स्वराज्य
और स्वदेशी
अँग्रेजी
दासता से हिन्दुस्तान की मुक्ति के संघर्ष में, विशेषकर
बीसवीं शताब्दी के प्रथम, द्वितीय और
तृतीय दशक में,
राष्ट्रीय
स्तर पर 'स्वराज्य' और 'स्वदेशी' ये दो शब्द
प्रमुखता से उभरे। इन शब्दों ने प्रभावशाली नारों के रूप में अपनी मूल भावना के
साथ देशवासियों को उनके हृदयों की गहराई तक छुआ। भारतीयों को विदेशी पराधीनता से
राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्ष करने हेतु अत्यधिक प्रेरित किया।
स्वराज्य
एक संस्कृत शब्द है। यह स्व (स्वयं) और राज्य (प्रकाशमान स्थिति का निर्माणकर्ता
शासन) के योग से बना है। आत्मसंयम सहित अपरिहार्य नैतिक मूल्यों के पालन द्वारा
जीवन को उसके लक्ष्य तक ले जाना इसका उद्देश्य है। स्वराज्य, लगभग दो
हजार पाँच सौ वर्ष पूर्व तथागत गौतम द्वारा मानव को उसके जीवन की सार्थकता के लिए
दिए गए सन्देश,
"अप्प दीपो भवः –स्वयं
प्रकाशमान हो" की मूल भावना के अनुसार ही है।
स्वदेशी
भी एक संस्कृत शब्द है। यह स्व एवं देश के विशेषण देशी की सन्धि से निर्मित है।
साधारण शब्दों में इसका अर्थ है, 'स्वयं देश का'।
स्वराज्य
और स्वदेशी,
दोनों
शब्द,
जैसा
कि उल्लेख कर चुके हैं, अँग्रेजी दासता से हिन्दुस्तान की
मुक्ति के संघर्ष के समय देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत बनें। इन्होंने सशक्त
नारों के रूप में करोड़ों भारतीयों को तिलक और गाँधी सहित उस काल के अन्य अग्रणीय
राष्ट्रीय नेताओं के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलनों में प्रतिबद्धता के साथ जोड़ा। प्राथमिकता से देश की
स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता निस्सन्देह उस समय इनके साथ जुड़ी भावनाएँ थीं। लेकिन, इन शब्दों
की मूल भावना भारत की साम्राज्यवादियों से स्वाधीनता और राष्ट्रीय समृद्धि से कहीं
आगे जाकर वृहद् मानव-कल्याण में है। इनका वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आज भी अत्यधिक
महत्त्व है। कैसे? यह वास्तविकता भारत के स्वाधीनता संग्राम के
समय स्वराज व स्वदेशी के नारों के प्रमुख प्रेरणास्रोत और लोगों में इनके माध्यम
से आई जागृति के सम्बन्ध में आगे की चर्चा में स्वतः ही सामने आ जाएगी।
स्वाधीनता
संग्राम में प्रभावशाली रूप में उभरकर देशवासियों का स्वशासन व राष्ट्रोत्थान के
लिए स्वयं मार्ग-निर्धारण करने का आह्वान करने वाले इन नारों के प्रणेता स्वामी
दयानन्द 'सरस्वती' थे।
एक
ही अविभाज्य समग्रता –सर्वशक्तिमान, सर्वपालक
और सर्वकल्याणकारी परमेश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वासकर्ता स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' स्वशासन के, जिसमें
प्रत्येक जन स्वाधीन हो और अन्ततः समान रूप से अपनी उन्नति का अपने पुरुषार्थ से
मार्ग प्रशस्त कर सके, घोर समर्थक थे। स्वामीजी मानते थे कि स्वयं
परमेश्वर की ओर से प्रत्येक जन, नारी-पुरुष, को अपने
उत्थान की स्वतंत्रता प्राप्त है। उनकी यह भी प्रबल अभिलाषा थी कि देशवासी अपने
मूल्यों व संस्कृति के संरक्षण में स्वयं के संसाधनों और श्रम के बल पर राष्ट्र की
सम्पन्नता का कार्य करें, व देश के गौरव को स्थापित रखें।
महर्षि ने इस हेतु देशवासियों को जागृत करने के उद्देश्य से जीवनभर कार्य किया। यहाँ
यह बात समझ लेनी चाहिए कि स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने भले ही
स्वराज्य और स्वदेशी की बात भारत को केन्द्र में रखकर की हो, लेकिन इसकी
मूल भावना संसार के समस्त जन की स्वतंत्रता थी। समान रूप से सबका उत्थान था।
स्वामीजी के विचारों में किसी की भी परतंत्रता को कोई स्थान नहीं था। कोई भी स्व प्रकाश
–स्वयं के उत्थान के अवसर से वंचित
नहीं था। स्वयं महर्षि दयानन्द 'सरस्वती' के शब्द
हैं,
"जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के
विषय में वर्त्तता हूँ, वैसा विदेशियों
के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तना योग्य है।" (सत्यार्थ
प्रकाश: भूमिका,
पृष्ठ
3)
स्वराज्य
और स्वदेशी सम्बन्धी अपने अति श्रेष्ठ विचारों के कारण ही महर्षि दयानन्द दादाभाई
नौरोजी,
रानाडे, गोखले, लाजपत रॉय, अरविन्द
घोष,
टैगोर, बिपिन चन्द्र
पॉल,
सावरकर
आदि जैसे राष्ट्र नायकों के प्रेरणास्रोत बने। यहाँ स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' के दो और
समकालीनों,
नामधारी
सन्त राम सिंह कूका और बंकिम चन्द्र चटर्जी के नाम भी, जो
समाजसुधार कार्यों के साथ ही स्वदेशी भावना से लोगों को प्रेरित करने में अग्रणीय
थे,
उल्लेखनीय
हैं।
इस
सम्बन्ध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने जिन दो
महानायकों को,
जैसा
कि मेरा अपना मानना है, सर्वाधिक प्रभावित किया, वे थे
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी। इसीलिए, स्वराज्य
और स्वदेशी तिलक और गाँधी के संघर्षों के केन्द्र में रहे। "स्वराज्य
मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे
लेकर रहूँगा", इस आह्वान के साथ तिलक और "स्वदेशी
स्वराज्य की आत्मा है", इस वैचारिक
प्रतिबद्धता के साथ गाँधी देश की स्वाधीनता के लिए जीवनभर संघर्षरत रहे। दोनों ने इस
दिशा में,
जैसा
कि देश के इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं, ठोस कार्य भी किए
और वे स्वराज्य और स्वदेशी के प्रेरकों के
रूप में देशवासियों के हृदयों में बस गए। आजतक भी वे इस रूप में महान प्रेरकों के
रूप में स्थापित हैं।
लोकमान्य
बाल गंगाधर तिलक की स्वराज्य और स्वदेशी की मूल भावना, थोड़े-बहुत
वैचारिक अन्तर के साथ भी, जो स्वाभाविक है, स्वामी
दयानन्द 'सरस्वती' से भिन्न
नहीं रही। वेदान्त दर्शन में विश्वासकर्ता और ‘गीतारहस्य’ जैसी कृति
के रचनाकार लोकमान्य तिलक सबकी समान उन्नति, सुखमय जीवन
जीने के स्वाभाविक अधिकार तथा स्वतंत्रता के समर्थक थे, और इसे
उच्च नैतिकता के रूप में भी स्वीकार करते थे। एक अवसर पर इसीलिए उन्होंने कहा था, "चूँकि
सभी सजीव … वस्तुओं में एक ही
आत्मा होती है। इसलिए प्रसन्नतापूर्वक जीना प्रत्येक का स्वाभाविक अधिकार है। और, यदि कोई
व्यक्ति इस सामान्य स्वाभाविक अधिकार की अनदेखी केवल इसलिए करता है, क्योंकि वह
व्यक्ति या समाज शक्ति, संख्या, उपकरण और
तकनीक के विषय में दूसरे व्यक्ति या समाज से श्रेष्ठ है, तो यह
अनैतिक है।"
विशेष
रूप से स्वराज्य के बारे में देशवासियों का आह्वान करते हुए लोकमान्य ने स्पष्ट
किया,
"राजनीतिक नैतिकता का विज्ञान स्वराज्य है।
यदि राजनीतिक सिद्धान्त आपको पराधीनता की ओर वापस ले जाता है, तो हम इसे
अस्वीकार करते हैं। राजनीति देश का वेदान्त है। आप सभी में आत्मा है। मैं बस इसे
पुनर्जीवित करने जा रहा हूँ।"
विदेशी
सत्ता सुधारों के नाम पर अच्छे शासन –सुराज का
कितना भी दवा क्यों न करे, लेकिन वह स्वराज्य का विकल्प नहीं हो
सकता। स्वराज्य –स्वशासन के बिना
प्रगति सम्भव नहीं। स्वदेशी के बिना कहीं भी जनता की आत्मनिर्भरता की सम्भावना
नहीं। लोकमान्य तिलक इस दृढ़ विश्वास के साथ निरन्तर जनमानस को जागृत करते रहे। वे
जीवनभर संघर्ष और कार्य करते रहे।
संक्षेप
में,
अनुशासित
और आत्म-नियंत्रित जन बाह्य-आन्तरिक नियंत्रण से मुक्त और शासन-सत्ता पर कम-से-कम
निर्भर हों,
यह
महात्मा गाँधी के स्वराज्य-विचार के केन्द्र में है। साथ ही, स्वराज्य
देशकाल की परिस्थितियों की माँग के अनुरूप नए आयामों को भी छुए, लेकिन इसका
माध्यम देशी मूल्य, संस्कृति और सभ्यता हो, महात्मा
गाँधी का यह दृष्टिकोण भी था। स्वराज्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्थान
नहीं,
सर्वकल्याण
इसकी मूल भावना है और इसमें कायिक रूप से अक्षम, अपंग और
दृष्टिहीन भी अपनी आवाज और भागीदारी की अनुभूति करे।
महात्मा
गाँधी के अनुसार स्वदेशी, जैसा कि उल्लेख कर चुके हैं, स्वराज की
आत्मा है। इसमें आर्थिक दृष्टि से आवश्यक
वस्तुओं के सम्बन्ध में निकटतम पहुँच के लोगों (पड़ोसियों) के साथ सहयोग को
प्राथमिकता,
विदेशी
के स्थान पर अपने स्रोतों से देशी वस्तुओं के उत्पादन व निर्माण और, साथ ही, उनका उपभोग, व
राष्ट्रीय मूल्य केन्द्रित अपनी ही भाषा में शिक्षा सम्मिलित है। अपने स्रोतों व
मूल्यों के बल पर आगे बढ़ना, वास्तव में, उन्नति का
श्रेष्ठ और परिणामकारी मार्ग है। यह प्रेम और मानवता को समर्पित सिद्धान्त है।
स्वयं गाँधीजी के शब्दों में, "मैं
आग्रहपूर्वक कहूँगा कि स्वदेशी ही एकमात्र सिद्धान्त है जो विनम्रता और प्रेम के
नियम के अनुरूप है।" यह समानता का मार्ग प्रशस्त करता है और
नैतिकता के सिद्धान्त का भी पालन करता है।
अन्ततः
स्वदेशी का उद्देश्य देशवासियों को आत्मनिर्भर बनाना है। इसीलिए, महात्मा
गाँधी का आह्वान था कि भारत स्वदेशी मार्ग पर आगे बढ़े। स्वराज्य का सुदृढ़ भवन
तैयार हो और वह पूरे विश्व को भी मार्ग दिखाए।
सार रूप
में हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' से लेकर
महात्मा गाँधी तक के स्वराज्य और स्वदेशी सम्बन्धी विचार, भारत की
स्वाधीनता व समृद्धि केन्द्रित होने के बाद भी अपनी मूल भावना में अन्ततः वृहद्
जन-कल्याण को समर्पित रहे। ये विचार आज भी सारे विश्व के लिए प्रासंगिक हैं और उन
करोड़ों जन के लिए प्रेरणादायी हैं, जो अप्रजातांत्रिक के साथ ही
प्रजातंत्रात्मक व्यवस्थाओं वाले देशों में भी विभिन्न रूपों में वंचित है –समानता, स्वतंत्रता, न्याय व
अधिकारों की प्राप्ति से दूर हैं।
*पद्मश्री
और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र
कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I
****