और उन्होंने अपनी कविता से  याचना की है कि तुम मेरे दर्द,पीड़ा और बेचैनी में ही नहीं बल्कि मेरी खुशियों में भी मेरे पास आओ ताकि मैं तुम्हारा दूसरा पक्ष देख सकूँ ।

पुस्तक से यह भी पता चलता है कि लेखिका प्रकृति प्रेमी है। 'प्रकृति का दर्द' शीर्षक से उन्होंने प्रकृति और बेजुबान परिंदों की पीड़ा को अपने मार्मिक शब्दों में ढाला है। उन्होंने समाज में बेटी की इज्जत के साथ हो रहे खिलवाड़ और चारों और घूम रहे आवारा वहशी इंसानों के ऊपर करारा प्रहार किया है। साथ ही समाज को इस दिशा में सोचने और काम करने के लिए संदेश दिया है। इस कविता में इन्होंने इंसान के भेष में घूम रहे खूनी भेड़ियों को जमकर लताड़ा है। समाज को ऐसे भेड़ियों से सावधान रहने के लिए भी आगाह किया है। बहुत हिम्मत चाहिए ऐसी कविताएँ लिखने के लिए। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी समाज में बेटी को हर जगह सम्मान, प्रेम और सहानुभूति नहीं मिलती है। और यह पीड़ा ममता जाट की कविताओं में बखूबी नजर आती है। और यही विशेषता उनकी कविताओं को और अधिक पुष्ट करती है।

 

प्रातः स्मरणीय  महाराणा प्रताप को लेकर भी उन्होंने एक शानदार रचना लिखी है।

 

राजस्थानी गौरव का वह अविचल तुंग हिमाला था।

भीष्म प्रतिज्ञा की थी उसने वह कब डिगने वाला था।

मुगल राज्य सत्ता को उसने निज दम पर ललकारा था।

मेवाड़ी महिमा के आगे अकबर देव पुकारा था

 

मेवाड़ धरा के इस शानदार इतिहास और महाराणा प्रताप की महिमा का अपने शब्दों में उन्होंने कितनी सहज और उत्तेजित शब्दों के साथ वर्णन किया है कि पाठक के रोम-रोम में राष्ट्रभक्ति की ज्वाला उठने लगती है। कविता का अंत करते समय पाठक का रोम-रोम खड़ा हो जाता हैं।

 

बेटी हो महफूज,मत अपमान करो ममता का,अस्थिरता के दौर में,अधूरे ख्वाब,बेटियाँ असमंजस में है,  बेटियाँ अनमोल है,बेबसी, आदि रचनाओं में लेखिका ने स्त्री की पीड़ा और बेटियों के दर्द को अपने शब्द दिए हैं। साथ ही बेटियों के साथ हो रहे अत्याचार पर भी समाज को सावधान किया है।

 

लेखिका ने दिलीप कुमार,मंगल पांडे, झांसी की रानी,राजगुरु, सुखदेवभगत सिंह आदि स्वतंत्रता सेनानियों को याद किया है। पुस्तक में बाल कविताएं भी है जो बच्चों को अपनी और आकर्षित करती है।

'अंतर्मन के मोती' पुस्तक में प्रस्तुति गीत बहुत सुंदर और सहज शब्दों में लिखे गए हैं। जो भावनात्मकता और सकारात्मकता का संदेश लिए हुए समाज को कुछ सीखने और कुछ नया करने का संदेश देते हैं।

'संभल जाओ' गीत की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं

 

लगा कर भूल जाने से शजर भी सूख जाते हैं

जब पिंजरे में बंद होते हैं परिंदे रूठ जाते हैं।

 

इस बात में कोई संशय नहीं है कि ममता जाट 'मंजुला' को कविता और गीत के साथ-साथ गजल लिखने में भी महारत हासिल है। उनकी एक गजल की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं

 

अदावतें ही सही पास सामान तो रख

बेवफा ही सही कोई पहचान तो रख।

 

नफरत ना हो जाए तुझे खुद से कभी

मोहब्बत से थोड़ी जान पहचान तो रख।

 

इतना सूनापन अच्छा नहीं होता प्रिय

दिल में आता जाता मेहमान तो रख।

 

इस संग्रह की कविताएं गीत, गजल आदि प्रकृति, प्रेम, त्याग, सेवा, आक्रोश के साथ-साथ व्यवस्था से दमित लोगों के भीतर उमडते दर्द को मुखरित करती है। और यही संवेदना पाठक के अंतर्मन पर दस्तक देती है।

ममता जाट की रचनाएं सहज और सरल शब्दों में कही गई है जो सामान्य पाठक के भी आसानी से समझ आ आती है। रचनाओ में कहीं पर भी क्लिष्ट शब्दों या कठिनाई का एहसास नहीं होता। यद्यपि कुछ रचनाएं तुकबंदी के रूप में लिखी गई है जिनमें सुधार और निखार आना शेष है। कुछ कविताओं मे गंभीर भाव की कमी भी महसूस होती है।

 

दरअसल यह बेजोड़ संग्रह 'अंतर्मन के मोती' एक स्त्री के मन की भावनाओं को समेटे हुए हैं।

 

पुस्तक अच्छी है,पढ़ी जानी चाहिए।

पुस्तक के लिए ममता जाट 'मंजुला' को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ


गुरुवार, 7 मार्च 2024

अज्ञेय : भाषा और अर्थ की तलाश में व्यक्तित्व की खोज - विवेक कुमार मिश्र


 

अज्ञेय  : भाषा और अर्थ की तलाश में व्यक्तित्व की खोज

- विवेक कुमार मिश्र

आज से 113 वर्ष पूर्व 7 मार्च 1911 को सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय का जन्म कुशीनगर के पुरातत्व उत्खनन स्थल पर चल रहे कैंप में आकाश और धरती के बीच अस्थाई टेंट में हुआ था । एक उन्मुक्त वातावरण , एक स्वच्छंदता और स्वतंत्रता का ,  व्यापकता का परिसर उनको जन्म से मिला था और इस क्रम में स्वतंत्रता की अदम्य पुकार का व्यक्तित्व । अज्ञेय का होना मानव के व्यक्तित्व की तलाश में सर्जनात्मकता की खोज के क्रम में उस बिंदु को देखना है जो हमारे व्यक्तित्व में आकर ले रही होती है । स्वतंत्र चेतना की जब बात करते हैं तो यह तय है कि हम उस परिवेश परिस्थिति की बात करते हैं जिसमें मानव व्यक्तित्व रह रहा है । पल बढ़ रहा है । अज्ञेय के यहां सर्जनात्मकता के मूल में व्यक्ति के उस व्यक्तित्व की खोज है जो समाज में रहते हुए भी सर्जनात्मक कर्म से विशिष्ट है । अलग हटकर सोचता है । अपने होने की पहचान करता है । अपने व्यक्तित्व की तलाश को सामने लेकर आता है । व्यक्ति केवल अपने भीतर से ही आकर नहीं लेता , व्यक्ति के स्वभाव आकार प्रकार में परिवार स्कूल कॉलेज और सामाजिक परिवेश वह सब कुछ आ जाता है जिसे वह अपने कायिक व मानसिक स्वभाव पर सहज ही स्वीकारी होते हुए ग्रहण करता है ।

अज्ञेय साहित्य समाज और संस्कृति को आधुनिकता की परिधि में विस्तार देने वाले साहित्यकार के रूप में एक अलग पहचान व अस्तित्व लेकर आते हैं । उनके यहां साहित्य भाषा और अर्थ की तलाश में व्यक्तित्व की खोज है । इस क्रम में संस्कृति की खोज है । उनके यहां शब्द के सिद्धि पर जोर है । अज्ञेय के यहां एक भी अनावश्यक शब्द नहीं मिलेगा । न ही भरती के शब्द मिलेंगे । जो भी शब्द है वह जीवन की भट्टी में तप कर आए हैं । वह शब्दों को पूंजी की तरह रखते हैं । शब्द सबसे कीमती है । यह हमारा रूपाकर है । इस पर हमारे अस्तित्व की इमारत खड़ी है । इसलिए यहां कुछ भी अनावश्यक नहीं होना चाहिए । शब्द को पाने में भले ही पूरा जीवन खर्च हो गया । भटकते भटकते पैरों में छाले पड़ जाए । वह सब काम्य है । एक अर्थ से भरे नए शब्द व नए बिम्ब के लिए जीवन का सारा संघर्ष उनके यहां काम्य है और यही से शब्द को ताजगी , प्राण वायु और अर्थ की सत्ता मिलती है । इस दृष्टि से अज्ञेय एक ऐसे रचनात्मक व्यक्तित्व के रूप में सामने आते हैं जो शब्द , संकेत और भाषा के सहारे मानवीय व्यक्तित्व को आकार देते हैं । मनुष्य की सर्जनात्मकता में अपनी उपस्थिति , उसकी भाषा प्रियता के साथ और भी बड़ी हो जाती है ।

अज्ञेय की रचनात्मक यात्रा उनके व्यक्तित्व को साक्षी भाव से अभिव्यक्त करती है । वह मूलत कवि हैं पर कवि होने के साथ-साथ एक सजग गद्यकार के रूप में उनकी ख्याति सामाजिक विस्तार को व्यापकता में ग्रहण करती है । उनके उपन्यास - शेखर एक जीवनी भाग 12 , नदी के द्वीप तथा अपने-अपने अजनबी मूलत मानवी व्यक्तित्व की खोज के पर्याय के रूप में सामने आते हैं । शेखर एक जीवनी भाग 12 क्रमशः शेखर नाम के व्यक्ति की किशोरावस्था से युवावस्था का चित्र है । शेखर जो बालपन से किशोरावस्था की ओर जाते हुए देखता है कि किस तरह से कांट छांटकर एक व्यक्ति को सांचे में ढ़ाला जाता है । सांचे में ढ़ाले जाते व्यक्ति के खिलाफ बालक शेखर का विद्रोह सहज है और उसे बराबर से विद्रोह की कीमत चुकानी पड़ती है । सामान्य ढ़ंग से उसकी स्कूली शिक्षा नहीं हो पाती । वह घर पर ही पढ़ता है और अपनी पाठशाला में अपने अनुभव की पाठशाला में सीखते हुए आगे बढ़ता है । किशोर से युवा और नौजवान शेखर का ... विकास पूरा का पूरा विकास ढांचागत व्यवस्था के खिलाफ मुखर व्यक्तित्व की स्वायत्तता का है । इसलिए अज्ञेय शेखर के व्यक्तित्व के माध्यम से कहते हैं कि व्यक्तित्व बनाए नहीं जाते बल्कि पैदा होते हैं । कलाकार स्वतंत्रता की अदम्य पुकार वाले व्यक्तित्व को किसी सांचे में निर्मित नहीं किया जा सकता । इसमें आगे का विकास नदी के द्वीप उपन्यास में दिखाई देता है जहां वह वयस्क शेखर और प्रेम की समस्या पर अज्ञेय ने सर्जनात्मक उपलब्धि के को लेकर विचार किया है । प्रेम मानवी व्यक्तित्व को बड़ा करता है । वह हमारी लघुता और सीमाओं को स्वाधीन करता है । इस तरह नदी के द्वीप में एक प्रौढ़ मानवीय व्यक्तित्व से हम सब साक्षात्कार करते हैं । और उनके तीसरे उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी ' जो अस्तित्व की समस्या को लेकर है । जीवन के विचार पक्ष को लेकर है । जीवन की सार्थकता को लेकर है और एक विशेष परिस्थिति में जीवन जीना ही किस तरह काम्य हो जाता है । इसे केंद्र में रखते हुए अपने-अपने अजनबी उपन्यास आगे बढ़ता है । अज्ञेय के भीतर जीवन की एक सर्जनात्मक व्याख्या आदि से अंत तक व्याप्त दिखाई देती है । अज्ञेय के सर्जनात्मक उपलब्धियों में कहानियों की दुनिया एक अलग ही ढंग से सामने आती है । उनकी कहानी मानव मन की यथार्थ उपस्थिति और उसकी व्याख्या से जुड़ी है । अज्ञेय के विपुल साहित्य को एक क्रम में यों रखा जा सकता है -

कविता संग्रह - भग्नदूत (1933) , चिंता (1942) , इत्यलम (1946) , हरी घास पर क्षण भर (1949), बावरा अहेरी (1954) , इंद्र धनु रौंदें हुए (1957) , अरी ओ करुणा प्रभामय (1959), आंगन के पार द्वार (1961), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूं (1970) , सागर मुद्रा (1970) , पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं (1974) , महावृक्ष के नीचे (1977)नदी की बाक पर छाया (1981), प्रिजनडेज एंड पोयम्स अंग्रेजी (1946)

कहानी संग्रह - विपथगा (1937) परंपरा (1944) , कोठरी की बात (1945) , शरणार्थी (1948) जयदोल (1951)

उपन्यास - शेखर एक जीवनी भाग -1 (1941) भाग दो ( 1944) , नदी के द्वीप ( 1951) अपने अपने अजनबी (1961)

यात्रा वृत्तांत - अरे यायावर रहेगा याद (1943) एक बूंद सहसा उछली (1960) ,

निबंध संग्रह - सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य, आधुनिक साहित्य एक आधुनिक परिदृश्य।

आलोचना - त्रिशंकु (1945) आत्मनेपद (1960) अद्यतन (1971)

संस्मरण - स्मृति रेखा

डॉयरी - भवंति, अंतरा, शाश्वती।

नाटक - उत्तर प्रियदर्शी।

संपादन - आधुनिक हिंदी साहित्य (1942) , तार सप्तक (1943) , दूसरा सप्तक (1951) तीसरा सप्तक ( 1959) नए एकांकी (1952) , रुपांबरा (1960)

साहित्य समाज और संस्कृति का कोई ऐसा संदर्भ नहीं है जो अज्ञेय की दृष्टि से छुट गया हो । रचना धर्म की इयत्ता उनके यहां आदि से अंत तक रचना के अंतः सूत्रों में बसी रही है ।

साहित्य और संस्कृति के संदर्भ से कोई विधा अज्ञेय से अछूती नहीं रही । अज्ञेय रचनात्मक संदर्भों से साहित्यिक संगठक व्यक्तित्व के धनी रहे । साहित्य की योजनाएं बनाना , साहित्य के विचार को जन-जन के बीच में ले जाना कवि लेखकों को एक रचनात्मक भूमि पर लाते हुए जीवन की व्याख्या करना ही उनके रचनात्मक लेखन का मूल था । साहित्य और भाषा का... चिंतन में शब्द की सत्ता को मूल मानकर व्यक्ति की निजता और व्यक्तित्व की गरिमा ही उनके लेखन का मूल स्वभाव रहा है । अज्ञेय की रचनाओं को पढ़ते हुए मूलतः व्यक्तित्व और मानव चरित्र को पढ़ते हुए हम सब सभ्यता संस्कृति के विमर्श में शामिल होते हैं । उनके यहां स्वाधीन व्यक्तित्व की चिंता ही मूल रूप से है । स्वाधीनता के उद्घोष में ही माननीय व्यक्तित्व की सर्जनात्मकता को अज्ञेय के साहित्य को पढ़े जाने के क्रम में रखे जाने की पहली प्रस्तावना के रूप में लेना चाहिए ।

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...