रविवार, 25 मई 2025

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार- प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार (पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित)

 

श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार

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             प्रोफेसर डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

'श्रीमद्भगवद्गीता: सैन्य नेतृत्व और लोकाचार', वास्तव में, एक ऐसा परिप्रेक्ष्य है, जिसकी प्रासंगिकता स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गीता के उपदेश (लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) के समय से आज भी कम नहीं है। कैसे या क्यों? यह प्रश्न हर किसी के मस्तिष्क में आना स्वाभाविक है। इसलिए, परिप्रेक्ष्य की स्पष्टता के लिए, सबसे पहले हमें मूल विषय या विषय में सम्मिलित शब्दों, लोकाचार और नेतृत्व को उनकी मूल भावना के साथ समझना होगा। तदुपरान्त, सैन्य नेतृत्व और लोकाचार का संक्षेप में श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में विश्लेषण करना होगा।

लोकाचार शब्द वस्तुतः मानव आचरण या व्यवहार का व्यापक रूप है। सामान्यतः जब किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरण या व्यवहार, विशेषकर सामान्य हित और कल्याण की दृष्टि से लगभग समान होते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे लोकाचार में बदल जाते हैं। इस प्रकार, लोकाचार एक विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र के लोगों के आचरणों या व्यवहारों का समूह है; निर्धारित नियम और कर्त्तव्यपरायण नैतिकता, दोनों, उनसे जुड़े हुए हैं। एक प्रकार से वे उचित या न्यायसंगत कृत्य –सदाचार को प्रकट करने वाले बन जाते हैं।

इस स्थिति के बाद भी, अर्थात्, किसी विशेष वर्ग, समुदाय, समाज या राष्ट्र की परिधि के लोगों के लिए उपयोगी होने के उपरान्त, यह आवश्यक नहीं है कि कोई लोकाचार किसी अन्य वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के निवासियों के लिए भी समान रूप से कल्याणकारी बना रहे। यही नहीं, किसी लोकाचार के अस्तित्व में आने के बाद उसका सदैव समान रूप से उपयोगी या लाभकारी बने रहना भी सम्भव नहीं है। समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार एक-के-बाद दूसरा लोकाचार स्थापित और स्वीकार किया जा सकता है। नया लोकाचार पहले से अधिक अच्छा और कल्याणकारी हो भी सकता है अथवा नहीं भी हो सकता। दूसरा लोकाचार पहले के एकदम विपरीत हो सकता है। इस सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व (259: 17: 18) में स्पष्ट उल्लेख है:

न हि सर्वहित: कश्चिदाचार: सम्प्रवर्त्तते/

तेनैवान्य: प्रभवति सोऽपरं बाधते पुन://

अर्थात्,ऐसा कोई आचरण-लोकाचार नहीं है, जो सदैव सभी लोगों के लिए समान रूप से कल्याणकारी (या सार्वजनिक हित में) हो। यदि (एक समय पर) एक आचरण स्वीकार कर लिया जाता है, तो दूसरे समय का आचरण उससे श्रेष्ठ नहीं भी हो सकता; तीसरा इसके एकदम विपरीत हो सकता है…I

इसके बाद भी कई लोकाचार दीर्घकाल तक के लिए प्रासंगिक और कल्याणकारी हो जाते हैं, यदि उन्हें उनकी मूल भावना में संरक्षित रखते हुए, समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार परिष्कृत या संशोधित रूप में व्यवहारों में लाया जाता है। उनमें से कुछ तो सदैव के लिए भी, इसी शर्त के साथ, महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी बन जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु इस प्रकार के लोकाचार भविष्य में अपनी स्थापना के समय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। हमें मुख्य रूप से श्रीमद्भगवद्गीता में लोकाचार के सम्बन्ध में प्रकट इस सर्वकालिक पहलू का संक्षिप्त विश्लेषण करना होगा, लेकिन इससे पहले यदि हम इस विषय में जुड़े 'नेतृत्व' शब्द के सम्बन्ध में भी लोकाचार को केन्द्र में रखते हुए तनिक चर्चा कर लें, तो अच्छा होगा।

प्राचीनकाल से ही नेतृत्व के कई प्रकार, श्रेणियाँ, क्षेत्र और स्तर रहे हैं। वर्तमान में भी ऐसा हो सकता है। लेकिन, नेतृत्व सदैव ही अपनी सच्ची और संक्षिप्त परिभाषा में वृहद् कल्याण के उद्देश्य से अन्यों के लिए अनुसरण किया जाने वाला एक आदर्श रूप होता है। दूसरे शब्दों में, यह व्यापक लोक कल्याण के लिए होता है। लोग नेतृत्वकर्ता के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं। नेतृत्वकारी मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं उसकी अग्निपरीक्षा उत्तरदायित्व स्वीकारने तथा उसके समुचित निर्वहन करने में है।

एक नेतृत्वकारी –श्रेष्ठ पुरुष के सम्बन्ध में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता (3: 21) में सत्य ही कहा है:

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः/

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते//

अर्थात्, नेतृत्वकारी –महापुरुष जो भी कार्य करता है, अन्य लोग उसके पदचिह्नों का अनुगमन करते हैं; वह अपने अनुकरणीय कार्यों से जो भी मानक स्थापित करता है, अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं, उसके अनुसार व्यवहार करते हैं।''

किसी लोकाचार की स्थापना, लोगों द्वारा उसे स्वीकार करने और उसकी मूल भावना के अनुरूप व्यवहार करने में नेतृत्व की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है, नेतृत्वकर्ता स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सुनिश्चित करने हेतु मार्ग प्रशस्त करता है कि लोगों द्वारा लोकाचार का समुचित रूप से पालन किया जाए।

परस्पर जन सहयोग द्वारा विशाल स्तर पर लोगों का कल्याण उससे आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है। अनुशासन और आज्ञाकारिता के साथ-साथ कर्त्तव्यनिष्ठ नैतिकता, जो मनुष्य को प्रलोभन, वासना, लालच और बुरी इच्छा जैसी बुराइयों पर नियंत्रण पाने और मानव को जीवन के सत्यमय लक्ष्य की प्राप्ति की ओर ले जाने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन करती है, लोकाचार के अनुपालन हेतु विशेष रूप से केन्द्र में रहती है।

 योगेश्वर कहते हैं, जो मनुष्य सभी इच्छाओं, लोभ-वासनाओं और लालसाओं को त्यागकर, आसक्ति, स्नेह और अहंकार के बिना आचरण करता है (केवल कर्त्तव्यपरायण रहकर नैतिकता की मूल भावना का पालन करता है, जो स्वयं लोकाचार के मूल में निहित है), वह जीवन के लक्ष्य शान्ति को प्राप्त करता है।"

यथा:

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः/

निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति// (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 71)

श्रीमद्भगवद्गीता में न केवल मानव-जीवन में लोकाचार के महत्त्व पर बारम्बार बल दिया गया है, अपितु अनन्तकाल तक मानवमात्र का पथप्रदर्शन करने वाले इस दिव्य गीत के माध्यम से नेतृत्व के महत्त्व पर भी जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने, मानव-जीवन को अर्थपूर्ण, सक्षम और सार्थक बनाने के उद्देश्य से, लोकाचार की अग्रणीय भूमिका से सम्बन्धित एक सर्वकालिक सन्देश भी दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार, निस्सन्देह, सभी के द्वारा धर्ममय कर्मों –सदाचार-संलग्नता में तथा स्वाभाविक कर्म-प्रक्रिया द्वारा, जो अन्ततः वृहद् जन कल्याण को समर्पित है, न्यायसंगत संलग्नता में है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, स्वार्थरहित एवं निष्काम कर्म ही मनुष्य का प्रथम धर्म है; यह सर्वोच्च नैतिकता को अक्षुण्ण रखता है। आलस्य, लोकाचार के विपरीत स्थिति है एवं धर्म-मार्ग से भटकाव और अनैतिकता है। श्रीमद्भगवद्गीता का लोकाचार-सम्बन्धी यह सन्देश इसे हर युग और प्रत्येक देश में महत्त्वपूर्ण और सर्वकालिक बनाता है। नेतृत्वकर्ताओं को, वे जीवन के किसी भी क्षेत्र से हों, लोगों के कल्याण हेतु, विशेष रूप से किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सभी के लिए न्याय और समानता हेतु, इसे अपने प्रमुख कर्त्तव्य तथा धर्म के रूप में स्वीकार करते हुए जीवन-पथ पर निस्स्वार्थ भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए। यह श्रीमद्भगवद्गीता का एक प्रमुख आह्वान है। लोकाचार और नेतृत्व के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता का यह एक उत्कृष्ट और अनुकरणीय पहलू है।

भारत के इतिहास से अनेक ऐसे नेतृत्वकारियों को उद्धृत किया जा सकता है, जिन्होनें श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्त को जीवन में अंगीकार किया; तदनुसार, कर्म-संलग्नता से देश को नेतृत्व प्रदान करते हुए इतिहास रचे। हिन्दुस्तान के पुनर्जागरणकाल एवं देश की अँग्रेजी दासता से मुक्ति हेतु संघर्ष की अवधि में, और स्वाधीनता के उपरान्त राष्ट्र के पुनर्निर्माण के समय के अनेक महान और महानतम भारतीयों के सम्बन्ध में विशेष रूप से यहाँ यह कहा जा सकता है। भारत के ऐसे महान और महानतम सुपुत्रों के नामों से हम सभी परिचित हैं। सैन्य नेतृत्व के लिए, जिसकी प्राथमिकता से प्रतिबद्धता सभी लोगों की सुरक्षा को अपना स्वधर्म मानते हुए (वास्तव में जो मानव-कर्त्तव्य निर्धारण हेतु सापेक्ष नियम है), हर स्थिति व हर रूप में राष्ट्र की रक्षा करना है, श्रीमद्भगवद्गीता के लोकाचार और नेतृत्व-सम्बन्धी सन्देश को अपने जीवन का परम कर्त्तव्य स्वीकार करना, तदनुसार कार्य करना अतिमहत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से, नेतृत्वकर्ताओं के मनोबल को उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए यह प्रतिरक्षक की भूमिका में है, क्योंकि उच्च मनोबल सैन्य नेतृत्वकारियों को शक्ति के साथ ही उत्तरदायित्व भावना से ओतप्रोत करता है।

सैन्य नेतृत्व और उन सैनिकों के लिए यह श्रेष्ठ एवं सर्वकालिक मार्गदर्शन है, जो स्वयं जगतगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण के निम्नलिखित आह्वान (श्रीमद्भगवद्गीता, 2: 47) के अनुरूप निस्स्वार्थ भावना से समदेशियों, राष्ट्र और मानवता की रक्षा के लिए, सभी सांसारिक सम्बन्धों, सुख-दुख, सिद्धि-असिद्धि अथवा प्राप्ति-अप्राप्ति और इच्छाओं से दूर रहकर व अपने प्राण हथेली पर रखकर, सदैव ही तैयार रहते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन/

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि//

इसका अर्थ है, तुम्हारा केवल कर्म में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं; कर्म के फल को अपना उद्देश्य मत बनने दो, न ही निष्क्रियता के प्रति तुम्हारी आसक्ति हो।'' दूसरे सरल शब्दों में, "किसी को कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल का नहीं है।"

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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