शुक्रवार, 21 जून 2024

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार- डॉ0 रवीन्द्र कुमार

 

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार



     डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

'श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार', वास्तव में, एक ऐसा परिप्रेक्ष्य है, जिसकी प्रासंगिकता स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गीता के उपदेश (लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) के समय से आज भी कम नहीं है। कैसे या क्यों? यह प्रश्न हर किसी के मस्तिष्क में आना स्वाभाविक है। इसलिए, परिप्रेक्ष्य की स्पष्टता के लिए, सबसे पहले हमें मूल विषय या विषय में सम्मिलित शब्दों, लोकाचार और नेतृत्व को उनकी मूल भावना के साथ समझना होगा। तदुपरान्त, सैन्य नेतृत्व और लोकाचार का संक्षेप में श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में विश्लेषण करना होगा।

लोकाचार शब्द वस्तुतः मानव आचरण या व्यवहार का व्यापक रूप है। सामान्यतः जब किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरण या व्यवहार, विशेषकर सामान्य हित और कल्याण की दृष्टि से लगभग समान होते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे लोकाचार में बदल जाते हैं। इस प्रकार, लोकाचार एक विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरणों या व्यवहारों का समूह है; निर्धारित नियम और कर्त्तव्यपरायण नैतिकता, दोनों, उनसे जुड़े हुए हैं। एक प्रकार से वे उचित या न्यायसंगत कृत्य –सदाचार को प्रकट करने वाले बन जाते हैं।

इस स्थिति के बाद भी, अर्थात्, किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र की परिधि के लोगों के लिए उपयोगी होने के उपरान्त, यह आवश्यक नहीं है कि कोई लोकाचार किसी अन्य वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के निवासियों के लिए भी समान रूप से कल्याणकारी बना रहे। यही नहीं, किसी लोकाचार के अस्तित्व में आने के बाद उसका सदैव समान रूप से उपयोगी या लाभकारी बने रहना भी सम्भव नहीं है। समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार एक-के-बाद दूसरा लोकाचार स्थापित और स्वीकार किया जा सकता है। नया लोकाचार पहले से अधिक अच्छा और कल्याणकारी हो भी सकता है अथवा नहीं भी हो सकता। दूसरा लोकाचार पहले के एकदम विपरीत हो सकता है। इस सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व (259: 17: 18) में स्पष्ट उल्लेख है:

न हि सर्वहित: कश्चिदाचार: सम्प्रवर्त्तते/

तेनैवान्य: प्रभवति सोऽपरं बाधते पुन://

अर्थात्,ऐसा कोई आचरण-लोकाचार नहीं है, जो सदैव सभी लोगों के लिए समान रूप से कल्याणकारी (या सार्वजनिक हित में) हो। यदि (एक समय पर) एक आचरण स्वीकार कर लिया जाता है, तो दूसरे समय का आचरण उससे श्रेष्ठ नहीं भी हो सकता; तीसरा इसके एकदम विपरीत हो सकता है…I

इसके बाद भी कई लोकाचार दीर्घकाल तक के लिए प्रासंगिक और कल्याणकारी हो जाते हैं, यदि उन्हें उनकी मूल भावना में संरक्षित रखते हुए, समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार परिष्कृत या संशोधित रूप में व्यवहारों में लाया जाता है। उनमें से कुछ तो सदैव के लिए भी, इसी शर्त के साथ, महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी बन जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु इस प्रकार के लोकाचार भविष्य में अपनी स्थापना के समय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। हमें मुख्य रूप से श्रीमद्भगवद्गीता में लोकाचार के सम्बन्ध में प्रकट इस सर्वकालिक पहलू का संक्षिप्त विश्लेषण करना होगा, लेकिन इससे पहले यदि हम इस विषय में जुड़े 'नेतृत्व' शब्द के सम्बन्ध में भी लोकाचार को केन्द्र में रखते हुए तनिक चर्चा कर लें, तो अच्छा होगा।

प्राचीनकाल से ही नेतृत्व के कई प्रकार, श्रेणियाँ, क्षेत्र और स्तर रहे हैं। वर्तमान में भी ऐसा हो सकता है। लेकिन, नेतृत्व सदैव ही अपनी सच्ची और संक्षिप्त परिभाषा में वृहद् कल्याण के उद्देश्य से अन्यों के लिए अनुसरण किया जाने वाला एक आदर्श रूप होता है। दूसरे शब्दों में, यह व्यापक लोक कल्याण के लिए होता है। लोग नेतृत्वकर्ता के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं। नेतृत्वकारी मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं उसकी अग्निपरीक्षा उत्तरदायित्व स्वीकारने तथा उसके समुचित निर्वहन करने में है।

एक नेतृत्वकारी –श्रेष्ठ पुरुष के सम्बन्ध में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता (3: 21) में सत्य ही कहा है:

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः/

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते//

अर्थात्, नेतृत्वकारी –महापुरुष जो भी कार्य करता है, अन्य लोग उसके पदचिह्नों का अनुगमन करते हैं; वह अपने अनुकरणीय कार्यों से जो भी मानक स्थापित करता है, अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं, उसके अनुसार व्यवहार करते हैं।''

किसी लोकाचार की स्थापना, लोगों द्वारा उसे स्वीकार करने और उसकी मूल भावना के अनुरूप व्यवहार करने में नेतृत्व की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है, नेतृत्वकर्ता स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सुनिश्चित करने हेतु मार्ग प्रशस्त करता है कि लोगों द्वारा लोकाचार का समुचित रूप से पालन किया जाए।

परस्पर जन सहयोग द्वारा विशाल स्तर पर लोगों का कल्याण उससे आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है। अनुशासन और आज्ञाकारिता के साथ-साथ कर्त्तव्यनिष्ठ नैतिकता, जो मनुष्य को प्रलोभन, वासना, लालच और बुरी इच्छा जैसी बुराइयों पर नियंत्रण पाने और मानव को जीवन के सत्यमय लक्ष्य की प्राप्ति की ओर ले जाने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन करती है, लोकाचार के अनुपालन हेतु विशेष रूप से केन्द्र में रहती है।

 योगेश्वर कहते हैं, जो मनुष्य सभी इच्छाओं, लोभ-वासनाओं और लालसाओं को त्यागकर, आसक्ति, स्नेह और अहंकार के बिना आचरण करता है (केवल कर्त्तव्यपरायण रहकर नैतिकता की मूल भावना का पालन करता है, जो स्वयं लोकाचार के मूल में निहित है), वह जीवन के लक्ष्य शान्ति को प्राप्त करता है।"

यथा:

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः/

निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति// (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 71)

श्रीमद्भगवद्गीता में न केवल मानव-जीवन में लोकाचार के महत्त्व पर बारम्बार बल दिया गया है, अपितु अनन्तकाल तक मानवमात्र का पथप्रदर्शन करने वाले इस दिव्य गीत के माध्यम से नेतृत्व के महत्त्व पर भी जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने, मानव-जीवन को अर्थपूर्ण, सक्षम और सार्थक बनाने के उद्देश्य से, लोकाचार की अग्रणीय भूमिका से सम्बन्धित एक सर्वकालिक सन्देश भी दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार, निस्सन्देह, सभी के द्वारा धर्ममय कर्मों –सदाचार-संलग्नता में तथा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया द्वारा, जो अन्ततः वृहद् जन कल्याण को समर्पित है, न्यायसंगत संलग्नता में है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, स्वार्थरहित एवं निष्काम कर्म ही मनुष्य का प्रथम धर्म है; यह सर्वोच्च नैतिकता को अक्षुण्ण रखता है। आलस्य, लोकाचार के विपरीत स्थिति है एवं धर्म-मार्ग से भटकाव और अनैतिकता है। श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार-सम्बन्धी यह सन्देश इसे हर युग और प्रत्येक देश में महत्त्वपूर्ण और सर्वकालिक बनाता है। नेतृत्वकर्ताओं को, वे जीवन के किसी भी क्षेत्र से हों, लोगों के कल्याण हेतु, विशेष रूप से किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सभी के लिए न्याय और समानता हेतु, इसे अपने प्रमुख कर्त्तव्य तथा धर्म के रूप में स्वीकार करते हुए जीवन-पथ पर निस्स्वार्थ भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए। यह श्रीमद्भगवद्गीता का एक प्रमुख आह्वान है। लोकाचार और नेतृत्व के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता का यह एक उत्कृष्ट और अनुकरणीय पहलू है।

भारत के इतिहास से अनेक ऐसे नेतृत्वकारियों को उद्धृत किया जा सकता है, जिन्होनें श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्त को जीवन में अंगीकार किया; तदनुसार, कर्म-संलग्नता से देश को नेतृत्व प्रदान करते हुए इतिहास रचे। हिन्दुस्तान के पुनर्जागरणकाल एवं देश की अँग्रेजी दासता से मुक्ति हेतु संघर्ष की अवधि में, और स्वाधीनता के उपरान्त राष्ट्र के पुनर्निर्माण के समय के अनेक महान और महानतम भारतीयों के सम्बन्ध में विशेष रूप से यहाँ यह कहा जा सकता है। भारत के ऐसे महान और महानतम सुपुत्रों के नामों से हम सभी परिचित हैं। सैन्य नेतृत्व के लिए, जिसकी प्राथमिकता से प्रतिबद्धता सभी लोगों की सुरक्षा को अपना स्वधर्म मानते हुए (वास्तव में जो मानव-कर्त्तव्य निर्धारण हेतु सापेक्ष नियम है), हर स्थिति व हर रूप में राष्ट्र की रक्षा करना है, श्रीमद्भगवद्गीता के लोकाचार और नेतृत्व-सम्बन्धी सन्देश को अपने जीवन का परम कर्त्तव्य स्वीकार करना, तदनुसार कार्य करना अतिमहत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से, नेतृत्वकर्ताओं के मनोबल को उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए यह प्रतिरक्षक की भूमिका में है, क्योंकि उच्च मनोबल सैन्य नेतृत्वकारियों को शक्ति के साथ ही उत्तरदायित्व भावना से ओतप्रोत करता है।

सैन्य नेतृत्व और उन सैनिकों के लिए यह श्रेष्ठ एवं सर्वकालिक मार्गदर्शन है, जो स्वयं जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण के निम्नलिखित आह्वान (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47) के अनुरूप निस्स्वार्थ भावना से समदेशियों, राष्ट्र और मानवता की रक्षा के लिए, सभी सांसारिक सम्बन्धों, सुख-दुख, सिद्धि-असिद्धि अथवा प्राप्ति-अप्राप्ति और इच्छाओं से दूर रहकर व अपने प्राण हथेली पर रखकर, सदैव ही तैयार रहते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन/

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि//

इसका अर्थ है, तुम्हारा केवल कर्म में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं; कर्म के फल को अपना उद्देश्य मत बनने दो, न ही निष्क्रियता के प्रति तुम्हारी आसक्ति हो।'' दूसरे सरल शब्दों में, "किसी को कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल का नहीं है।"

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 


 





रविवार, 16 जून 2024

फादर्स डे हमारी मूल जड़ों के सम्मान और पहचान का दिन है, जिन्होंने हमें हवा, पानी, जीवन और आज की दुनिया, मानवता, मानव समाज और हमारे ब्रह्मांड, ग्रह के लिए जिम्मेदारी, कर्तव्य को समझने की दृष्टि दी:डॉ.कमलेश मीना

फादर्स डे हमारी मूल जड़ों के सम्मान और पहचान का दिन है, जिन्होंने हमें हवा, पानी, जीवन और आज की दुनिया, मानवता, मानव समाज और हमारे ब्रह्मांड, ग्रह के लिए जिम्मेदारी, कर्तव्य को समझने की दृष्टि दी:डॉ.कमलेश मीना

 

माता-पिता के प्यार और त्याग को शब्दों में बयां कर पाना या इसे चुका पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। ऐसे में, ‘फादर्स डे’ पिता के समर्पण और प्यार के प्रति सम्मान और खुशी जाहिर करने का दिन है। इस मौके पर लोग अपने पिता के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए अपनी-अपनी तरह से कोशिश करते हैं। ऐसे में, उन्हें गिफ्ट देने से लेकर उनके साथ समय बिताने और जिंदगी में पिता की अहमियत को याद दिलाने के लिहाज से यह दिन दुनियाभर में सेलिब्रेट किया जाता है। 

16 जून 2024 को हमारी मूल जड़ के प्रति कृतज्ञता, आभार, आदर, सम्मान और थोड़ा सा धन्यवाद व्यक्त करने और इस मानव समाज का हिस्सा बनाने के लिए दुनिया भर में फादर्स डे के रूप में मनाया जा रहा है। यह उस पिता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण दिन है जिसने हमें बड़ा किया, लेकिन इसमें न तो मदर्स डे की तरह कोई स्पष्ट छवि है और न ही इसे माँ के रूप में मान्यता दी गई है क्योंकि हमारे जीवन में माँ को अधिक प्राथमिकता दी गई है और पिता को हम थोड़ा पीछे रखते हैं। मेरी राय में यह लैंगिक भेदभाव का भी हिस्सा है। मेरे इस सोशल मीडिया पोस्ट का उद्देश्य माँ और पिता के साथ हमारे संबंधों में इस तरह के भेदभाव, प्राथमिकता और असमानता को मिटाना है।

मेरे पिता आदरणीय श्री राम जी लाल मीना सेवानिवृत्त अर्धसैनिक कर्मी हैं, जिन्होंने भारत के सबसे महत्वपूर्ण अर्धसैनिक बल, जिसे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के रूप में जाना जाता है, के माध्यम से देश की सेवा की, जो भारत के सबसे बड़े अर्धसैनिक बल में से एक है, जो दिन रात में पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक हमारी और देश की सेवा कर रहे हैं। मैंने एक ऐसा समय भी देखा है जब मेरे गांव में ज्यादातर लोग मेरे पिता और उनकी शिक्षा का मज़ाक उड़ाते थे  क्योंकि मेरे पिता ने अपनी शिक्षा पूरी नहीं की थी और उन्हें 1982 में फ़ाइ सागर अजमेर में सीआरपीएफ का हिस्सा बनाया गया थे। ईमानदारी से मैं बता रहा हूं कि मेरा परिवार गरीब मध्यम वर्गीय परिवार था और कोई भी सरकारी सेवाओं का हिस्सा नहीं था और न ही उस समय तक किसी ने मैट्रिक स्तर की शिक्षा पूरी की थी, अब हम मेरे परिवार की दुर्दशा की कल्पना कर सकते हैं।  हम उस परिवार से आते थे लेकिन मेरे पिता भारत के सबसे बड़े अर्धसैनिक बलों में से एक का हिस्सा बने जो न केवल मेरे परिवार के लिए बल्कि मेरे गांव, रिश्तेदारों और उस समय की कई युवा पीढ़ी के लिए गर्व का क्षण था।हजारों युवाओं को राष्ट्र के प्रति मेरे पिता की भूमिका से प्रेरणा मिली और हजारों युवाओं को मेरे पिता के सीआरपीएफ में शामिल होने के बाद उनकी उपस्थिति से प्रेरणा मिली। मैं 1980 के दशक की बात कर रहा हूं, वह समय शिक्षा प्राप्त करने के लिए बहुत कठिन समय था और हमारे अधिकांश गांवों में ऐसी कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। मेरे पिता ने ईमानदारी से हमारी खुशियों के लिए अपना बचपन कुर्बान कर दिया और सपना देखा कि उनका बेटा उच्च शिक्षा हासिल करेगा जिसे वह पूरा नहीं कर सके।

हर साल, दुनिया 16 जून को फादर्स डे का विशेष अवसर मनाती है जो परिवारों को एक साथ लाने और परिवार की रीढ़ के रूप में काम करने वाले अविश्वसनीय व्यक्ति को सम्मानित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह विशेष दिन सभी पिताओं, दादाओं और सौतेले पिताओं को समर्पित है और उनके प्यार, समर्थन और मार्गदर्शन को मान्यता देता है। फादर्स डे हर उस पिता की सराहना करने का एक अवसर है जो हमारे गुरु, संरक्षक और आदर्श रहे हैं। फादर्स डे का विचार सबसे पहले वाशिंगटन के स्पोकेन की एक प्यारी बेटी सोनोरा स्मार्ट डोड ने सोचा था। यह मदर्स डे से भी प्रेरित था जिसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में स्थापित किया गया था। डोड अपने पिता, विलियम जैक्सन स्मार्ट को सम्मानित करने के लिए एक दिन भी चाहती थी, जो गृहयुद्ध के अनुभवी थे और अपनी माँ के निधन के बाद अकेले ही उन्हें और उनके भाई-बहनों को पाला था।

मेरे पिता ने 25 वर्षों तक सीआरपीएफ में सेवा की और अपनी सेवा के दौरान बहुत कठिन समय बिताया, इसमें कोई संदेह नहीं है। आज तक यह सर्वमान्य और सत्य है कि भारतीय सेना, अर्धसैनिक बल के जवान सीमाओं को बचाने, हमारे आंतरिक संघर्ष, शांति, हमारे देश के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को दिन-रात सुरक्षा प्रदान करने गर्मी से सर्दी और बरसात से बाढ़ की स्थितियों में सुरक्षा प्रदान करने के लिए सदैव ईमानदारी और शिष्टाचार, सत्यनिष्ठा से खड़े रहते हैं। यह अपने आप में हम सभी के लिए गर्व का क्षण है।

मुझे हमेशा अपने जीवन के इस गौरवशाली क्षण पर गर्व महसूस होता है कि मेरे पिता ने पंजाब के ऑपरेशन ब्लू स्टार से लेकर भारत के उत्तर पूर्व भाग में उल्फा और बोडो आंदोलन की सक्रियता के दौरान, विशेष रूप से असम में और जम्मू और कश्मीर में (कश्मीर घाटी) आतंकवादी गतिविधियों के दौरान मेरे देश की सबसे महत्वपूर्ण सेवा की।

25 साल की सेवा में मेरे पिता ने कई आम लोकसभा चुनाव और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में सेवा की और चुनाव को शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराया, जो मेरे, मेरे पिता और मेरे समुदाय के सदस्यों के लिए सम्मान की बात थी। मैंने अपने जीवन में सबसे पहले भारत को अपने पिता जी की आंखों से देखा और जो भी भौगोलिक ज्ञान, अनुभव और आंतरिक मुद्दों को समझा, उसका श्रेय मेरे पिता आदरणीय श्री राम जी लाल मीना जी को जाता है। कभी-कभी कई छात्र विभिन्न कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, उच्च शिक्षा संस्थानों और अन्य प्रतिष्ठित स्थानों पर मेरे व्याख्यान के दौरान मुझसे यह प्रश्न पूछते हैं कि आप हमारे देश के विभिन्न हिस्सों का जमीनी स्तर का ज्ञान कैसे जानते हैं? मैं हमेशा कहता हूं कि हां, यह सच है कि मैंने उच्च शिक्षा हासिल की, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन इससे पहले मैंने अपने पिता की नजर से भारत, इसकी विविधता, संस्कृति, स्थानीय बोलियां और भौगोलिक ज्ञान को देखा है। मैंने अपने पिता के मुँह से कई आँखों देखी कहानियाँ सुनीं।

सीआरपीएफ में मेरे पिता के 25 वर्षों के अनुभव ने मुझे एक अलग दृष्टि, जिज्ञासा और प्रेरणा दी, इसमें कोई संदेह नहीं है और आज मेरे पास देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों, राजनीति, आर्थिक विकास, कृषि, सांस्कृतिक विरासत और भारत की विविधता के बारे में थोड़ा ज्ञान, अनुभव, विशेषज्ञता और समझ है।  इसका पहला श्रेय मेरे नायक और मेरे प्रेरणास्रोत नेता, मेरे मित्र, गुरु और मेरे पिता श्री राम जी लाल मीना को जाता है।

मेरे पिता बहुत कठिन समय से गुजरे, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन उन्होंने कभी भी मुझे कोई भी ऐसी चीज देने से इनकार नहीं किया, जो उनकी क्षमता थी, लेकिन मैंने भी हमेशा उनकी क्षमता की रक्षा की और कभी भी ऐसा कुछ नहीं किया, जो मेरे पिता के लिए सहनीय न हो। हाँ, मुझे बचपन से ही अपने पिता के दर्द, उनके सपनों और उनकी इच्छाओं का एहसास था। लगभग 8वीं से 10वीं कक्षा की शिक्षा के दौरान मैंने अपनी क्षमता और अपनी क्षमताओं से अपने पिता के सपनों को पूरा करने का निर्णय लिया। अपने शुरुआती बचपन के दिनों से, मैंने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और अपने पिता के सपनों के अनुसार काम करना शुरू कर दिया था और लगभग तय कर लिया था कि मैं अपने पिता के लक्ष्यों को हासिल करूंगा। आज मुझे लगता है कि अभी भी सभी सपने पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन कुछ सपने पूरे हुए हैं, लेकिन मैंने अपने 45 साल के जीवन में अब तक अपने कार्यों से उन्हें सम्मान, गौरवपूर्ण क्षण और सम्मानजनक स्थान दिया है, लेकिन फिर भी मैंने अपने पिता के सपनों को नहीं छोड़ा है। मैं लगातार, नियमित रूप से, अपनी पूरी क्षमता, क्षमताओं और सर्वोत्तम क्षमताओं के साथ इस पर काम कर रहा हूं।

दोस्तों, यह मेरा सोशल मीडिया लेख न केवल मेरे पिता को समर्पित है, यह हमारे सभी गुरुओं, पिताओं, संरक्षकों को समर्पित है जो हमारे पीछे थे, जो हमारे पीछे हैं और जो अपने बच्चों के पीछे रहकर उनके समृद्ध जीवन को पूरा करेंगे। जिंदगी में पिता की अहमियत किसी से छिपी बात नहीं है। उनके प्यार और त्याग के प्रति आभार जताने और उन्हें  स्पेशल फील करवाने के लिए हर साल जून महिने के तीसरे रविवार को फादर्स डे सेलिब्रेट किया जाता है। पिता का कर्ज चुका पाने वैसे तो पूरी जिंदगी ही कम है, लेकिन अमेरिका की रहने वाली एक लड़की सोनोरा स्मार्ट डोड की ओर से पेश किए गए इस दिन को सेलिब्रेट करने के पीछे बेहद खास वजह छिपी है। पहली बार ‘फादर्स डे’ वाशिंगटन के स्पोकेन शहर में मनाया गया था, जिसका प्रस्ताव सोनोरा स्मार्ट डॉड ने दिया था। दरअसल, सोनोरा की मां नहीं थीं और उनके पिता ने ही पांच अन्य भाई-बहनों के साथ सोनोरा को मां और बाप दोनों का प्यार दिया था। बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उनके प्रति प्यार, त्याग और समर्पण देकर सोनोरा ने मां के लिए मनाए जाने वाले दिन यानी ‘मदर्स डे’ की तरह ही पिता के प्रति प्रेम और स्नेह जाहिर करने के लिए इस दिन को मनाने की शुरुआत की।सबसे पहले सोनोरा के दिमाग में ही इस बात का ख्याल आया था कि मां की तरह कम से कम एक दिन पिता के लिए भी जरूर होना चाहिए। सोनोरा के पिता का जन्मदिन जून में पड़ता था। ऐसे में, उन्होंने जून में इस फादर्स डे को मनाने की याचिका दायर की और इसे लेकर लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए खूब कैंप भी लगाए। फाइनली उनकी यह मांग पूरी हुई और 19 जून 1910 को पहला 'फादर्स डे' मनाया गया। 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने फादर्स डे को जून के तीसरे संडे को मनाने का ऐलान किया था। आगे चलकर इसे पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका में मान्यता मिली और 1972 में इसे अवकाश भी घोषित कर दिया गया।

मुझे आशा है कि आने वाले दिनों में मैं अपने पिता पूज्य श्री राम जी लाल मीना जी के शेष सपनों को उनके जीवन की उपस्थिति में अपने कार्यों, गतिविधियों, जिम्मेदारी और कर्तव्य के माध्यम से अपने देश और देशवासियों के लिए पूरा करूंगा। यह मेरे पिता के लिए सम्मान और समर्पण होगा और हमारे पिता के ऋण से थोड़ी मुक्ति होगी क्योंकि हमारे पूरे जीवन में पिता की भूमिका के ऋण से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता है। बस हम अपने वास्तविक कार्यों से उनका बोझ कम करने का प्रयास कर सकते हैं।

मेरे पिता हमारे आदर्श बनकर उभरे और उन्होंने मुझे जीवन का पहला पाठ शिक्षा से ही सिखाया, अगर हम समाज, परिवार, राष्ट्र और किसी के भी जीवन के लिए सम्मानित पूर्ण जीवन, आर्थिक विकास हासिल करना चाहते हैं। शिक्षा ग्रहण करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। जीवन भर उनके मन में एक टीस बनी रही कि यदि वे अपनी शिक्षा पूरी पूरी कर पाते, तो आज एक अच्छे पद से सेवानिवृत्त होते हैं, लेकिन शिक्षा के अभाव के कारण उन्हें पदोन्नति, वांछित पद, सम्मान और आगे कोई उच्च पद नहीं मिल सका। आज मैंने जो कुछ भी किया या हासिल किया वह शिक्षा के माध्यम से ही संभव हो सका और शिक्षा की यह प्रेरणा मुझे मेरे पिता के प्यार, मार्ग और समर्थन से मिली।

    आपके मित्र डॉ. कमलेश मीना द्वारा लिखित मेरे इस सोशल मीडिया लेख के माध्यम से हम अपनी सही दृष्टि, सही कार्य और सही दिशा के माध्यम से सही रास्ता देखना और दिखाना चाहते हैं जो केवल हमारे माता-पिता द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों का पालन करने से ही आएगा।

    मैं लाखों प्रार्थनाओं के साथ आप सभी को पितृ दिवस की शुभकामनाएं देता हूं कि हमारे सभी पिता स्वस्थ, दीर्घायु, प्रसन्न और सम्मानित जीवन व्यतीत करें। आपके बेटे डॉ. कमलेश मीना द्वारा लिखे गए इस सोशल मीडिया के लेख के माध्यम से मेरे प्यारे पिता, इस विशेष दिन पर आपके लिए एक छोटा सा उपहार है। मेरे पिता, फौजी और भाया, आपको फादर्स डे की शुभकामनाएं।

सादर।

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार। 

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...