बुधवार, 23 अप्रैल 2025

कविता— माया - सुश्री कमलेश कुमारी*

        
          जीवन-यात्रा मेँ एक पड़ाव पर,

किसी दिन कुछ स्वरों ने कंपाई श्रवणेंद्रियाँ;

कुछ दृश्यों और सूचनाओं ने कर दिया विचलित,

उस मन को भी, जो करता रहा भ्रम कि

“मैं सुखी हूँ ब्रह्माण्ड मेँ, इस कालांश पर!”

जैसे गिर पड़ा औंधे मुँह पृथ्वी की छाती पर वह सुंदर आकाश,

जिसमें टकी थी चाँद-सितारों के आकर्षण की माया...

     आत्ममंथन के चरमोत्कर्ष पर पड़ते ही अंतर्दृष्टि टूट गया

हृदय भीतर काँच का बर्तन, जिसमें भरा था मिठास का जल

किरचें चुभती हैं आत्मा से लेकर आँखों तक;

और मीठा जल हो गया उदास खारा समन्दर,

जिसके तट पर दृश्य है जीवन की साँझ का।

    तटस्थ खड़े रहकर जितना देखा दुनिया को,

बस पाया ... मेला और बाज़ार व्यावहार का, लेन-देन का!

कहीं रुका मन उस मेले मेँ,

जहाँ रंगरेज़ चढ़ाते थे रंग दुपट्टों पर...

तभी समय की बरखा आई और धो गई सब कच्चे रंग

निर्मल पारदर्शी मन का अपना ही रंग रहा शेष!

     जीवात्मा ढूँढती थी भरोसे का व्यापार,

जिससे कमा सके संसार मेँ सच्चा सुख...

किन्तु विश्वास और निर्वाह की अपेक्षा मे उसे दी गईं

पल प्रति पल मूल्य परिवर्तन करने वाली ‘अस्थिर गोटियाँ’ !

    हो गया उचाट  ...

सुगंध और स्पर्श से, फूलों से देह से

रात्रि भी कटती है चेतना के दीये मेँ

‘तेरे-मेरे’ मन की माया, खुली आँखों से करती है प्रतीक्षा

कार्मिक योग हो पूरा और खुल जाएं क्षितिज के द्वार…

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*सुश्री कमलेश कुमारी वर्तमान में हरियाणा राज्य के शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं।  

  

 

 

   

 

  

    


 

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

सनातन धर्म में जीवात्मा-सम्बन्धी अवधारणा - प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र कुमार

 

 

सनातन धर्म में जीवात्मा-सम्बन्धी अवधारणा

चार मूलाधारों –एक अविभाज्य समग्रता, सार्वभौमिक एकता, शाश्वत परिवर्तन नियम एवं सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में अहिंसा की प्रकटता के बाद सनातन धर्म में जो अति प्रमुखता से उभरता सिद्धान्त है, वह 'आत्मा' आत्मन्’ (जो विशेष रूप से उपनिषदों की सर्वप्रमुख विषय-वस्तु है; उपनिषदों में अन्तर्निहित वह मूलभूत सत् है, जो शाश्वत तत्त्व है और मृत्यु के उपरान्त भी जिसका विनाश नहीं होता), से जुड़ा हुआ है। वास्तव में, यह जीवात्मा के लिए हैं, जिसकी अविभाज्य समग्रता –परमात्मा अथवा ब्रह्म-परब्रह्म के बाद जगत-व्यवस्था में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थिति है। यही चेतना –जीवन का आधार है। वेदों से लेकर उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता तथा सनातन धर्म के लगभग अन्य सभी प्रमुख ग्रन्थों में अविभाज्य समग्रता की परिधि और व्यवस्था में जीवात्मा की सत्ता, स्थिति व लक्ष्य आदि के सम्बन्ध में उल्लेख प्रकट हुए हैं। परमात्मा के साथ ही आत्मा की वास्तविकता, कर्म-संलग्नता, विषेकर देहत्यागोपरान्त मानवात्मा की स्थिति के बारे में वर्णन आए हैं। इन सभी उल्लेखों-वर्णनों पर धर्मवेत्ताओं एवं दार्शनिकों की व्याख्याएँ और विचार भी हैं। हम जानते हैं कि  वेदों से सम्बद्ध उपनिषदों में "अयं आत्मा ब्रह्म –यह आत्मा ब्रह्म है" (अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक-2), "प्रज्ञानं ब्रह्म –यह प्रज्ञान (परम वास्तविकता –चेतना) ही ब्रह्म है", (ऋग्वेदीय ऐतरेय उपनिषद्, श्लोक 3: 1: 3),"अहं ब्रह्मास्मि –मैं ब्रह्म हूँ" (यजुर्वेदीय बृहदारण्यक उपनिषद्, श्लोक 1: 4: 10) और "तत्त्वमसि –वही ब्रह्म तू है" (सामवेदीय छान्दोग्य उपनिषद्, श्लोक 6: 8: 7) जैसे उल्लेख हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (2: 23) में "नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः/ न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुतः// –इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती; जल से इसे भिगोया नहीं जा सकता और वायु से इसे सुखाया नहीं जा सकता", जैसा श्लोक प्रमुखता से हमारे सामने आता है।

इन सभी उपनिषदीय एवं गीता के उल्लेखों –वेदान्तानुसार का सार यह है कि आत्मा अविभाज्य समग्रता –ब्रह्मरूप (सवर्त्र ब्रह्म=सर्व उत्पत्ति स्रोत+सर्व समावेशी, मुण्डक उपनिषद, 1: 1: 7) है; यह नित्य एवं शाश्वत है। मानव-काया के साथ, पूर्ण वास्तविकता की अनुभूति, सत्यता से साक्षात्कार व एकाकार हेतु सक्षम है। वह अविभाज्य समग्रता –ब्रह्म की परिधि में विद्यमान सार्वभौमिक एकता की एकमात्र सत्यता से परिचित होकर, अपनी दिव्य प्रकृति को प्राप्त करने में समर्थ है। "विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह/ अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते// –जो विद्या-अविद्या, दोनों को ही साथ-साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर, विद्या द्वारा अमृतत्त्व को प्राप्त कर लेता है।" (ईशावास्योपनिषद्, श्लोक-11)

ब्रह्म तथा आत्मा उपनिषदों के सर्वप्रमुख विषय हैं। उपनिषद्, वेदों के अन्तिम भाग हैं, इसीलिए उपनिषदीय दर्शन वेदान्त कहलाता है।  

वेदान्त दर्शन की कई शाखाएँ है। उनमें तीन, आदि शंकराचार्या-विचार केन्द्रित अद्वैत, रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित विशिष्ट अद्वैत तथा मध्वाचार्य द्वारा प्रस्तुत द्वैत प्रमुख हैं।

अद्वैत, ब्रह्म की एकमात्र सत्यता को स्वीकार करता है। जगत को मिथ्या मानता है। जीव की ब्रह्म से भिन्नता को स्वीकार नहीं करता है; इसे ही वेदान्त की सत्यमयी घोषणा कहता है। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः/ अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः// –ब्रह्म ही सत्य वास्तविक है; ब्रह्माण्ड मिथ्या है। जीव ही ब्रह्म है और वह उससे भिन्न नहीं है। इसे ही शास्त्र-सम्मत समझना जाना चाहिए। यही वेदान्त द्वारा घोषित किया गया है।

रामानुजाचार्य विशिष्ट अद्वैत विचार ब्रह्म तथा जगत दोनों को सत्य स्वीकारता है; परन्तु जगत को ब्रह्म से पृथक नहीं मानता। ब्रह्म को सर्वव्यापक सर्वोच्च सत्य –वास्तविकता तथा जीव की उस पर निर्भरता को स्वीकार करता है। दूसरे शब्दों में, विशिष्ट अद्वैत दृष्टिकोण के अनुसार, आत्मन अथवा आत्मा भी शाश्वत है और परमात्मा से भिन्न है, लेकिन वह, तब भी, अस्तित्व एवं कल्याण हेतु ब्रह्म पर निर्भर है।

मध्वाचार्य ने शंकराचार्य और रामानुजाचार्य, दोनों से पृथक, अपना द्वैत विचार प्रस्तुत किया। परमात्मा और आत्मा की (अलग स्वतंत्र अस्तित्व के साथ) पृथकता, परमात्मा व पदार्थ की पृथकता, जीवात्मा एवं पदार्थ की पृथकता, एक-से-दूसरी आत्मा की पृथकता –अनेक आत्माओं के अलग-अलग अस्तित्व तथा एक-से-दूसरी भौतिक वस्तु की पृथकता की बात की। साथ ही, ईश्वर की पूर्ण स्वतंत्र स्थिति व जीव-जगतकी उन पर  आश्रितता एवं परमात्मा के नियंत्रण जैसे विचार भी प्रस्तुत किए।

वैदिक-उपनिषदीय ज्ञान को व्यवस्थित व संश्लेषितकर्ता ब्रह्मसूत्र (वेदान्त सूत्र, जो बादरायण रचित है तथा मानव का अपने मूल स्वरूप को जानने का आह्वान करता है; इस हेतु उसका मार्गदर्शन भी करता है) तीनों ही विचारों –अद्वैत, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत का आधार है। ब्रह्मसूत्र, ब्रह्म को, जैसा कि मैं स्वयं अनुभूत कर पाया हूँ –समझ पाया हूँ, जगत में विद्यमान समस्त चल-अचल व दृश्य-अदृश्य का एकमात्र मूल स्वीकारता है। ब्रह्म ही अविभाज्य समग्रता है। सार्वभौमिक एकता-निर्माता है। आदि शंकर, रामानुजाचार्य तथा मध्वाचार्य, तीनों ने ही ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है। अपने-अपने भाष्यों के माध्यम से अद्वैत, विशष्टाद्वैत और द्वैत-सम्बन्धी अपने-अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। तत्त्वमीमांसात्मक मतभेदों के बाद भी, तीनों विचार ब्रह्म सत्ता –अविभाज्य समग्रता की सर्वोच्चता को मानते हैं। ब्रह्म के उपरान्त, जीवात्मा की महत्ता को सर्वाधिक स्वीकारते हैं। जीव-कर्म को, फल का आधार बनाते हैं। मानव-जीवन की कर्मों द्वारा सार्थकता का प्रतिपादन करते हैं।

सनातन धर्म –वैदिक दर्शन आस्तिकता को समर्पित है। इस दर्शन की समस्त शाखाएँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में, अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता में विश्वास करती हैं। आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं। फिर भी, ब्रह्म और आत्मा के सम्बन्ध में वेदान्त-विचार विश्लेषण अतिश्रेष्ठ और सटीक है। आत्मा स्वयं अनुभूति का विषय है। चेतना, आत्मा का परिचय अथवा साक्षत्कार है। नित्य-अनित्य –सत्य-असत्य, अथवा सद्-असद् का बोध निश्चित रूप से आत्मा या आत्मन के माध्यम से होता है, स्वयं मेरी भी यह स्वीकारोक्ति है। वेदान्त विचार भी इस वास्तविकता को उजागर करता है। आत्मा को सत्ता के रूप में स्वीकार करते हुए, इसे सत्य रूप, शुद्ध प्रकाश –स्वयं प्रकाशमान, सत्यमय 'स्व' मानता है। इसलिए, मेरे विचार से आत्मा-सम्बन्धी वेदान्त दृष्टिकोण से साक्षात्कार करने के उपरान्त किसी अन्य विचार-शाखा के सम्बन्धित परिप्रेक्ष्य के विस्तार में जाने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है, तथा वेदान्त दृष्टिकोण, निस्सन्देह, सनातन धर्म विचार अथवा दर्शन का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

 

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सरदार वल्लभभाई पटेल- प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र कुमार


 

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सरदार वल्लभभाई पटेल

          

वल्लभभाई पटेल बाल्यकाल से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। वे पूर्णतः निर्भीक थे। आलस्यहीन थे। मार्ग में आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा से तनिक भी घबराए बिना, उसे दूर करना उनके स्वभाव में था। उनमें नेतृत्व करने का गुण था। वे बचपन से ही आन्दोलकारी-संगठनकर्ता, कठिन परिश्रमी-लगनशील और न्यायप्रिय भी थे। अपनी युवा अवस्था में वे उत्तरदायित्व-निर्वहन, सेवा व समर्पण जैसी विशिष्टताओं के पोषक एवं एक बेजोड़ उदाहरण के रूप में प्रकट हुए। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण के बाद उनमें ढ़ाई दर्जन से भी अधिक ऐसी विशिष्टताओं का संगम था, जो किसी एक मनुष्य में विरले ही मिल सकती हैं। स्वाधीनता के लिए अग्रिम पंक्ति में रहकर संघर्षकर्ता, एक अद्वितीय किसान नेता (उस समय देश की पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक ग्रामीण जनसंख्या की बहुत ही सुदृढ़ आवाज), अतिकुशल प्रशासक और समाजसुधारक के रूप में अपनी विशिष्टताओं के साथ वल्लभभाई पटेल बारडोली से भारत के सरदार बने। अतिविशेष रूप से देश की अभूतपूर्व भौगोलिक-राजनीतिक एकता जैसे भगीरथ कार्य को पूर्ण कर सरदार पटेल एक महानतम भारतीय के रूप में स्थापित हुए। विशेषकर, एक बेजोड़ राष्ट्रनिर्माता के रूप में सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों से कभी भी पृथक नहीं हो सकते। इस सम्बन्ध में डॉ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उस वक्तव्य से मैं पूर्णतः सहमत हूँ, जिसमें उन्होंने ने कहा है, "जब तक भारत जीवित है, उनका (सरदार पटेल का) नाम वर्तमान भारत के ऐसे राष्ट्रनिर्माता के रूप में सदा स्मरण किया जाता रहेगा, जिन्होंने सभी...भारतीय देशी राज्यों का एकमात्र संघ बनायाI उनका यह कार्य हमारे देश के एकीकरण की दिशा में अत्यधिक स्थाई कार्य थाI इस विषय में उनके कार्य को हम कभी नहीं भूल सकते...और जैसा कि मैंने कहा है, जब तक भारत जीवित है, वर्तमान भारत के निर्माता के रूप में उनका नाम सदा स्मरण किया जाता रहेगाI” सरदार साहेब भारत के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का अभिन्न भाग बनने के साथ ही विश्व इतिहास में भी अपना स्थान बना सके। विशुद्धतः राष्ट्र और मानवता को समर्पित सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन, उनके कार्य और दीर्घकाल तक प्रासंगिक रहने वाले वृहद् कल्याणकारी विचार, वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ी गई उनकी विरासत है। सबसे पहले सरदार साहेब के जीवन की श्रेष्ठ गुणों के समान विशिष्टताओं से वर्तमान पीढ़ी का परिचय कराना उनकी 150वीं जन्मजयन्ती पर उनके स्मरण, उन्हें श्रद्धांजलि देने और उनके बेजोड़ पुरुषार्थ को नमन करने का श्रेष्ठ मार्ग अथवा माध्यम है।  

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैंI

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...