शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” 

- संतोष श्रीवास्तव

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"सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने की ऊँच- नीच समझाना माँ का ही काम होता है। विशेषकर बेटी को समझाना..। माँ- बेटी का जुड़ाव तो इस क़दर मज़बूत होता है कि वे बिना कहे ही एक, दूसरे की बात समझ लेती हैं..।”



(मीनाक्षी दुबे की कहानी, ‘दयनीय दंभ’, का एक अंश।)

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''अविश्‍वास और संदेह के बीज इतनी गहराई तक पहुँच चुके जिससे चारों तरफ जहरीली गंध आने लगी थी। बेरोजगारी से हताश ऐसे बच्‍चों के अंदर की अकड़ नहीं गई बल्कि पहले से ज्‍यादा अहमक होते गए वे। अब किसी की सलाह सुनने समझने को तैयार ही नहीं। सपने इतने ऊँचे जिन्‍हें जमीन पर उतारने की सामर्थ्‍य उनमें से किसी में नहीं मगर अहंकर इतना कि पढ़े लिखे की बात सुनकर भवें चढ़ जातीं।”

(रजनी गुप्त की कहानी, ‘धूल भरी पगडंडियाँ’ का एक अंश) 

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अंतर्राष्ट्रीय विश्वमैत्री मंच का एक अभिनव आयोजन, कहानी संवाद ‘दो कहानी- दो समीक्षक’ दिनाँक- 14 अगस्त 2025, गुरुवार को शाम 6 :00 बजे, गूगल मीट पर आयोजित किया गया। 

इस अवसर अध्यक्षता कर रही अंतर्राष्ट्रीय विश्वमैत्री मंच की संस्थापक अध्यक्ष संतोष श्रीवास्तव ने अपने वक्तव्य में कहा कि - 

“आज का युवा कहानी साहित्य से जुड़ नहीं पा रहा है। उसकी एक बड़ी वजह ये है कि हम युवाओं से जुड़े विषयों पर नहीं लिख रहे हैं। आज का युवा संघर्षशील है। उसकी अपनी समस्याएँ हैं। उसे रोज़गार के लिए देश-विदेश में पलायन करना पड़ रहा है। हमें उसके दर्द को पहचानना होगा। आइये, स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, आज हम संकल्प करें कि हम युवाओं से जुड़े विषयों को कहानी का कथानक बनाएंगे।”

मुख्य अतिथि पवन जैन ने मीनाक्षी दुबे की कहानी ‘दयनीय दम्भ’ की समग्र रूप से समीक्षा करते हुए कहा कि - 

“कहानी के शीर्षक, ‘दयनीय दम्भ’, ने मुझे बहुत प्रभावित किया। दरअसल कहानी का  शीर्षक ही कहानी का प्रवेश द्वार होता है। यही पाठक के मन में कहानी पढ़ने की जिज्ञासा पैदा करता है। यह कहानी एक माध्यम वर्ग के परिवार की समस्याओं को उजागर करती है। इसका कथानक बहुत प्रभावी है। आज कहानी साहित्य का एक सशक्त हिस्सा बनती जा रही है।”   

विशिष्ट अतिथि, जया केतकी शर्मा ने रजनी गुप्त की कहानी ‘धूल भरी पगडंडियाँ’ की विवेचना करते हुए कहा कि -

“हम स्वयं, कहानी सुनते हुए धूल भरी पगडंडियों में खो गए थे। इसमें कोई शक नहीं कि हमारा जीवन चरित्र बदलता जा रहा है। आज के बच्चे अधिक स्वतंत्रता के कारण बिगड़ते जा रहे हैं। वे केवल अपनी ही दुनिया में रहना चाहते हैं। इसी तरह बच्चियाँ भी बिगड़ रही हैं। उन्हें सही रास्ता दिखाना हमारा फ़र्ज़ है।”

डॉ सुशीला टाकभौरे और शोभा शर्मा ने दोनों कहानियों पर अपनी, संक्षिप्त समीक्षात्मक टिप्पणी भी दी।   

अंतर्राष्ट्रीय विश्वमैत्री मंच की मध्य प्रदेश इकाई की निदेशक महिमा श्रीवास्तव वर्मा ने सभी साहित्य सुधीजनों का आत्मीय स्वागत किया। कार्यक्रम का सञ्चालन करते हुए अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच के महासचिव मुज़फ्फर सिद्दीकी ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर देश वासियों को बधाई दी। परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से कार्यक्रम को सफल बनाने में जिन्होंने ने भी सहयोग किया उन सभी का आत्मीय आभार भी व्यक्त किया। 

- धन्यवाद। 

- मुज़फ़्फ़र सिद्दीकी

 

शनिवार, 9 अगस्त 2025

विश्व के मूलनिवासी समुदाय ही संवैधानिक अधिकार और न्याय के असली नायक, मानवता के योद्धा, जंगल, जल, जमीन के सच्चे ट्रस्टी हैं: डॉ. कमलेश मीना।


  विश्व के मूलनिवासी समुदाय ही संवैधानिक अधिकार और न्याय के असली नायक, मानवता के योद्धा, जंगल, जल, जमीन के सच्चे ट्रस्टी हैं: डॉ. कमलेश मीना।

 हम सभी को मूलनिवासी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ, बधाइयाँ एवं अभिनंदन!

 

9 अगस्त 2025 को विश्व आदिवासी दिवस (World Indigenous Day) "स्वदेशी लोग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) - अधिकारों की रक्षा, भविष्य का निर्माण" ("Indigenous Peoples and Artificial Intelligence – Defending Rights, Shaping the Future") थीम के साथ मनाया जा रहा है।

 

अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी / स्वदेशी जन दिवस मनाने का उद्देश्य स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करना है। स्वदेशी लोगों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। आइए इस खूबसूरत उत्सव और अंतर्राष्ट्रीय दिवस के माध्यम से विश्व के मूल निवासियों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के बारे में और जानें। हम सभी को याद रखना चाहिए कि यह केवल एक दिवस मनाने का कार्यक्रम नहीं है, यह विश्व मूलनिवासी दिवस का उद्देश्य उन सबसे पिछड़े, उत्पीड़ित, वंचित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सम्मान और आदर देना है, जिन्होंने प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समुदायों के लिए जबरदस्त अपनी कला, संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों और स्वदेशी प्रथाओं के ज्ञान और विशेषज्ञता के माध्यम से हमेशा बलिदान और योगदान दिया। विश्व के स्वदेशी लोगों का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस विश्व स्वदेशी दिवस के इतिहास और महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाता है। यह मातृ प्रकृति को बढ़ावा देने जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने में समुदाय द्वारा किए गए योगदान और प्रभावों को भी मान्यता देता है।

 

विश्व के स्वदेशी लोगों का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2025 स्वदेशी लोग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई): अधिकारों की रक्षा, भविष्य को आकार देना' पर केंद्रित है। स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में रहने वाले स्वदेशी लोग जंगल के सबसे अच्छे संरक्षक हैं। यह दिन हमें एक मजबूत समुदाय से जोड़ता है जो प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों, जंगल, जल, जमीन को बचाने और संरक्षित करने के लिए हमेशा अपने जीवन का बलिदान देता है। विश्व आदिवासी दिवस का महत्व: एक बची हुई दुनिया, समुदाय और पर्यावरण के सच्चे संरक्षक को बचाने का प्रयास: आदिवासियों के मौलिक अधिकारों की सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है। पहली बार, जनजातीय या स्वदेशी लोग दिवस 9 अगस्त 1994 को जिनेवा में मनाया गया था। अब अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी लोग दिवस उत्सव मानवता और मानवतावाद का अभिन्न अंग बन गया है। इस अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी लोग दिवस के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं: भाषा संरक्षण: यूनेस्को लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से परियोजनाओं का समर्थन करता है। शिक्षा: यूनेस्को यह सुनिश्चित करने के लिए काम करता है कि स्वदेशी बच्चों और युवाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले जो उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती हो और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करती हो। सांस्कृतिक विरासत: यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है। नीति वकालत: यूनेस्को उन नीतियों की वकालत करता है जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों का सम्मान करते हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके समावेश को बढ़ावा देते हैं। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2025 स्वदेशी युवाओं के लचीलेपन और योगदान का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है। उनके सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करते हुए। परिवर्तन के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, विषय स्वदेशी नेताओं की अगली पीढ़ी को समर्थन और सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो यह हमारी दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है।बेहतर विश्व के लिए हमें स्वदेशी समुदायों की आवश्यकता है।

 

विश्व में अनुमानित 476 मिलियन मूलनिवासी लोग 90 देशों में रहते हैं। वे दुनिया की आबादी का 6 प्रतिशत से भी कम हिस्सा बनाते हैं, लेकिन सबसे गरीब लोगों में से कम से कम 15 प्रतिशत हैं। वे विश्व की अनुमानित 7,000 भाषाओं में से अधिकांश भाषाएँ बोलते हैं और 5,000 विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वदेशी लोग अद्वितीय संस्कृतियों और लोगों और पर्यावरण से संबंधित तरीकों के उत्तराधिकारी और अभ्यासकर्ता हैं। उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विशेषताओं को बरकरार रखा है जो उन प्रमुख समाजों से अलग हैं जिनमें वे रहते हैं। अपने सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद, दुनिया भर के स्वदेशी लोग अलग-अलग लोगों के रूप में अपने अधिकारों की सुरक्षा से संबंधित सामान्य समस्याएं साझा करते हैं। स्वदेशी लोग वर्षों से अपनी पहचान, अपने जीवन के तरीके और पारंपरिक भूमि, क्षेत्रों और प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकार को मान्यता देने की मांग कर रहे हैं। फिर भी, पूरे इतिहास में, उनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। आज मूलनिवासी लोग यकीनन दुनिया के सबसे वंचित और कमजोर समूहों में से एक हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब मानता है कि उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी विशिष्ट संस्कृतियों और जीवन शैली को बनाए रखने के लिए विशेष उपायों की आवश्यकता है। इन जनसंख्या समूहों की जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, हर 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है, जिसे 1982 में जिनेवा में स्वदेशी आबादी पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक की मान्यता में चुना गया था। यह कार्यक्रम उन उपलब्धियों और योगदानों को भी मान्यता देता है जो स्वदेशी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने के लिए करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय दिवस का उद्देश्य स्वदेशी लोगों द्वारा सामना किए गए दर्दनाक इतिहास को पहचानना और अपने समुदायों का जश्न मनाना है। स्वदेशी लोगों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर में स्वदेशी लोगों की अनूठी संस्कृतियों, योगदानों और चुनौतियों को पहचानने और उनका जश्न मनाने के लिए हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह दिन स्वदेशी आबादी के अधिकारों की रक्षा करने और उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समावेशन को बढ़ावा देने की आवश्यकता की याद दिलाता है। यूपीएससी की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों को विश्व के स्वदेशी लोगों के बारे में अवश्य जानना चाहिए। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाना स्वदेशी समुदायों के बुनियादी अधिकारों की वकालत का एक मंच है। स्वदेशी समुदायों की गिरावट सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरा है और यह दिन स्वदेशी लोगों की सुरक्षा, संरक्षण और पहुंच का अवसर प्रदान करता है। वैश्विक स्तर पर लगभग 476 मिलियन स्वदेशी लोग हैं, जो 90 देशों में फैले हुए हैं। वे दुनिया की आबादी का लगभग 6% हिस्सा बनाते हैं और 5,000 से अधिक विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया भर में स्वदेशी लोग अक्सर अद्वितीय सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखते हैं और अपनी पैतृक भूमि और प्राकृतिक संसाधनों से गहरा संबंध रखते हैं, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से स्थायी रूप से प्रबंधित किया है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) स्वदेशी लोगों के अधिकारों के समर्थन और वकालत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यूनेस्को स्वदेशी भाषाओं को संरक्षित करने, शिक्षा और साक्षरता को बढ़ावा देने और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए काम करता है। कुछ प्रमुख पहलों में शामिल हैं: भाषा संरक्षण: यूनेस्को लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को पुनर्जीवित करने और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से परियोजनाओं का समर्थन करता है।

 

शिक्षा: यूनेस्को यह सुनिश्चित करने के लिए काम करता है कि स्वदेशी बच्चों और युवाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले जो उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती हो और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करती हो। सांस्कृतिक विरासत: यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है। नीति वकालत: यूनेस्को उन नीतियों की वकालत करता है जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों का सम्मान करती हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके समावेश को बढ़ावा देती हैं। विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2025 स्वदेशी युवाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करते हुए उनके लचीलेपन और योगदान का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता है। परिवर्तन के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, विषय स्वदेशी नेताओं की अगली पीढ़ी को समर्थन और सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।

 

2025 की थीम स्वदेशी लोग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई): अधिकारों की रक्षा, भविष्य को आकार देना।' हर साल 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय विश्व स्वदेशी दिवस दुनिया भर में स्वदेशी आबादी के बारे में जागरूकता फैलाने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए मनाया जाता है। दुनिया भर में स्वदेशी आबादी प्रकृति के साथ घनिष्ठ संपर्क में रहती है। वे जिन स्थानों पर रहते हैं, वे दुनिया की लगभग 80% जैव विविधता का घर हैं। यह दिन दुनिया के पर्यावरण की रक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए योगदान को भी मान्यता देता है। भारत में मूलनिवासी आबादी को अनुसूचित जनजाति के नाम से भी जाना जाता है। मूल निवासी प्राचीन ज्ञान और परंपराओं के संरक्षक, सांस्कृतिक विरासत के रक्षक, जैव विविधता के संरक्षक और हमारे साझा भविष्य के लिए आवश्यक हैं।  इस वर्ष 2025 का विषय मूल निवासियों के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता के जोखिमों और लाभों पर केंद्रित है।  कृत्रिम बुद्धिमत्ता लुप्तप्राय भाषाओं और मौखिक इतिहासों को संरक्षित करने, पैतृक भूमि का मानचित्रण करने और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए मूल निवासियों के ज्ञान को बढ़ाने में मदद कर सकती है।  लेकिन मूल निवासियों की सार्थक भागीदारी के बिना, यही प्रौद्योगिकियाँ बहिष्कार के पुराने पैटर्न को कायम रखने, संस्कृतियों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का जोखिम उठाती हैं।  हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता का विकास और संचालन समावेशी, नैतिक और न्यायसंगत तरीकों से हो।  इसका अर्थ है मूल निवासियों के लिए नई तकनीकों के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करना, उनकी डेटा संप्रभुता और बौद्धिक संपदा अधिकारों की रक्षा करना, और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के अनुप्रयोग में उनके सार्थक समावेश का समर्थन करना।  इस महत्वपूर्ण दिन पर, आइए हम एक ऐसे भविष्य का निर्माण करें जहां प्रौद्योगिकी सांस्कृतिक संरक्षण और स्वदेशी ज्ञान का समर्थन करे, अधिकारों की रक्षा करे और आज तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए सम्मान को बढ़ावा दे।

 

संयुक्त राष्ट्र ने 23 दिसंबर, 1994 को 9 अगस्त को इस दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया। इस दिन 1982 में स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक हुई थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1995-2004 को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया। इसने 2005-2015 के दशक को दूसरा अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया। स्वदेशी लोग: यूनेस्को के अनुसार, स्वदेशी आबादी वैश्विक भूमि क्षेत्र के 28% हिस्से पर कब्जा करती है। उनकी कुल आबादी लगभग 500 मिलियन है। स्वदेशी आबादी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। उनमें से कई लोग हाशिए पर रहने, अत्यधिक गरीबी और अन्य मानवाधिकार उल्लंघनों से जूझ रहे हैं। उन्हें अभी भी स्वास्थ्य सेवा तक उचित पहुंच नहीं है। अपनी ज़मीन खोने और पर्यावरणीय कारणों से उन्हें खाद्य असुरक्षा का भी सामना करना पड़ता है। भारत में मूलनिवासी लोग: भारत में मूल निवासियों को अनुसूचित जनजाति भी कहा जाता है। अनुसूचित जनजातियों को भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पहला निवासी माना जाता है। उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे कम उन्नत माना जाता है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे मध्य भारतीय राज्यों में पाए जाने वाले 4 मिलियन की आबादी वाले गोंड भारत की सबसे प्रमुख जनजातियों में से एक हैं। पश्चिमी भारत के भील, पूर्वी भारत के संथाल और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के अंडमानी भारत की कुछ प्रमुख जनजातियाँ हैं। आदिवासियों ने अपने ज्ञान का उपयोग न केवल अपने लिए बल्कि पूरे देश के लिए किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को याद करते हुए 'आज़ादी के अमृत महोत्सव' का समापन किया गया। यह आदिवासियों के राष्ट्र प्रेम का अमृत ही था जिसने सिद्दू और कान्हू, तिलका और मांझी, बिरसा मुंडा आदि जैसे वीर योद्धाओं को जन्म दिया।

अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह दिन दुनिया भर में रहने वाले आदिवासी समुदायों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उन्हें समान अवसर प्रदान करने तथा उनकी संस्कृति, रीति-रिवाजों, विरासत, पहचान और योगदान का सम्मान करने के लिए समर्पित है।

 

जनजातीय जगत और ज्ञान परंपरा स्वयं विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, आयुर्वेद, होम्योपैथ, भौतिक चिकित्सा, योग और ध्यान की विकिपीडिया है। आदिवासियों को आपदा, प्राकृतिक आपदा, रक्षा एवं विकास का अद्भुत ज्ञान है। ऐतिहासिक किताबों और ग्रंथों में इस बात का जिक्र मिलता है कि किस तरह मुगलों या अंग्रेजों ने पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया लेकिन जब उन्होंने आदिवासी इलाकों में घुसने की सोची तो उन्हें हार का सामना करना पड़ा। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि हम वास्तव में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, तो देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के अवसरों को न केवल आसान बनाने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामीणों या आम लोगों के लिए आविष्कार उपलब्ध कराना। इन्हें वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग में लाने की जरूरत है। आदिवासियों या वनवासियों की अपनी मिट्टी के प्रति प्रतिबद्धता, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण और सम्मान है। आदिवासी लोग अपने जनसंचार माध्यमों के माध्यम से देश को न केवल आजाद कराने बल्कि उसे जगाने का काम भी करते रहे हैं। इस बात से कोई इनकार और उपेक्षा नहीं कर सकता कि बंगाली लोकनाट्य 'जात्रा' का आजादी की लड़ाई में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ था। लोकगीत के पारंपरिक रूप 'पाला' का प्रयोग भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जनजागरण में भी किया गया था। यूं तो इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां आदिवासियों ने जनसंचार माध्यमों के जरिए आजादी की लौ जलाए रखी। ऐसे में अगर हम आदिवासियों के इस ज्ञान, अनुभव, विशेषज्ञता और, शिक्षा को अपनाएं तो आदिवासियों की यह देशी ज्ञान परंपरा देश और दुनिया के लिए सशक्त समाधान का माध्यम बन सकती है, अब इस स्वदेशी को पहचानने की जरूरत है ज्ञान दें और इसे वैज्ञानिक मान्यता दें। हमेशा याद रखें कि यह दिन स्वदेशी लोगों के अपने निर्णय लेने और उन्हें उन तरीकों से लागू करने के अधिकारों पर प्रकाश डालता है, सशक्त बनाता है जो उनके लिए सार्थक और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त हों। संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने अपने प्रस्ताव 49/214 में, हर साल 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह विश्व स्तर पर स्वदेशी आबादी के अधिकारों और जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। मूलनिवासियों के महत्व और उनके अर्थ को विस्तार से समझाने के उद्देश्य से यह दिन मनाया जाता है। इसे हमेशा दिल और दिमाग में रखें कि स्वदेशी लोग एक विशिष्ट क्षेत्र या देश के मूल निवासी जातीय समूह हैं, जिनकी अपनी पहचान के साथ विशिष्ट संस्कृतियां, परंपराएं, भाषाएं और मान्यताएं हैं।

 

हमें इस बात की सराहना करनी चाहिए कि विश्व आदिवासी दिवस, विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस, आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह आयोजन उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करता है जो आदिवासी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को सुधारने में करते हैं। दुर्भाग्य से आज यह सबसे कमजोर समुदाय है और हम सभी को उन्हें बचाने, उनकी कला, स्वदेशी प्रथाओं के ज्ञान और प्रकृति की गहरी समझ को संरक्षित करने के लिए आगे आने की जरूरत है। न केवल आज बल्कि हर दिन, पूरी दुनिया को अपने भविष्य की योजना बनाने के लिए स्वदेशी लोगों के अधिकारों के पीछे खड़ा होना चाहिए। आइए हम सब मिलकर शांति, सम्मानजनक, सुरक्षित और सम्मान से जीने के उनके अधिकारों की रक्षा करें। दोस्तों, आज नहीं बल्कि हर दिन, विश्व समुदाय को अपने भविष्य की योजना बनाने के लिए मूल निवासियों के अधिकारों के पीछे खड़ा होना चाहिए। इस ग्रह पर, यही एकमात्र समुदाय है जो हमें सुरक्षित, स्वस्थ और सतत विकास, ऊर्जा, सुरक्षात्मक जीवन और हर संघर्ष का शांतिपूर्ण समाधान दे सकता है। इन विशेषताओं को हमारे दिलो-दिमाग में हमेशा बनाए रखने की जरूरत है ताकि हम सभी अपने व्यक्तिगत जीवन में एक समझदार, संवेदनशील और सार्वजनिक सरोकार वाला व्यवहार विकसित कर सकें। यह दिवस दुनिया के मूल निवासियों के अधिकारों के समर्थन और संरक्षण के लिए हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। इसे विश्व मूल निवासी दिवस या विश्व के मूल निवासियों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस भी कहा जाता है। यह दिन दुनिया भर के आदिवासी समुदायों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रभावी ढंग से काम करने का एक शानदार अवसर प्रदान करता है। विश्व आदिवासी दिवस 2025 का विषय: "मूल निवासी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता - अधिकारों की रक्षा, भविष्य को आकार देना।"

 

विश्व आदिवासी दिवस (विश्व स्वदेशी दिवस) 9 अगस्त 2025 को "स्वदेशी लोग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) - अधिकारों की रक्षा, भविष्य को आकार देना" ("स्वदेशी लोग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता - अधिकारों की रक्षा, भविष्य को आकार देना") थीम के साथ मनाया जा रहा है। इस थीम का तात्पर्य है कि आज के डिजिटल युग में, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे नए तकनीकी क्षेत्रों में आदिवासियों की भी भागीदारी हो और उनके अधिकारों की रक्षा हो। यह भी ज़रूरी है कि आदिवासी भाषाओं, सांस्कृतिक विरासत और संस्कृति को तकनीक में शामिल किया जाए। आदिवासी भाषाओं, सांस्कृतिक धरोहर और पहचान को भी बढ़ावा मिले। संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य आदिवासी समुदायों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना, उनकी सांस्कृतिक विविधता को पहचानना और उनके अधिकारों की रक्षा करना है। AI जैसे उभरते हुए क्षेत्र में आदिवासी लोगों की भागीदारी और उनके अधिकारों का संरक्षणI जैसे क्षेत्र में उभरे जनजातीय लोगों की भागीदारी और उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए इस लक्ष्य को प्राप्त करना बेहद महत्वपूर्ण है। हर साल 09 अगस्त को मनाया जाता है। यह दिन दुनिया भर में रहने वाले आदिवासी समुदायों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी संस्कृति, पहचान और योगदान का सम्मान करने के लिए समर्पित है।

 

सादर।

 

डॉ कमलेश मीना,

सहायक क्षेत्रीय निदेशक,

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र जयपुर राजस्थान। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र जयपुर, 70/80 पटेल मार्ग, मानसरोवर, जयपुर, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

 

एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।

 

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बुधवार, 2 जुलाई 2025

दोपहर का भोजन' हाहाकरी अभाव और भूख के समक्ष परिवार बचाने की ज़िद भरी कहानी - विवेक कुमार मिश्र

 'दोपहर का भोजन' हाहाकरी अभाव और भूख के समक्ष परिवार बचाने की ज़िद भरी कहानी 

                                    - विवेक कुमार मिश्र 


हिंदी कहानी को क्लासिक और अमर कहानी से अमरकांत ने न केवल एक नई चमक दी बल्कि उनकी कहानियों से क्या कुछ सीखना चाहिए यह भी ध्वनित होता रहा है । अमरकांत की कहानियां दिल और दिमाग पर एक साथ बजती हैं, आपको इतने गहरे स्तर पर आंदोलित करती हैं कि पाठक सीधे सीधे उस दृश्य संसार में पहुंच जाता है जहां उनका कहानीकार लेकर जाता है । अमरकांत को पढ़ना मूलतः भारत के गांव कस्बों के आम आदमी, गरीब और बेबस आदमी के उस पारिवारिक रिश्तों को देखना जीना है जहां सब एक दूसरे के लिए अपने अपने हिस्से को खर्च करते हुए घर परिवार की उस संरचना को रचते हैं जहां भरोसा सबसे बड़ा सूत्र है । अमरकांत की प्रसिद्ध कहानी 'दोपहर का भोजन '  परिचित संसार की कथा है , दोपहर का समय है और परिवार को भोजन करना है । दोपहर में परिवार भोजन करता है यह एक सहज अवस्था होती है सामान्य सी बात लग सकती है पर दोपहर का भोजन कहानी में दोपहर सामान्य नहीं है उस तरह से भी नहीं है जैसी दोपहरी की हम सब कल्पना या अनुमान लगाया करते हैं । यहां दोपहर कुछ अलग ढ़ंग से आती है । सिद्धेश्वरी के घर आंगन में कुछ अलग ही... 'सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उंगलियां या जमीन पर चलते चींटे चींटियों को देखने लगी । अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से प्यास लगी है । वह मतवाले की तरह उठी और गगरे से लोटा भर पानी लेकर गट गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह "हाय राम !"कह कर वहीं जमीन पर लेट गई।'

लगभग आधे घंटे तक वह उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई , आंखों को मल मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध टूटे खटोले पर सोए छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई । लड़का नंग धडंग पड़ा था । उसके गले तथा छाती की हड्डियां साफ साफ दिखाई देती थी । उसके हाथ पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हड़िया की तरह फूला हुआ था । उसका मुंह खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियां उड़ रही थीं । यह दृश्य चित्र उस भयावहता का है जिसकी छाया पूरे घर पर दिख रही है और जिसका सामना मां के रूप में सिद्धेश्वरी को करना है जिसके लिए किसी तरह का सुख नहीं है, दिन भर खटने के बीच अचानक से उसे याद आता है कि पानी पीना है और लोटा भर पानी पी लेती है। शायद यही एक चीज है जो उनके यहां इफरात है नहीं तो दोपहर के भोजन के दृश्य पूरी तरह से सच्चाई को खोलकर रखने के लिए तैयार बैठे हैं । बड़ा लड़का जो बीस साल के लगभग का है दूर गली से आता हुआ दिखता है उसके आने से पहले ही सिद्धेश्वरी चौके में जाकर भोजन लगा लाती है और भोजन क्या है थाली में देख लें दो रोटी, पानी भरी दाल जिसमें दाल कम पानी ज्यादा है और चने की झोल वाली सब्जी और इसे खाने के अभ्यस्त घर के सदस्य । बड़ा बेटा भी बार बार यही कहता है कि पेट भरा हुआ है खाया नहीं जा रहा है और मां पूछती ही रहती है कि क्या और रोटी लाएं । नहीं नहीं करते बेटा पनियायी दाल पी रहा है और रोटी को चुभला रहा है, इसी तरह का दूसरा दृश्य भी तब बनता है जब मंझला बेटा आता है उसे भी वही रोटी पानी भरी दाल और सब्जी मिलती है बीच बीच में मां बड़े बेटे की नौकरी मिलने की बात करती है , बडे बेटे से मंझले और छोटे बेटे की तारीफ करती है तो पिता से बड़े बेटे की तारीफ करती है कि जल्द ही उसकी नौकरी लग जायेगी फिर पिताजी को काम नहीं करने देगा और कहेगा कि आराम से बैठिए। छोटे भाइयों को पढ़ायेगा और उन पर जान छिड़कता है । इस तरह से परिवार में सिद्धेश्वरी जी एक संतुलन बनाने का काम करती रहती हैं और पिता की क्या स्थिति है यह भी किसी से छिपी नहीं है । कहानीकार अमरकांत दिखलाते हैं कि पिता की उम्र पैंतालीस की है पर लगते पचपन के हैं । गाल पिचके हुए हैं हाथ पांव झूलते से दिखते हैं । 

बड़ा बेटा रामचंद्र, मंझला बेटा मोहन खा चुके हैं और सब बाबूजी के और छोटे भाई प्रमोद के खाने की पूछते हैं । दोपहर का भोजन है पर गरीबी और हालात कुछ इस तरह से बनते हैं कि एक साथ कोई नहीं खाता सब एक एक कर खाते जा रहे हैं और अगले की चिंता में पेट का बड़ा हिस्सा पानी से भर रहे हैं, उस पानी में दाल का भी कुछ हिस्सा है जिससे इनकी दुनिया बची रहे। 

इस दोपहर के भोजन का दृश्य कुछ यों बनता है - " मोहन कटोरे को मुंह में लगाकर सुड़ सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिकाप्रसाद जूतों को खस कस घसीटते हुए आए और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए। ...दो रोटियां, कटोरा भर दाल तथा चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिकाप्रसाद पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक एक ग्रास को इस तरह चुभला रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है । उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष की थी पर लगते पचपन के थे । शरीर का चमड़ा झुलने लगा था, गंजी खोपड़ी आइने की भांति चमक रही थी । गंदी धोती के उपर अपेक्षाकृत साफ बनियान तार तार लटक रही थी । 

मुंशीजी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोड़ा सुड़कते हुए पूछा, बड़का दिखाई नहीं दे रहा !  सिद्धेश्वरी पंखे को थोड़ा तेज घुमाती हुई बोली अभी अभी खाकर काम पर गया है । कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जायेगी । हमेशा बाबूजी बाबूजी किए रहता है । बोला बाबूजी देवता के समान हैं। " 

अमरकांत की यह कहानी दोपहर का भोजन मुंशीजी, सिद्धेश्वरी और तीन बेटों की वह कहानी है जिसमें घर में जो सदस्य हैं, एक दूसरे को बहुत प्यार और ख्याल करते हैं पर काम धाम और नौकरी न होने के कारण असाहयता की उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जब सब एक दूसरे की उन्नति और तरक्की की बस कामना करते रहते हैं और अपने अपने हिस्से की रोटी को छोड़कर पानी भरी दाल को सुड़कते हुए जीवन और समय काट रहे हैं । अंतिम दृश्य इस कहानी की उस भयावहता को उस सच को सामने रख देता है जिससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है यह दृश्य यों है - " सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था । आंगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टंगी थी। जिसमें कई पैबंद लगे थे । दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था । बाहर की कोठरी में मुंशीजी औंधे मुंह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे जैसे देढ़ महीने पहले पूर्व मकान किराया नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छंटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो! ...यह कहानी उस सच को व्यक्त करती है जिसमें गरीबी का केवल हाहाकार भर नहीं है बल्कि पूरा परिवार मिलकर उस स्थिति से संघर्ष कर रहा है इस संघर्ष में माता पिता और तीनों भाई हैं । अमरकांत ने कहानी को एक ऐसी सिद्धि दी है कि जिसमें हम अपनी परछाई भी देख लें और वह सच भी देख लें जो कहानीकार दिखाना चाहता है । ग़रीबी पूरे परिवेश पर ऐसे हावी है कि उससे निकलने के लिए जो भी सपने बुने जाते हैं वे बस सपने भर ही रह जाते हैं भूखे पेट भला सपने भी कैसे पाले जा सकते हैं। 

दोपहर का भोजन कहानी निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के उस सच को सामने लाने का साहस है जहां भरपेट रोटी नहीं है पानी भरे दाल में संतुष्टि देखी जा रही है और सब एक दूसरे के लिए अपने हिस्से का त्याग करते हुए परिवार को बचाने में लगे हैं । यह कहानी भूख की पीड़ा, अभाव के बीच परिवार को बचाने की ज़िद की कहानी है । सिद्धेश्वरी जी के संघर्ष में भारतीय माताओं का त्याग है । परिवार का हर सदस्य दोपहर का भोजन पा ले यह चिंता ही सिद्धेश्वरी के माथे पर लकीर बन खींची हुई है । यहां त्याग है, चिंता है, संघर्ष है और इन सबके उपर परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के लिए जी रहा है । यह कहानी अभावों के बीच माता-पिता और तीन बेटों के जीने की उस संघर्ष मय स्थिति की महागाथा है जो दोपहर के भोजन पर ही दृश्य संसार का विषय बनती है और इस तरह से मानव मन को संघर्ष का एक ऐसा पथ भी देती है कि हालात चाहे जितने खराब हों जिंदगी और जीवन से बढ़कर कुछ नहीं है । जीना है और अपनी शर्तों पर जीना है भले पनियाये दाल पीकर जिंदगी क्यों न काटनी पड़े पर जो संघर्ष और स्वाभिमान के पथ पर चलता है वह झुकना और गिरना नहीं जानता । न ही सफलता का कोई शार्टकट अपनाता। वह हंसी खुशी अपने असहाय संघर्ष में भी जीवन जीने की ज़िद में सिद्धेश्वरी की तरह आगे बढ़ता है। अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन एक अमर क्लासिक कहानी है । 

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विवेक कुमार मिश्र 

प्रोफेसर - हिंदी

रविवार, 25 मई 2025

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार- प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार (पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित)

 

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार

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             प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

'श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार', वास्तव में, एक ऐसा परिप्रेक्ष्य है, जिसकी प्रासंगिकता स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गीता के उपदेश (लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) के समय से आज भी कम नहीं है। कैसे या क्यों? यह प्रश्न हर किसी के मस्तिष्क में आना स्वाभाविक है। इसलिए, परिप्रेक्ष्य की स्पष्टता के लिए, सबसे पहले हमें मूल विषय या विषय में सम्मिलित शब्दों, लोकाचार और नेतृत्व को उनकी मूल भावना के साथ समझना होगा। तदुपरान्त, सैन्य नेतृत्व और लोकाचार का संक्षेप में श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में विश्लेषण करना होगा।

लोकाचार शब्द वस्तुतः मानव आचरण या व्यवहार का व्यापक रूप है। सामान्यतः जब किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरण या व्यवहार, विशेषकर सामान्य हित और कल्याण की दृष्टि से लगभग समान होते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे लोकाचार में बदल जाते हैं। इस प्रकार, लोकाचार एक विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरणों या व्यवहारों का समूह है; निर्धारित नियम और कर्त्तव्यपरायण नैतिकता, दोनों, उनसे जुड़े हुए हैं। एक प्रकार से वे उचित या न्यायसंगत कृत्य –सदाचार को प्रकट करने वाले बन जाते हैं।

इस स्थिति के बाद भी, अर्थात्, किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र की परिधि के लोगों के लिए उपयोगी होने के उपरान्त, यह आवश्यक नहीं है कि कोई लोकाचार किसी अन्य वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के निवासियों के लिए भी समान रूप से कल्याणकारी बना रहे। यही नहीं, किसी लोकाचार के अस्तित्व में आने के बाद उसका सदैव समान रूप से उपयोगी या लाभकारी बने रहना भी सम्भव नहीं है। समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार एक-के-बाद दूसरा लोकाचार स्थापित और स्वीकार किया जा सकता है। नया लोकाचार पहले से अधिक अच्छा और कल्याणकारी हो भी सकता है अथवा नहीं भी हो सकता। दूसरा लोकाचार पहले के एकदम विपरीत हो सकता है। इस सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व (259: 17: 18) में स्पष्ट उल्लेख है:

न हि सर्वहित: कश्चिदाचार: सम्प्रवर्त्तते/

तेनैवान्य: प्रभवति सोऽपरं बाधते पुन://

अर्थात्,ऐसा कोई आचरण-लोकाचार नहीं है, जो सदैव सभी लोगों के लिए समान रूप से कल्याणकारी (या सार्वजनिक हित में) हो। यदि (एक समय पर) एक आचरण स्वीकार कर लिया जाता है, तो दूसरे समय का आचरण उससे श्रेष्ठ नहीं भी हो सकता; तीसरा इसके एकदम विपरीत हो सकता है…I

इसके बाद भी कई लोकाचार दीर्घकाल तक के लिए प्रासंगिक और कल्याणकारी हो जाते हैं, यदि उन्हें उनकी मूल भावना में संरक्षित रखते हुए, समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार परिष्कृत या संशोधित रूप में व्यवहारों में लाया जाता है। उनमें से कुछ तो सदैव के लिए भी, इसी शर्त के साथ, महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी बन जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु इस प्रकार के लोकाचार भविष्य में अपनी स्थापना के समय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। हमें मुख्य रूप से श्रीमद्भगवद्गीता में लोकाचार के सम्बन्ध में प्रकट इस सर्वकालिक पहलू का संक्षिप्त विश्लेषण करना होगा, लेकिन इससे पहले यदि हम इस विषय में जुड़े 'नेतृत्व' शब्द के सम्बन्ध में भी लोकाचार को केन्द्र में रखते हुए तनिक चर्चा कर लें, तो अच्छा होगा।

प्राचीनकाल से ही नेतृत्व के कई प्रकार, श्रेणियाँ, क्षेत्र और स्तर रहे हैं। वर्तमान में भी ऐसा हो सकता है। लेकिन, नेतृत्व सदैव ही अपनी सच्ची और संक्षिप्त परिभाषा में वृहद् कल्याण के उद्देश्य से अन्यों के लिए अनुसरण किया जाने वाला एक आदर्श रूप होता है। दूसरे शब्दों में, यह व्यापक लोक कल्याण के लिए होता है। लोग नेतृत्वकर्ता के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं। नेतृत्वकारी मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं उसकी अग्निपरीक्षा उत्तरदायित्व स्वीकारने तथा उसके समुचित निर्वहन करने में है।

एक नेतृत्वकारी –श्रेष्ठ पुरुष के सम्बन्ध में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता (3: 21) में सत्य ही कहा है:

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः/

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते//

अर्थात्, नेतृत्वकारी –महापुरुष जो भी कार्य करता है, अन्य लोग उसके पदचिह्नों का अनुगमन करते हैं; वह अपने अनुकरणीय कार्यों से जो भी मानक स्थापित करता है, अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं, उसके अनुसार व्यवहार करते हैं।''

किसी लोकाचार की स्थापना, लोगों द्वारा उसे स्वीकार करने और उसकी मूल भावना के अनुरूप व्यवहार करने में नेतृत्व की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है, नेतृत्वकर्ता स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सुनिश्चित करने हेतु मार्ग प्रशस्त करता है कि लोगों द्वारा लोकाचार का समुचित रूप से पालन किया जाए।

परस्पर जन सहयोग द्वारा विशाल स्तर पर लोगों का कल्याण उससे आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है। अनुशासन और आज्ञाकारिता के साथ-साथ कर्त्तव्यनिष्ठ नैतिकता, जो मनुष्य को प्रलोभन, वासना, लालच और बुरी इच्छा जैसी बुराइयों पर नियंत्रण पाने और मानव को जीवन के सत्यमय लक्ष्य की प्राप्ति की ओर ले जाने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन करती है, लोकाचार के अनुपालन हेतु विशेष रूप से केन्द्र में रहती है।

 योगेश्वर कहते हैं, जो मनुष्य सभी इच्छाओं, लोभ-वासनाओं और लालसाओं को त्यागकर, आसक्ति, स्नेह और अहंकार के बिना आचरण करता है (केवल कर्त्तव्यपरायण रहकर नैतिकता की मूल भावना का पालन करता है, जो स्वयं लोकाचार के मूल में निहित है), वह जीवन के लक्ष्य शान्ति को प्राप्त करता है।"

यथा:

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः/

निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति// (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 71)

श्रीमद्भगवद्गीता में न केवल मानव-जीवन में लोकाचार के महत्त्व पर बारम्बार बल दिया गया है, अपितु अनन्तकाल तक मानवमात्र का पथप्रदर्शन करने वाले इस दिव्य गीत के माध्यम से नेतृत्व के महत्त्व पर भी जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने, मानव-जीवन को अर्थपूर्ण, सक्षम और सार्थक बनाने के उद्देश्य से, लोकाचार की अग्रणीय भूमिका से सम्बन्धित एक सर्वकालिक सन्देश भी दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार, निस्सन्देह, सभी के द्वारा धर्ममय कर्मों –सदाचार-संलग्नता में तथा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया द्वारा, जो अन्ततः वृहद् जन कल्याण को समर्पित है, न्यायसंगत संलग्नता में है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, स्वार्थरहित एवं निष्काम कर्म ही मनुष्य का प्रथम धर्म है; यह सर्वोच्च नैतिकता को अक्षुण्ण रखता है। आलस्य, लोकाचार के विपरीत स्थिति है एवं धर्म-मार्ग से भटकाव और अनैतिकता है। श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार-सम्बन्धी यह सन्देश इसे हर युग और प्रत्येक देश में महत्त्वपूर्ण और सर्वकालिक बनाता है। नेतृत्वकर्ताओं को, वे जीवन के किसी भी क्षेत्र से हों, लोगों के कल्याण हेतु, विशेष रूप से किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सभी के लिए न्याय और समानता हेतु, इसे अपने प्रमुख कर्त्तव्य तथा धर्म के रूप में स्वीकार करते हुए जीवन-पथ पर निस्स्वार्थ भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए। यह श्रीमद्भगवद्गीता का एक प्रमुख आह्वान है। लोकाचार और नेतृत्व के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता का यह एक उत्कृष्ट और अनुकरणीय पहलू है।

भारत के इतिहास से अनेक ऐसे नेतृत्वकारियों को उद्धृत किया जा सकता है, जिन्होनें श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्त को जीवन में अंगीकार किया; तदनुसार, कर्म-संलग्नता से देश को नेतृत्व प्रदान करते हुए इतिहास रचे। हिन्दुस्तान के पुनर्जागरणकाल एवं देश की अँग्रेजी दासता से मुक्ति हेतु संघर्ष की अवधि में, और स्वाधीनता के उपरान्त राष्ट्र के पुनर्निर्माण के समय के अनेक महान और महानतम भारतीयों के सम्बन्ध में विशेष रूप से यहाँ यह कहा जा सकता है। भारत के ऐसे महान और महानतम सुपुत्रों के नामों से हम सभी परिचित हैं। सैन्य नेतृत्व के लिए, जिसकी प्राथमिकता से प्रतिबद्धता सभी लोगों की सुरक्षा को अपना स्वधर्म मानते हुए (वास्तव में जो मानव-कर्त्तव्य निर्धारण हेतु सापेक्ष नियम है), हर स्थिति व हर रूप में राष्ट्र की रक्षा करना है, श्रीमद्भगवद्गीता के लोकाचार और नेतृत्व-सम्बन्धी सन्देश को अपने जीवन का परम कर्त्तव्य स्वीकार करना, तदनुसार कार्य करना अतिमहत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से, नेतृत्वकर्ताओं के मनोबल को उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए यह प्रतिरक्षक की भूमिका में है, क्योंकि उच्च मनोबल सैन्य नेतृत्वकारियों को शक्ति के साथ ही उत्तरदायित्व भावना से ओतप्रोत करता है।

सैन्य नेतृत्व और उन सैनिकों के लिए यह श्रेष्ठ एवं सर्वकालिक मार्गदर्शन है, जो स्वयं जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण के निम्नलिखित आह्वान (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47) के अनुरूप निस्स्वार्थ भावना से समदेशियों, राष्ट्र और मानवता की रक्षा के लिए, सभी सांसारिक सम्बन्धों, सुख-दुख, सिद्धि-असिद्धि अथवा प्राप्ति-अप्राप्ति और इच्छाओं से दूर रहकर व अपने प्राण हथेली पर रखकर, सदैव ही तैयार रहते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन/

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि//

इसका अर्थ है, तुम्हारा केवल कर्म में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं; कर्म के फल को अपना उद्देश्य मत बनने दो, न ही निष्क्रियता के प्रति तुम्हारी आसक्ति हो।'' दूसरे सरल शब्दों में, "किसी को कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल का नहीं है।"

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...